Bundelkhand Ke Vaivah बुन्देलखण्ड के वैवाहिक लोकाचार

Bundelkhand Ke Vaivah

भारतीय संस्कृति में मान्य सोलह संस्कारों में विवाह सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण संस्कार माना गया है। यह नर-नारी का वह पारस्परिक सम्बन्ध है, जो धर्म एवं नियम से आबद्ध है । Bundelkhand Ke Vaivah में रीतियों एवं लोकाचारों में वेद-विधि एवं लोक-रीति दोनों का सुन्दर सम्मिश्रण देखने को मिलता है। विवाह योग्य कन्या के लिए वर की खोज हो जाने के पश्चात् जिन वैवाहिक रीतियों एवं लोकाचारों का निर्वहन वर एवं वधू पक्ष के परिवारों में होता है।

विवाह शब्द का व्युत्पत्तिपरक अर्थ है – ले जाना । साधारणतः इस शब्द का अर्थ होता है वधू को उसके पिता के घर से विशेष रूप से ले जाना। विवाह शब्द के समानार्थक शब्दों के रूप में उदवाह, परिणय, उपयम, पाणिग्रहण आदि प्रयुक्त होते हैं। उदवाह का अर्थ है- वधू को उसके पिता के घर से ले जाना । परिणय का अर्थ है – चारों ओर घूमकर अर्थात् अग्नि की परिक्रमा अथवा प्रदक्षिणा करना। उपयम का अर्थ है- किसी को निकट लाकर अपनाना तथा पाणिग्रहण का अर्थ है वधू का हाथ ग्रहण करना ।

स्त्री- पुरुष विवाह बंधन में बंधकर परिवार को उसी प्रकार संयमित रख सकते हैं, जिस प्रकार दोनों ध्रुव धरती को नियंत्रित रखते हैं । विवाह मात्र दो व्यक्तियों का आपसी सहचर्य नहीं वरन् सम्पूर्ण समाज को साथ लेकर चलने की भावना है, जिसके साक्षी व्यक्ति ही नहीं नक्षत्र भी होते हैं । इसीलिए इस सम्बन्ध में वैसी ही दृढ़ता होती है, जैसी नक्षत्रों में होती है ।

 वरीक्षा
वरीक्षा का अर्थ है वर की रक्षा । कन्या के पिता द्वारा योग्य वर की तलाश कर लेने के पश्चात् वर के हाथ में कुछ धन, नारियल, जनेऊ एवं सुपारी रखकर उक्त वर को सुरक्षित कर लिया जाता है । वरीक्षा की रीति सम्पन्न हो जाने के पश्चात् उसके अन्यत्र विवाह की चर्चा नहीं हो सकती है।

ओली भरना
वर की रक्षा हो जाने के पश्चात् वरपक्ष के द्वारा भी कन्या की गोद भराई की रस्म की जाती है । पण्डित द्वारा शुभ मुहूर्त शोधकर तिथि निश्चित कर दी जाती है । उसी तिथि पर वर पक्ष यहाँ से वर के माता-पिता एवं रिश्तेदार आकर कन्या की ओली भरते हैं। इसमें वर पक्ष द्वारा लाई गई सामग्री नारियल, सूखे मेवे, बताशा, फल, मिष्ठान एवं वस्त्राभूषण आदि कन्या की ओली में भरे जाते हैं । कन्या पक्ष की ओर से यथाशक्ति वर पक्ष के लोगों को सम्मान एवं भेंट आदि देकर सन्तुष्ट किया जाता है।

लगुन
पंडित द्वारा शुभ तिथि शोधकर परिजन एवं पुरजनों की उपस्थिति में लगुन लिखी जाती हैं। लगुन में विवाह के सम्पूर्ण कार्यक्रम तिथि सहित अंकित किये जाते हैं। लगुन को बुन्देली में सुतकरा कहते हैं। लगुन पत्रिका में सीधा छूना, छैई माटी लेना, खदान पूजना, मण्डप गाड़ना, द्वारचार, चढ़ाव, भाँवर एवं विदाई आदि समस्त वैवाहिक कार्यक्रमों की तिथि एवं समय अंकित रहता है उसी के अनुसार सभी वैवाहिक रीतियाँ एवं लोकाचार सम्पन्न होते हैं। लगुन पत्रिका कन्या को स्पर्श कराने के पश्चात् उपस्थित सभी लोगों को स्पर्श करायी जाती हैं। सभी लोग उस पर भेंट स्वरूप कुछ धनराशि चढ़ाते हैं । लगुन लिखते समय महिलाएँ में पछोरती हैं । यह अनाज गेहूँ या चना होता है । 
कोरे से कगदा मंगाये राजा बाबुल, बेटी की लगन लिखाई मोरे लाल ।
पाँच सुपारी मँगाई बाबूल जु बेटी की लगुन लिखाई मोरे लाल ।
पाँच हरद की गठियाँ मँगाई बाबुल जु बेटी की लगुन लिखाई मोरे लाल ।
नारियल मंगाये, चांदी मंड़ाये, सो बेटी की लगन लिखाई मोरे लाल ।

कन्या पक्ष के लोग पिता, चाचा, भाई आदि लगुन पत्रिका में निर्धारित शुभ तिथि को तिलक या फलदान की सामग्री लेकर वर पक्ष के यहाँ जाते हैं। जहाँ कन्या पक्ष द्वारा लाई गई सामग्री चाँदी से मड़ा हुआ नारियल, सुपारी, हल्दी की गाँठ, फल, फूलमाला, पान का बीड़ा, मेवा-मिष्ठान एवं वस्त्राभूषण चाँदी के थाल अथवा स्टील या काँसे के थालों में सजाकर रखा जाता है।

