सभ्यता के द्वारा ही संस्कृति एक समाज से दूसरे समाज को एवं एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित की जाती है। सभ्यता का निर्माण करके ही मनुष्य सांस्कृतिक विकास के पथ पर अग्रसर होता है। Sabhyata Aur Sanskriti Ka Sambandh मानव जीवन से है । प्रायः मनुष्य की उपयोगिता से संबन्ध रखने वाली रुचियां एक- दूसरे से मिली रहती हैं।
Relationship between Civilization and Culture.
जब मनुष्य खेतों में काम करता है, तब वह गीत भी गाता है। उपयोगी वस्तुओं को बनाते हुए वह प्रयास करता है कि वे वस्तुएं सुन्दर भी हों। जब मनुष्य भवनों का निर्माण करता है, तब उन्हें उपयोगी बनाते हुए सुन्दर बनाने का प्रयत्न भी करता है। मनुष्य के उपयोगी क्रिया कलापों पर उसके नैतिक तथा दार्शनिक विचारों और निष्ठाओं का प्रभाव पड़ता है। वास्तविक जीवन में मनुष्य के उपयोगी और सांस्कृतिक क्रिया कलाप परस्पर मिश्रित हो जाते हैं।
प्रत्येक सभ्यता, प्रत्येक संस्कृति अपने आप में पूर्ण होती है। उसके सभी अंश एक-दूसरे पर अवलम्बित और किसी एक केन्द्र से संलग्न होते हैं। सभ्यता का संबन्ध उपयोगिता के क्षेत्र से है और संस्कृति का मूल्यों के क्षेत्र से है। Sabhyata Aur Sanskriti Ka Sambandh उस क्षेत्र में निहित है ।
जिस प्रकार साध्य और साधनों को एक दूसरे से पृथक नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार सभ्यता तथा संस्कृति को भी एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। मनुष्य की कल्पना के कुछ क्षेत्र जैसे कला, काव्य और साहित्य , जहां सौन्दर्य और उपयोगिता के पहलू एक दूसरे से अनिवार्य रूप से सम्मिश्रित हो जाते हैं, वहां सभ्यता और संस्कृति दोनों का ही समन्वय हो जाता है।
कुछ लोग संस्कृति को धर्म, दर्शन, कानून व्यवस्था, साहित्य, कला, संगीत आदि के साथ जोड़कर नितांत बौद्धिक तथा आध्यात्मिक मूल्यों के रूप में ही ग्रहण करते हैं। कभी-कभी इसका विस्तार करके शासक वर्ग के शिष्टाचारों का भी इसमें समावेश कर लिया जाता है। परंतु इस प्रकार की संस्कृति को इतिहास का प्रेरणास्रोत मानने में अनेक कठिनाइयां हैं।
सभ्यता और संस्कृति मनुष्य के सृजनात्मक क्रियाकलापों के ही परिणाम हैं। जब ये क्रियाकलाप मूल भावना ,चेतना और कल्पना को प्रबुद्ध करते हैं, तब संस्कृति का उदय होता है। किन्तु वैज्ञानिक चिन्तन तथा सामाजिक और राजनीतिक चिन्तन के क्षेत्र में उपयोगिता, मूल भावना, चेतना और कल्पना के पहलू परस्पर मिल जाते हैं।
जब एक वैज्ञानिक अपने प्रयोगों और अन्वेषणों में सत्य की खोज करता है , तब उसके क्रियाकलाप सांस्कृतिक हैं। परंतु जब वह एक आविष्कारक और निर्माता के रूप में प्राकृतिक शक्तियों को मनुष्य की उपयोगिता के लिए नियंत्रित करता है, तब वह सभ्यता का सृजन करता है।
मनुष्य स्वभावतः प्रगतिशील प्राणी है। वह बुद्धि के प्रयोग से अपने चारों ओर की प्राकृतिक परिस्थिति को निरंतर सुधारता और उन्नत करता रहता है। ऐसे समाज, जाति या वर्ग जो सांस्कृतिक दृष्टि से उन्नत या श्रेष्ठ नहीं हैं, उच्च कोटि की सभ्यता को जन्म नहीं दे सकते हैं। जब तक लोग संस्कृति के एक विशिष्ट स्तर तक नहीं आ जाते, तब तक वे लोकतंत्र, समाजवाद और साम्यवाद जैसे जटिल सामाजिक और आर्थिक संगठनों तथा संस्थाओं को आयोजित या विकसित नहीं कर सकते।
सांस्कृतिक क्रिया-कलापों से सभ्यता विकसित होती है। संस्कृति के अभाव में सभ्यता अपना अस्तित्व बनाए नहीं रख सकती। संस्कृति और सभ्यता की प्रगति अधिकतर एक साथ होती है और दोनों का एक-दूसरे पर प्रभाव भी पड़ता है।
संस्कृति मनुष्य के जीवन और अस्तित्व को अधिक सचेतन, व्यापक और समृद्ध बनाती है, उसकी आध्यात्मिकता में वृद्धि करती है, धर्म और दर्शन का विकास करती है, संस्कृति की यह सार्थकता है। अक्सर हम सभ्यता और संस्कृति शब्दों का प्रयोग अपने व्यवहार में प्रायः एक ही अर्थ में करते हैं। पर समाजशास्त्रियों ने इन दोनों में विभेद भी किया है।
सभ्यता का तात्पर्य प्रायः उच्च आदर्शों और मूल्यों से युक्त समाज के अर्थ में किया जाता है। पर कई मानवशास्त्रीय अध्ययनों से यह निष्कर्ष भी निकले हैं कि बहुत से आदिम समाजों के अपने जीवन मूल्य, धारणाएं, विश्वास, नियम, धर्म तथा परंपराएं रही हैं। समय के साथ-साथ उन्होंने भी प्रकृति के सापेक्ष्य अपनी जीवन पद्धति में कुछ परिवर्तन किए, जो आधुनिक संदर्भों में उनकी संस्कृति की विशेषता थी।