मातृदेवी की पूजा भारत में अति प्राचीनकाल से चली आ रही है। मोहनजोदड़ो तथा हड़प्पा की खुदाईयों में Lok Deviyan मातृदेवी की मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं । यहाँ स्थापित शक्तिपीठ भी अत्यन्त प्राचीन माने जाते हैं। शक्तिपीठों के सम्बन्ध में पुराणों में कथा मिलती है, जिसके अनुसार दक्ष यज्ञ के बाद विष्णु के चक्र से सती का अंग-प्रत्यंग जहाँ- जहाँ गिरा था, वे सब स्थान देवीपीठ के नाम से विख्यात हुए।
देवीपीठों की संख्या के विषय में कई मत हैं । खुदाई में प्राप्त मूर्तियों और शक्तिपीठों की सूची से यह स्पष्ट होता है कि देवी की उपासना प्राचीन होने के साथ ही हिंगुलाज से कामाक्षा तक और शारदा से सिंहल तक भारत के सभी भागों में Lok Deviyan प्रचलित थी, जो भारतीय जनमानस की मूल भावनात्मक एकता का प्रतीक रही है।
समय के साथ-साथ भारत में देवी उपासना निरन्तर बढ़ती ही गई और देवी के नाम और रूपों में वृद्धि होती गई। देवी शक्ति थी, जो अपने पुरुष सहयोगी रूप का बल तथा पौरुष थी । ऐसी धारणा थी कि देव अकर्त्त एवं अतिश्रेष्ठ था, जबकि उसका नारीतत्त्व क्रियाशील तथा अन्तर्गढ़ था।
लोक देवियों का रूप
पौराणिक साहित्य के अन्तर्गत लोक देवियों का रूप कहीं देव पत्नियों एवं अप्सराओं ने ग्रहण किया है, तो कहीं परावाक्, काली, दुर्गा, श्रद्धा, माया, सीता, सावित्री एवं अनुसूइया सदृश नारियों ने। इसी प्रकार दुर्गा, काली, ब्राह्मी, वाराही, कात्यायनी, रोहिणी, रौद्री, तारा, भैरवी, बगला, मांतगी आदि पंचदेवी, सप्त माता, नवदुर्गा, नव कन्यका, नवशक्ति दस महाविद्याओं की आराधना भी शक्ति उपासना के ही विविध रूप हैं। देवी माता का प्रधान रूप शिव की पत्नी का था, जिसे उसके परोपकारी पक्ष में पार्वती कहते हैं । अपने क्रूर रूप में वह दुर्गा के नाम से प्रसिद्ध हैं।
काली, काले रूप वाली असितांग और चण्डी भयंकर युद्ध की देवी थी, अपने भयानक पक्ष में उसे बहुधा भयानक डाहिन के रूप में चित्रित किया गया है, जिसकी सर्वदा अनेक भुजाएँ हैं और जिनमें वह विभिन्न शस्त्र धारण किये रहती है, गले में मानव मुण्डों की माला होती है। जहाँ साधक एवं भक्त वैदिक- पौराणिक शक्तियों की उपासना शास्त्रोक्त विधि से करते हैं, वहीं भारत के विभिन्न क्षेत्रों में लोक परम्परा के अनुसार भगवती शक्ति के प्रतीक रूप में अनेक लोक देवियों की आराधना होती है ।
Folk Goddesses of Bundelkhand
भारत में प्रचलित इस देवी उपासना की धार्मिक पृष्ठभूमि में जब हम बुन्देलखण्ड क्षेत्र को देखते हैं तो ज्ञात होता है कि यह क्षेत्र अत्यन्त प्राचीनकाल से शक्ति पूजा का प्रमुख केन्द्र और शैव-शाक्त मंत्र-तंत्र-सिद्धि में विश्वास रखने वाला जनपद रहा है। देवी भागवत में शक्तिपीठों का उल्लेख विन्ध्याचल और कालिंजर पर भी मिलता है। श्री दुर्गा सप्तशती के ग्यारहवें अध्याय में भगवती ने अपने सात अवतारों की कथा में विन्ध्याचल निवासिनी की कथा भी कही है।
पुरातात्त्विक सर्वेक्षण में भी बौद्ध एवं गुप्तकालीन देवी प्रतिमाएँ और मातृकाओं की मूर्तियाँ तो काफी संख्या में प्राप्त हुई हैं। अनुसंधान होने पर इसका काल और भी पीछे जा सकता है। यहाँ प्राचीनकाल से ही पुलिन्द, गौंड, भील, शबर आदि अनार्य – अशिक्षित जातियों का बाहुल्य रहा है ।
महाभारत आदि पुराणों में वैदिक युग से ही बुन्देलखण्ड में इन जातियों के निवासी होने के पर्याप्त साक्ष्य मिलते हैं । बुन्देलखण्ड का पठारी पर्वतीय प्रदेश अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण सदैव से शैक्षिक और आर्थिक दृष्टि से पिछड़ा रहा है। अतएव अभावग्रस्त कठोर जीवन के कारण यहाँ के निवासियों में साहस, संघर्ष की प्रवृत्तियाँ और स्वभाव अक्खड़पन आ गया, जिसने उन्हें शक्ति पूजक बना दिया। यहाँ पर सबसे प्राचीनतम मठ और मन्दिर शिव और देवी के ही मिलते हैं ।
अपनी कुछ आंचलिक विशिष्टताओं को छोड़कर बुन्देलखण्ड की शक्ति उपासना बहुत अंश तक भारत में प्रचलित शक्ति उपासना का ही प्रतिनिधित्व करती है । भारत के अन्य अंचलों की तरह बुन्देली लोक जीवन में भी अनेक देवियों की पूजा प्रचलित है । यहाँ गाँव-गाँव में देवियों के मठ हैं । प्रत्येक गाँव की एक स्थानीय देवी होती है, जिसे गेंउड़े की देवी कहते हैं।
देवी को किसी पूज्य वृक्ष के नीचे स्थापित कर दिया जाता है । सभी हिन्दू वेद, पुराणों, तंत्र ग्रन्थों में वर्णित देवी-देवताओं को मानते हैं, किन्तु लोकजीवन में उनका रूप बदलकर लौकिक हो गया है। बुन्देली लोक ने शास्त्रोक्त पद्धतियों को अपने अनुरूप ढालकर उन्हें सरल, सहज और लोकोपयोगी बना लिया है और वे लोक मुख में बुन्देली नाम पाकर उनकी अपनी मौलिक सी लौकिक देवियाँ बन गई हैं।
बुन्देली परिवारों में विभिन्न पूजाओं पर जो भित्तिचित्र बनाये जाते हैं, खूँट निकाले जाते हैं, चौक पूरे जाते हैं – उनमें शास्त्रोक्त पद्धति के तंत्र-मंत्र चक्र घुले-मिले मिलते है, जो लोक में आज विस्मृत हो चुके हैं। उदाहरणत: दीपावली पर बनाई जाने वाली सुराती सोलह खण्ड की होती है। देवी का आवाहन करने के लिए शास्त्रों में सोलह खण्ड का एक मंत्र है । हिन्दू धर्म की मान्यता के अनुसार कोई भी देवी-देवता मंत्र के आवाहन करने पर ही आते हैं। इसी प्रकार लक्ष्मी पूजन में पन्द्रही बनती है । पन्द्रही में कहीं से भी जोड़ें पन्द्रह का ही जोड़ होता है । इसमें भी सुख, समृद्धि, लाभ का ही मंत्र है ।