वर को एवं कन्या के भाई को पटा पर आमने-सामने बैठाकर पण्डित द्वारा गणपति पूजन करवाया जाता है । तत्पश्चात् कन्या का भाई वर का टीका कर चाँदी के थाल में रखी धनराशि, वस्त्राभूषण, नारियल, सुपारी, हल्दी आदि वर के हाथों में सौंपता है। दोनों परस्पर गले मिलते हैं एवं पान का बीड़ा खिलाते हैं । वर का तिलक चढ़ के पश्चात् वर पक्ष के रिश्तेदारों को कन्या के पिता द्वारा भेंट दी जाती हैं। पण्डित एवं नाई को भी दक्षिणा दी जाती है। पण्डित द्वारा इसी अवसर पर लगुन पत्रिका का वाचन किया जाता है। इस अवसर पर महिलाओं द्वारा यह गीत गया जाता है।
सो इन नाउ बमना ने हीरा मोरे ठग लये, नगीना मोरे ठग लये।
पैला कातते हतिया जो दैवी सो अंकुश दै समझा दये राजा बनरे ।

सीदौ छूना
तिलक के पश्चात् किसी शुभ दिन सात सुहागिनें मिलकर संध्या के समय अनाज छूती हैं। बुन्देलखण्ड में इसे सीदौ छूना कहा जाता है । इस लोकाचार में सात सुहागिनें मूंड महावर (श्रृंगार) करके गोद भरवा कर अपने-अपने सूप में सात बार अनाज आपस पूजा के दिन मांयें बनती हैं तथा चना की बरी या फिर मण्डप दिन दाल बनाई जाती है । इसे घर-परिवार के लोग खाते हैं। इस लोकरीति को सम्पन्न करते समय देवी-देवताओं के स्तुतिपरक गीत गाये जाते हैं-
सो मांक रई लौंगन से अटरियाँ, सिजरियाँ मांक रई लौंगन से ।
सबरे देवता आये सवा में सो, महामाई काय नई आई अटरियाँ ।
सबरे देवता आये सवा में, हरदौल बाबा काय नई आये अटरियाँ ।

छेईमाटी
छेई माटी की विधि सम्पन्न कराने हेतु गाँव – पुरा की एवं रिश्तेदार स्त्रियों को बुलउआ देकर बुलाया जाता है। सभी महिलाएँ मिलकर खेत या गेंवड़े में जाकर खदान से मिट्टी लाती हैं । मिट्टी लेने से पूर्व उस स्थान को हल्दी-चावल से टींकती हैं फिर घी-गुड़ लगाकर पूजती हैं। कुदारी एवं सात छोटी टोकनी भी हल्दी या गेरु से टींकी जाती हैं।

वर अथवा वधू की बुआ द्वारा मिट्टी खोदी जाती है तथा सात डलियों में रखी जाती है। इसी मिट्टी से पाँच चूल्हे, दो परथनी, हवनकुण्डी आदि बनाई जाती हैं। मण्डप के दिन इसी चूल्हे पर मांयें बनती हैं। हवन कुण्डी भांवरों के समय हवन हेतु उपयोग में लायी जाती है। परथनी कलश रखने हेतु प्रयुक्त होती है । छेईमाटी के लिए जाते समय महिलाएँ यह गीत गाती हैं –
निहारो मोरी ओर न मोहन हमें नजर लग जैहै ।
एक तो चन्द बदन उजियारी दूजे अपने पति खाँ प्यारी ।
तनक नजर के लगतन लाला सुध बुध हिये न रहे।
मैं तो घरे जात डगरिया सिर पर घड़ा हाथ गगरिया ।
तुम्हरी जादू भरी नजरिया छिन भर में हो जैहो बवरिया ।

मण्डप
लगुन पत्रिका में निर्धारित शुभ तिथि के दिन आँगन के बीच में गड्ढा खोदकर एक पैसा एवं सुपारी रख दी जाती है फिर हरे बाँस, छेवले की लकड़ी तथा आम, जामुन की अधिक समय तक हरी रहने वाली पत्तियों से मण्डप सजाया जाता है । मण्डप के मध्य में बढ़ई द्वारा लाया गया खम्भ गाड़ा जाता है । खम्भ को हल्दी से रंगा जाता है। मण्डप का पूजन पंडित द्वारा करवाया जाता है। मण्डप गड़ जाने के बाद महिलाओं द्वारा सभी को हल्दी के हाथ लगाये जाते हैं। इस समय मण्डप गीत गाये जाते हैं

आज अंगन अति सुन्दर न जाने कउन गुना।
न जाने नउआ के लिपवे सै न जाने गोबर गुना ।
आज कलश अति सुन्दर न जाने कउन गुना।
न जाने कुम्हरा गढ़वे से न जाने मटिया गुना ।
आज खम्भ अति सुन्दर न जाने कउन गुना।
न जाने बढ़ई के गढ़वे से न जाने लकड़ी गुना।
आज लेडलरी अति सुन्दर न जाने कउन गुना ।
न जाने माइ के जन्में से न जाने कूँ ख गुना ।

तेल चढ़ना
मण्डप गड़ने के पश्चात् वर एवं कन्या को तेल चढ़ाया जाता है। इस समय कन्या के समस्त जेवर उतार दिये जाते हैं । केश खोल दिये जाते हैं । स्नान कार्य भी बन्द करा दिया जाता है। कहीं-कहीं सात कन्यायें तेल चढ़ाती हैं तो कहीं वर या कन्या की भाभियाँ या मामियाँ तेल चढ़ाती हैं । वर या कन्या को मण्डप में टा पर बैठाकर पहले गणेश जी को तेल चढ़ाया जाता है। 

तत्पश्चात् वर या कन्या को तेल चढ़ाते समय दोनों हाथों के अंगूठे तेल में डुबोकर वर या कन्या के चरणों, घुटनों एवं मस्तक को स्पर्श कराया जाता है। सात लोगों द्वारा तेल चढ़ाने की प्रक्रिया पूर्ण हो जाने पर तेल शरीर में मल दिया जाता है । इसके बाद हल्दी व उबटन लगाया जाता है। तेल चढ़ाते समय महिलाएँ गीत गाती हैं

कौना ने तेल चढ़ाव को राये बैहदुलिया ।
बहनी ने तेल चढ़ाव जीजा राये बैंहदुलिया ।
चढ़गव तेल फुलेल छुटक रहीं पाँखुरियाँ ।
को ल्याव तेल फुलेल को ल्याव पाँखुरियाँ ।
तेलन ल्याई तेल फुलेल मालिन ल्याई पाँखुरियाँ ।
भावी ने तेल चढ़ाव वीरन राये बैहदुलिया ।

मायनों (मातृका पूजन )
गोद भरवाकर ताल या कुआँ के किनारे या फिर किसी खेत से मिट्टी खोदकर लाती हैं। मिट्टी लेने जाते समय वादक आगे- आगे नगड़िया बजाता हुआ चलता है। महिलाओं में से किसी बुजुर्ग महिला द्वारा नगड़िया का पूजन किया जाता है। नगड़िया के पीछे- पीछे सूप में पूजन सामग्री लिये नाइन चलती है। एक फावड़ा व टोकरी साथ में ले जाई जाती है । जिस स्थान से मिट्टी ली जाती है, उसे सुहागिन द्वारा पूजा जाता है ।

बाद में फावड़े से खोदकर पाँच बार मिट्टी निकाली जाती है । यह पवित्र मिट्टी कलश के नीचे रखी जाती है। इस दिन कुल देवता की भी पूजा होती है। परिवारों में मिट्टी के पाँच या सात घड़ों में पुरुषों द्वारा पानी (किसी भी कुआँ से) लाया जाता है, जिसे मण्डप के नीचे रखा जाता है। परिजनों द्वारा मांयें बनाई जाती हैं तथा पूजनोपरांत परिवार में सभी को बांटी जाती हैं ।

इसी दिन वर या कन्या के हाथ में एक धागे में राई – नमक मिलाकर चोकर की छोटी-सी पोटली बांध दी जाती हैं। तत्पश्चात् कनहर भी लिया जाता हैं, जिसमें वर या कन्या की माँ एवं मामा-मामी पूरे दिन व्रत रखते हैं । फिर मण्डप के नीचे वर या कन्या के हाथ में धनराशि रखते हैं । तदुपरांत माँ एवं कन्या अथवा वर की लट पकड़कर नाइन द्वारा उस पर लोटे से जल डाला जाता है, जिसे मामा-मामी द्वारा पिया जाता है।

इस विधि को करते समय चार सुहागिनें या फिर कन्यायें नई साड़ी की चार परतें कर उसे सिर के ऊपर से ढँक लेती हैं तथा सात बार सूत या धागा एक से दूसरे को देते हुये घुमाती हैं। इसी धागे में कंकन बाँधा जाता है। कंकन लोहार के यहाँ से आता है, जो लोहे का होता है उसमें सात घूंचूँ लटकती रहती हैं। मातृका पूजन समय कोहबर बनाया जाता है, जिसे मायन वाला कक्ष कहते हैं ।

यहाँ दीवाल पर मैर देवता लिखे जाते हैं । कन्या पक्ष के यहाँ एक मटके में मांयें एवं लपसी आदि भरकर रख दी जाती है । इसी कक्ष में लहकौरि की रीति सम्पन्न होती है। जिसमें वर-वधू एक-दूसरे के मुँह में कौर खिलाते हैं। इस अवसर पर साली सरहजें हँसी-मजाक करती हैं। मायन वाले दिन ही विवाह निर्विघ्न सम्पन्न हो इस हेतु देवी- देवताओं, कुलदेवी-देवताओं एवं लोक देवी – देवताओं को घी- गुड़ का होम देकर निमन्त्रित किया जाता है । इस अवसर पर जो गीत गाया जाता है, वह इस प्रकार है –

सरग नसेनी पाट की यारो जे चढ़ नेवतो देंय।
मोरे नेवते गनेश देव तुम मोरे आइयो ।
मायनों के दिन समस्त सुहागिन स्त्रियाँ टीका महावर करके
तुम मोरे नेवते महादेव पारवती तुम मोरे आइयो ।
तुम मोरे नेवते पवन सुत तुम मोरे आइयो ।

बुन्देलखण्ड में लोकदेवता के रूप में पूजित लाला हरदौल को प्रत्येक घर में विवाह के अवसर पर आमन्त्रित किया जाता है। बुन्देली विवाह गीतों में हरदौल से सम्बन्धित गीत अत्यंत भावपूर्ण है। एक गीत प्रस्तुत है जिसमें बुन्देली नारी आदरपूर्वक उन्हें निमन्त्रण दे रही है तथा विघ्न रहित कार्य सम्पादन का निवेदन कर रही है

चीकट
हरदौल लाला मोरी कही मान लियो हो हरदौल लाला ।
 कहूँ भूला परे कहूँ चूका परै तो सँभाल लियौ हो हरदौल लाला ।
Bundelkhand Ke Vaivah में चीकट की परम्परा विशेष महत्त्वपूर्ण हैं । इस परम्परा के निर्वहन को पुण्य कार्य माना जाता है । विवाह के पूर्व बहिन बड़े सम्मान के साथ (वर या कन्या के मामा) अपने भाई को आमंत्रण देने जाती है। मण्डप या फिर मातृका पूजन के दिन मामा चीकट लेकर आता है।

चीकट में मामा यथाशक्ति खाद्यान्न सामग्री व वस्त्राभूषण आदि लाता है। भाई द्वारा लाई गई चीकट बहिन द्वारा उतारी जाती है। इस रीति को सम्पन्न करते समय नाइन सूप में कलश, घी, गुड़, हल्दी, अक्षत एवं बताशा आदि रखकर खड़ी हो जाती है। बहिन भाई का टीका कर मुँह मीठा कराती है तथा गले या कंधे लगकर भेंटती है। भाई बहिन के चरण स्पर्श कर न्योछावर करता है। कहीं-कहीं, भाई को दूध- चावल खिलाया जाता है । इस अवसर पर महिलाएँ चीकट गीत गाती हैं –

उठन हो मोरी साँवल गोरी तुम घर बींध उलावती ।
जा बींध रे साईं हमें न सुहावे हमारे वीरन परदेश में ।
तुम्हरे वीरन खौँ पतियाँ पठैहों गोरीधन वीर बुलाइहों।
चिठियन साईं वीरो नई आवें संदेशो भौजी कैसे आई हैं।

 विवाह सम्बन्धी लोकाचार कुछ तो वर एवं कन्या पक्ष में समान रूप से होते है, कुछ रीतियाँ पृथक-पृथक होती हैं। जैसे कन्या पक्ष के यहाँ सुहाग लेने की विधि सम्पन्न होती है तो वर पक्ष के यहाँ दूल्हा निकासी होती है। बारात जाने के बाद जुगिया (नकटौरा) एवं गौरइयाँ होती है।

सुहाग लेना
लगुन पत्रिका में द्वारचार हेतु निर्धारित तिथि के दिन माता एवं अन्य सुहागिनों के साथ कन्या गौरीमाता के मंदिर में जाती है तथा गौरी माँ का पूजन कर सौभाग्य कामना करती हुई माँ गौरी से सिन्दूर लेकर अपनी माँग में लगाती है। फिर धोबिन के घर जाकर सुहाग लेती है । धोबिन को कन्या द्वारा बेसन की निगरी अर्पित कर निमन्त्रित किया जाता है, धोबिन कन्या को अपना सिन्दूर देती है ।

इसी प्रकार बेसन की निगरी सात सुहागिन स्त्रियों को देकर कन्या द्वारा उन्हें निमन्त्रित किया जाता है । वे अपनी माँग का सिन्दूर कन्या की माँग में देती हैं। कन्या द्वारा निमन्त्रित की गई ये समस्त सुहागिनें दिन भर व्रत रखती हैं। रात्रि के समय जब बारात आ जाती है तो वर पक्ष के यहाँ से नाई गौरधार लेकर आता है। नाई को भोजन कराया जाता है। निमन्त्रित की गई सभी सुहागिनें मण्डप के नीचे भोजन हेतु बैठती हैं। साथ ही कन्या को आसन पर बिठाया जाता है।

सभी के समक्ष भोजन की पत्तल या थाल परोसे जाते हैं। कन्या के माता-पिता गाँठ जोड़कर लोटे से घी की धार पत्तलों या थाल पर चुआते हुए चलते हैं । उनके द्वारा सुहागिनों को घी – गुड़ परसा जाता है। माता-पिता कन्या के चरण स्पर्श करते हैं । सुहागिनें घी-गुड़ चखती हैं एवं कन्या को अपनी माँग से सुहाग देती हैं। इस सुहाग लेने की विधि में धोबिन का विशेष महत्त्व होता है । उसके लिए वर पक्ष की ओर से उपहार भी आता है । सुहाग की लोकरीति अत्यन्त सुहावनी होती है । बुन्देलखण्ड में इसे गौरइयाँ भी कहा जाता है । इस समय यह गीत गाया जाता है-

सुहाग प्यारी गौरा बेटी को देना सुहाग
जैसे सुहाग रानी लक्ष्मी को दीना वर पाये विष्णु भगवान ।
सुहाग प्यारी गौर…..
जैसे सुहाग तुमने सीता को दीना वर पाये श्रीराम ।
सुहाग प्यारी गौरा.
जैसे सुहाग तुमने रुक्मणी को दीना वर पाये कृष्ण भगवान ।
सुहाग प्यारी गौरा…

दूल्हा निकासी
बुन्देलखण्ड में कन्या पक्ष के यहाँ बारात प्रस्थान करने के पूर्व दूल्हा निकासी होती है। वर को पीला जामा पहनाया जाता है। मौर लगाया जाता है एवं पैरों में महावर लगाया जाता है। माथे पर चन्दन की टिपकियाँ रखी जाती हैं, जिसे खौर काढ़ना कहते हैं। खौरे वर के जीजा या फूफा द्वारा काढ़ी जाती है। उन्हें खौर कढ़ाई नेग भी दिया जाता है। भाभी द्वारा आँखों में काजल लगाया जाता हैं, जिसे आँखे आंजना कहते हैं। भाभी को भी आँख अँजाई का नेग मिलता है।

जीजा एवं फूफा मिलकर वर को मौर या फिर पगड़ी धारण करवाते हैं। बुन्देलखण्ड में दूल्हा को तीन दिन का राजा कहा जाता है। अत: दूल्हा का श्रृंगार राजसी होता है । उसे परस धारण कराया जाता है। कमर में कटार बाँधी जाती है। घोड़ी पर सवार होकर देवी जी के मन्दिर ले जाया जाता है, फिर अनेक स्थानों पर घुमाया जाता है, जिसे राछ फिरना कहते हैं । व्यवहारी एवं रिश्तेदार टीका करते हैं। बहिन द्वारा राई – नौन उतारा जाता है। नाइन सूप में पूजन सामग्री लेकर चलती है। महिलाओं द्वारा समूह में चलते हुये गीत गाया जाता है –

बनरा वेग करो तैयारी तुमखां सजन बुलाबे जू।
आजी चलो हमारे साथ अकेले हम न जैबी जू ।
बनरे आजुल ले लो साथ महलियाँ हमईं रखावी जू ।

 राछ फिरने के बाद दूल्हा घर आता है । तदुपरान्त बात जाने की तैयारी होने लगती है। दूल्हा निकासी की विधि सम्पन्न करने हेतु महिलाएँ दरवाजे पर एकत्रित हो जाती हैं । द्वार पर चौक पूरा जाता है। चौक पूरकर मिट्टी के कच्चे बड़े दीये (मलिया) रखे जाते हैं, जिसमें हल्दी – चावल भरे जाते हैं। दूल्हा सज-संवरकर चौक में खड़ा होता है।

चार महिलाएँ दूल्हा के ऊपर चादर तान कर खड़ी होती हैं। दूल्हा के सामने माँ और पीठ के पीछे नाइन खड़ी होती है। माँ द्वारा दूल्हा का टीका कर मुँह मीठा कराया जाता है । मूसल और बट्टा उतारा जाता है तथा आरती की जाती है। सात बार सात रोटियाँ भी फेंकी जाती हैं । राई – नौन से दूल्हे की नजर उतारी जाती है।

तत्पश्चात् दूल्हा चौक में रखी हुई कच्ची मलियाँ या दीपक को पैर से फोड़ता हुआ घर से निकल जाता है। इसी समय माँ द्वारा दूल्हे को स्तनपान कराया जाता है। दूल्हा घर से निकलकर कुएँ पर जाता है जहाँ कुआँ पूजन होता है । वर की माँ कुएँ में पैर लटका कर बैठ जाती है, तब वह माँ को आजन्म आज्ञाकारी रहने का वचन देता है । उनकी सेवा सुश्रुषा हेतु बहू लाने का आश्वासन देकर माँ का पैर कुएँ से बाहर निकालता है।

द्वारचार
इस प्रकार बारात कन्या पक्ष के घर जाने के लिए प्रस्थान है। बारात विदाई के समय महिलाएँ यह गीत गाती हैं—

इन गलियन हो कै ल्याइयौ री रघुनाथ बना खौं।
सिर पै सैरा, बाँधों राजा बनरे, कलगी पै लाल लगाइयौ री रघुनाथ बना खौं।
चन्द्रन खौरे काढ़ौ राजा बनरे, टिपकी पै लाल लगाइयौ री रघुनाथ बना खों।
नैनन सुरमा आँजो राजा बनरे, सींकन लाल लगाइयौ री रघुनाथ बना खों।

Bundelkhand Ke Vaivah में विवाह के दिन संध्या समय तक बारात कन्या के घर पहुँच जाती है। बारात का स्वागत करने के पश्चात् जनवासे में ठहरा दिया जाता है । संध्या के समय शुभ घड़ी में द्वारचार की विधि सम्पन्न होती है । बारात कन्या के दरवाजे पर आती हैं।

वर की पूजा की जाती है और कन्या का पिता निर्धारित धनराशि, बर्तन, वस्त्राभूषण आदि भेंट करता है । इसी अवसर पर दुर्गा जनेऊ होता है। द्वारचार की विधि सम्पन्न हो जाने के पश्चात् दूल्हा मण्डप के पास जाकर बाँस का पंखा रखता है। कन्या द्वारा ओट में रहते हुए दूल्हे को पीले चावल मारे जाते हैं । 

चढ़ाव
कोट नवै परवत नवै सिर नवै नवाये; माथो जनक जू कौ तब नवै जब साजन लाये।बुन्देलखण्ड में द्वारचार के पश्चात् चढ़ाव चढ़ता है । नाइन द्वारा कन्या का उबटन कर स्नान कराया जाता है तथा श्रृंगार कर उसे अजुली में सिंधोरी लिए मण्डप में लाया जाता है। मण्डप के नीचे चौक पूरा जाता है। गणेश जी की मूर्ति स्थापित की जाती है।

पण्डित द्वारा कन्या से गौर – गणेश की पूजा कराई जाती है। तत्पश्चात् ससुराल पक्ष से आये वस्त्राभूषण गौर – गणेश को स्पर्श कराते हुए कन्या को दिये जाते है, अर्थात् छिलाते हैं । ससुराल से लाई गई लाल चुनरी ससुर द्वारा उड़ायी जाती है एवं सूखा मेवा, नारियल आदि से गोद भरी जाती है । गोद भरने की विधि ससुर एवं जेठ दोनों द्वारा की जाती है । इसी अवसर पर कन्या की बहिन द्वारा मांग भरी जाती है। बदले में उसे वरपक्ष द्वारा लाई गई भेंट दी जाती है । इस अवसर पर महिलाओं द्वारा गीत गाये जाते हैं। एक गीत प्रस्तुत है –

तुम आई चढ़ाय के चौक बेटी राजन की।
समार समार पग धारियो बेटी राजन की।
माथे की बैदी समारियो बेटी राजन की।
कहूँ झूमर उलझ न जाये बेटी राजन की।

पाणिग्रहण एवं भाँवर
वैवाहिक लोकाचारों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पाणिग्रहण एवं भाँवर की विधि होती है। कन्या का पिता मण्डप के नीचे विराजमान समस्त बारातियों की उपस्थिति में कन्या का हाथ वर को सौंपता है, जिसे कन्यादान कहा जाता है । वर द्वारा जब वधू का हाथ थामा जाता है तो भावी जीवन के समस्त सुख – दुःख में साथ देने का आश्वासन दिया जाता है । हाथ थामने का अर्थ है- मित्रता, निर्वाह एवं संरक्षण आदि।

अर्थात् जो दायित्व अभी तक माता-पिता का था, वह वर को स्थानान्तरित कर दिया जाता है । विवाह के पश्चात् पत्नी के सुख-सौभाग्य की रक्षा का दायित्व पति का होता है । वर, वधू का हाथ थाम कर कहता है-
येनाग्निरस्या भूम्या हस्तं जग्राहदक्षिणम् ।
तेन ग्रहणामि ते हस्तं मा व्यथिष्ठा मया सह प्रजया च धनेन च ।

अर्थात् जिस तरह अग्नि ने इस धरती का हाथ थाम रखा है उसी तरह मैं भी तेरा हाथ थामे रखूँ । जिससे तू कभी भी व्यथित न हो, मेरे साथ धन व सन्तति का उपभोग कर ।

कन्यादान करते समय पिता द्वारा आटे की पिण्डी (लोई) कन्या के हाथ में रखी जाती है। नीचे वर का हाथ लगाया जाता है। लोई के अन्दर यथाशक्ति स्वर्ण, चाँदी, ताँबा आदि का सिक्का रखा जाता है, जिसे गुप्तदान कहते हैं । पिता द्वारा कन्या के हाथ पीले (हल्दी लगाकर ) किये जाते हैं और माता द्वारा जल डाला जाता है। कन्यादान के समय गोदान भी किया जाता है। इस विधि के सम्पन्न होते ही कन्या पराई हो जाती है। तत्पश्चात् पाँव पखरई (पैर पूजन) की रस्म प्रारम्भ होती है ।

सभी परिजन, रिश्तेदार एवं व्यवहारी वर-वधू के पैर पूजकर उपहार देते हैं। पैर पूजन पश्चात् सप्तपदी होती है, इसे भाँवर कहा जाता है। मण्डप के नीचे पण्डित दोनों की ( वर-वधू ) गाँठ जोड़ देता है। चार भाँवर में वर आगे रहता है वधू पीछे एवं तीन भाँवर में वधू आगे वर पीछे रहता है। इसी समय पण्डित द्वारा सप्तपदी का वाचन किया जाता है । सप्तपदी के वाचन में सात वचन वर की ओर से सात वचन वधू की ओर से रखे जाते हैं । सप्तपदी के इन वचनों के माध्यम से वे एक दूसरे के प्रति प्रतिज्ञाबद्ध होते हैं ।

सप्तपदी के मध्य ही धान बुवाई का नेग होता है । वधू का भाई सूप में लावा लेकर वधू के हाथों में डालता है, जिसे वर द्वारा के हाथ के नीचे हाथ लगाकर गिराया जाता है । वर पक्ष की ओर से भाई के लिए उपहार आता है। भाभी द्वारा बिछिया दबाने की रीति भी इसी समय सम्पन्न होती है । हिन्दू विवाह पद्धति में वर-वधू को मण्डप के बाहर ले जाकर ध्रुव तारा दिखलाया जाता है

भाँवरों के पश्चात् वर-वधू को कोहबर (मैर का कक्ष) में ले जाया जाता है। यहाँ हास-परिहास के वातावरण में लहकौर की रस्म होती है।  जिसमें वर-वधू एक दूसरे को खिलाते हैं। इसे दूदा भाती भी कहा जाता है, क्योंकि इसमें दूध-चावल के सात कौर वधू, वर को और पाँच कौर वर-वधू को खिलाता है। इसके पश्चात् बाती मिलाई होती है । एक दीपक में जलती हुई दो बत्तियों को वर के द्वारा सोने या चाँदी की सलाई से मिलाकर एक किया जाता है। यह दो आत्माओं अथवा शक्तियों के एकत्व का द्योतक है।

इसके बाद जूता पूजाई अर्थात् स्त्रियों द्वारा जूता एक मटके या कपड़े में छिपाकर रख दिये जाते हैं और उन्हें देवता बताकर वर से पैर छुलवाये जाते हैं। जिन लोगों को इस परिहास का पूर्व ज्ञान करा दिया जाता है, वे पैर नहीं छूते हैं । जिन्हें ज्ञान नहीं होता वे छू लेते हैं तथा साली-सरहजों के परिहास का माध्यम बन जाते हैं । इसी अवसर पर वर-वधू से कुलदेवता की पूजा भी कराई जाती है ।

वर को प्रसाद रूप में मांयें दी जाती हैं। कोहबर की इस लोकरीति के सम्पन्न होने के पश्चात् वर जनवासे चला जाता है । कहीं-कहीं लाकौर की विधि जनवासे में भी होती है । जिसमें महिलाएँ वर के लिए भोजन सामग्री लेकर जनवासे जाती हैं । जहाँ हास-परिहास के साथ रंग-गुलाल भी खेला जाता है । इस लोकाचार के अवसर पर जो गीत गाया जाता है….।

राम लखन व्याहन खों आये सीता जनक दुलारी वे हां हां वे हूं हूं वे ।
हाथी घोड़ा ऊँट पालकी रथ बग्घी असवारी वे हां हां वे हूं हूं वे ।
डेरा जनवासे में दे दये राजे अवध बिहारी वे हां हां वे हूं
फर्श गलीचा बिछे अनेकन धूम मची है भारी वे हां हां वे हूं

 बाती  मिलाई
सखी री भाँवर पर गई बाती मिलन खाँ भीतर गई लिवाय ।
सखी री सोहे जोड़ी चारो भइयन की शोभा बरन न जाय ।
सखी री लक्ष्मी निधि की नारी आई कंचन दीप जलाय ।
सखी री कि बाती तुम्हें ताती लागत है कि तुम रहे ‘डराय ।
नेग में लाला घोड़ा लइलेओ हाथी लइलेओ माता खां देव पठाय

कुँवर कलेवा
विवाह के दूसरे दिन विदाई के पूर्व कलेवा होता है। इस लोकाचार में वर के भाई एवं साथी साथ में बैठते हैं। सभी के समक्ष विभिन्न प्रकार के मिष्ठान परोसे जाते हैं । वर को उसकी इच्छानुसार नेग मिलता । सभी महिलाएँ वर एवं उसके साथियों का तिलक कर भेंट देती हैं । इसके उपरान्त वर द्वारा मण्डप का बंध खोला जाता है तथा खप्पर लौटाया जाता है।

इस हेतु वर को नेग दिया जाता है। सास उसके सिर पर अपना आंचल रखती है । इसी समय कन्या का पिता वर पक्ष के बुजुर्ग व्यक्ति या समधी को बेला (काँसे का पात्र) सौंपते हैं। इसे दायजा या बेला सौंपना कहते हैं। दूल्हे की सालियाँ इसी अवसर पर दूल्हे के जूते चुरा लेती हैं और तब तक नहीं देतीं, जब तक उनको मनचाहा नेग नहीं मिल जाता है।
कलेवा के समय महिलाओं द्वारा गीत गया जाता है-

वन में दौरी गइया वा चरे बिजोरे, आये चारऊ भइया जे करन कलेवा।
जनक भूप अगनैया जे करन कलेवा, चंदन पलका डारो तुम राम बिराजो ।  
नैना सुफल करैया जे करन कलेवा, सुन्दर व्यंजन परसे सो धरे अगारे ।
जा को देवत ताले सो धरे अगारे, जै राम रघुरैया जे करन कलेवा।

बंध छोरन
छोरो-छोरो सलोने थराई में कहा हो बंध छुराई में ।
मांगत नेग जो राज दुलारे हम का दैवे लाक तुम्हारे ।
जब से रूप अनूप निहारे लोचन हो गये सफल हमारे।
करौ विनती निहोर रघुराई मैं कहा लैहो बंध छुराई में ।

विदाई
कन्या पक्ष के यहाँ कलेवा के पश्चात् अन्तिम वैवाहिक लोकाचार विदाई का होता है । वर-वधू को मण्डप के नीचे खड़ा करके घर परिवार की महिलाएँ निहारन करती हैं। हल्दी, अक्षत एवं रोली से वर-वधू का तिलक किया जाता है तथा भेंट दी जाती है। निहारन की रस्म पूर्ण होने पर वधू की माँ (समधिन) वर के पिता (समधी) को सूप सौंपती है।

यह सूप सौंपने की क्रिया में वर-वधू के आगे कन्या की माँ और पीछे वर का पिता खड़ा होता है। सूप वर-वधू के ऊपर से पकड़ाया जाता है । इस अवसर पर समधी-समधिन में परिहास भी होता है । सूप सौंपने की विधि सम्पन्न होते ही भाई-बहिन को उठाकर डोली में बिठा देता है । डोली उठते ही सभी की आँखें नम हो जाती हैं ।

डोली में बैठी बिसूरती बिटिया को गाँव के बाहर तक सभी छोड़ने जाते हैं, जहाँ नाइन द्वारा बिटिया का मुँह धोया जाता है। भाई द्वारा कुछ दूर चलने के पश्चात् डोली लौटाई जाती है । रुदन और क्रन्दन के मार्मिक क्षणों में दुःख एवं करुणा का संचार करने वाले गीत गाये जाते हैं। एक विदाई गीत प्रस्तुत है

राजा ससुर घर जाती हैं बेटी करके सोरह सिंगार मोरे लाल ।
दम दम दमके माथे की बिंदिया ऊसई गरे को हार मोरे लाल ।
अंगना में छोड़ी चुनती मुनइयाँ तुलसी घरा की ढ़ार मोरे लाल ।
छूटे वे अमुवा की डारी के झूला सूनी नदी की किनार मोरे लाल ।

 देवी-देवता पूजन
बारात वर-वधू सहित जब घर वापिस आती है तो सर्वप्रथम परिवार की बुजुर्ग महिला उनका पानी उतारती है। ऐसा माना जाता है कि पानी उतारने से नवविवाहित जोड़े के साथ रास्ते में यदि अनिष्टकारी आत्माएँ आ गई हों तो वे भाग जाती हैं। पानी उतारने के पश्चात् बहिन द्वारा शरबत पिलाया जाता है या दूध-भात खिलाया जाता है, जिसका उसे नेग मिलता है। शुभ घड़ी में बहू का गृह प्रवेश होता है।

ननद द्वारा मार्ग रोका जाता है, भाई-भाभी से नेग मिलने पर उन्हें अन्दर प्रवेश दिया जाता है। तदुपरान्त मैर के घर में कुलदेवता की पूजा होती है । मैर के ही कक्ष में खिचड़ी की रस्म होती है । बहू द्वारा मापक पात्र (पैला) में भरकर खिचड़ी रखी जाती है। वर द्वारा पैर मार कर उसे बिखरा दिया जाता है। ऐसा सात बार किया जाता है। यही खिचड़ी वधू द्वारा अंजुली में भरकर पाँच या सात बार घर-परिवार की महिलाओं की गोद में डाली जाती है । इसके पश्चात् नव वधू की गोद में कपड़े से भलीभाँति बंधा हुआ लोढ़ा वर द्वारा रखा जाता है, जिसमें बहू के पुत्रवती होने की भावना अंतर्निहित होती है।

इसके पश्चात् शुभ तिथि पर वर-वधू को देवी – देवता पूजने हेतु ले जाया जाता है । वर-वधू से देव पूजन करवाकर ध्वजा, नारियल, पान, बताशा चढ़वाया जाता है। तथा मन्दिर के दरवाजे पर हाथा लगवाये जाते हैं। तत्पश्चात् कुल या खानदान के सभी घरों में वर-वधू को हाथा लगवाने हेतु ले जाया जाता है । तदुपरांत निहारन या मौचाइनों की रीति सम्पन्न होती है। कन्या के मायके से आये हुए सुसज्जित सूप एवं गुना (बेसन का गुठा हुआ पकवान ) से वधू का मुख निहारा जाता है? और मुँह दिखाई में उपहार स्वरूप आभूषण आदि दिये जाते हैं। इस समय यह गीत गाया जाता है –
सोने का सूप सरैया तोरी सासु निहारे रे,
अब का निहारो मोरी सासु बहू जग उजियारी रे।

 कंकन छुराई
वर-वधू द्वारा कंकन छोरने का लोकाचार अत्यन्त मनोरंजक होता है। प्रथम तो हास-परिहास के वातावरण में कंकन छुड़वाया जाता है। कंकन की उलझी हुई गाँठे खोलना अत्यन्त कठिन होता है। इन्हें खोलने में वर-वधू का युक्तिचातुर्य परखने का प्रयास किया जाता है। कंकन खुल जाने पर दूध मिश्रित जल या फिर हल्दी मिश्रित जल के थाल में कंकन और अंगूठी डाल दी जाती है। उसे वर-वधू दोनों मिलकर ढूँढते हैं, जिसे वह प्राप्त हो जाता है, उसकी जीत होती है। कंकन छोड़ते समय महिलाएँ यह गीत गाती हैं-

जौ नै होय धनुष को टोरबो, कठिन कंकन गांठ छोरबो ।
तुमने जनकपुरी पग धारे शिव के धनुष टोरकै डारे ।
जौ नै होय मारीच को मारबो कठिन, कंकन गांठ छोरबो ।
हम हैं जनकपुरी की नारी आखिर सारी लगें तुम्हारी ।
जिनको बिन हथयारन मारबो कठिन कंकन गाठ छोरबो ।
वे तो जनकपुरी की नारी हँसी करें तुम्हारी ।
अब तो सीखो सिया खों कर जोरबो कठिन कंकन…….

 इस प्रकार वर पक्ष एवं कन्या पक्ष के यहाँ समग्र वैवाहिक लोकाचार सम्पन्न होने के पश्चात् दसवें दिन दशवाननी होती है, जिसमें मैर मांयें बनकर मैर की पूजा, सत्यनारायण कथा, सुहागिले से भोजन बनवाने आदि के पश्चात् खम्भ निकालकर एवं बहू मण्डप का विसर्जन किया जाता है।

विवाह के ही वर्ष भादौ मास की शुक्ल पक्ष की छठवीं एवं सातवीं तिथि को मैराई छठ मनाई जाती है, जिसमें छठवीं को वधू का तथा सातवीं तिथि को वर का मौर नदी या जलाशय में विसर्जित किया जाता है। वर-वधू के भावी दाम्पत्य जीवन की सुख-समृद्धि की कामना के साथ वैवाहिक लोकाचार की अन्तिम विधि सम्पन्न होती है ।

बुन्देलखण्ड के लोक देवता 

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Bundeli Jhalak: The Cultural Archive of Bundelkhand. Bundeli Jhalak Tries to Preserve and Promote the Folk Art and Culture of Bundelkhand and to reach out to all the masses so that the basic, Cultural and Aesthetic values and concepts related to Art and Culture can be kept alive in the public mind.

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