इनके चबूतरे प्राय: गाँव की सीमा पर हुआ करते हैं। सीमा को गेंउड़ौ भी कहते हैं, इसलिए इस देवी को गेंउड़े की देवी भी कहा जाता है । Khere Ki Bhuvani की चबूतरे पर छोटी सी मड़िया में लाल-काले रंग की मूर्ति होती है । गाँव में महामारी या अन्य विपत्ति पर इनकी विशेष पूजा का आयोजन किया जाता है। एक बकरी का बच्चा अथवा मुर्गी, लाल का कपड़ा, गोटी, चूड़ी, कचारा, महावर, दीपक और दारू से यह पूजा होती है ।
यह पूजा रात में होती है । पण्डा के पूजा कराते समय गाँव का गुनिया भी होता है । एक गुनिया वह होता है, जिसे खैरे माता का भाव आता है । भाव आने पर वह अपना सिर विचित्र रूप से हिलाता है, उछलकूद करता है। भाव आने पर पण्डा भूमि पर दारू और कहीं-कहीं रक्त डाल देता है, जिसे घुल्ला चाट जाता है।
मढ़ई देवी या हुलकी देवी
यह हैजा महामारी की देवी मानी जाती हैं । इनका वास जनविहीन मैदान में माना जाता है। इनके बारे में लोक में एक उक्ति है-
घरर-घरर नदिया बहै, मरई अन्हावन जाय।
पटिया पारै रंग भरी सिंदूर भर लई माँग ।
हैजा या महामारी को गाँव वाले हुलकी पड़ना भी कहते हैं । इसलिए इनका एक नाम हुलकी भी है । हुल्की देवी का सम्बन्ध हरदौल की भौजी, जो ओरछे के राजा जुझारसिंह की पत्नी थी, उनसे जोड़ा जाता है । जुझारसिंह का अपनी पत्नी से हरदौल को विष दिलवाये जाने का प्रसंग बुन्देलखण्ड में सर्वविदित है।
किंवदन्ती है कि अपनी भानजी के विवाह में बारातियों को हरदौल ने अदृश्य होकर भोजन परोसा था, तब दूल्हे के हठ करने पर हरदौल ने प्रकट होकर सबको दर्शन दिये थे । उस समय वहाँ उनकी भाभी नहीं थी। हरदौल के दर्शन देने की खबर मिलने पर वे भी हरदौल के दर्शन के लिए तड़पने लगीं, तब एक रात हरदौल ने उन्हें दर्शन दिये। झरोखे में खड़ी भाभी ने जब हरदौल को देखा तो वे उनसे मिलने के लिए बेचैन हो हरदौल लला कहकर झरोखे कूद पड़ीं और उनकी तत्काल ही मृत्यु हो गई।
पर उनके रोने की हिलकियाँ गाँव-गाँव में सुनाई पड़ने लगीं, जिससे भयभीत होकर गाँव के गाँव उजड़ने लगे, तब इनको शान्त करने के लिए इनकी पूजा-अर्चना की गई । हिलकी से ही इनका नाम हुल्की पड़ा और चूँकि हैजा, प्लेग आदि महामारी में गाँव के गाँव नष्ट हो जाते हैं, इसलिए इनको महामारी फैलाने वाली देवी माना जाता है और शायद इसीलिए हैजा या महामारी को गाँव वाले हुलकी पड़ना भी कहते हैं। इस पूजा में समुदाय विशेष के लोग गाँव में दारू छिड़कते हैं और सुअर के बच्चे की बलि देकर एक मुर्गी के बच्चे को गाँव के बाहर छोड़ आते हैं। उनका विश्वास है कि बीमारी को मुर्गी अपने साथ ले जाती है।
इसी प्रकार सावन-भादो के महीने में गाज ‘विजली’ से रक्षा के लिए ‘गाज परमेश्वरी’ की पूजा की जाती है। अच्छी वर्षा की कामना से ‘मेघासिन मईया’ की पूजा की जाती है । सर्पों जैसे विषैले जन्तुओं से रक्षा हेतु ‘नाग माता’, ‘अहोई माता’ की पूजा होती है। विभिन्न कामनाओं के उद्देश्य से बुन्देलखण्ड में अलग- अलग तिथियों में ‘चौथ मैया, छट मैया, परमेश्वरी, आसमाई की पूजा’ होती है । मनौती के पूरे होने पर कुछ जातियों में ‘आसमानी देवी’ की पूजा होती है, जिसमें देवी बकरे की बलि दी जाती है ।
विवाह पर और मन्नत पूरी होने पर ‘सुहागिले’ करने की प्रथा है। इसमें सुहागवती स्त्रियों को आमंत्रित किया जाता है और भोजन कराकर माहुर लगा सामर्थ्यानुसार सुहाग के चिह्न चूड़ी, बिछिया आदि देते हैं। यहाँ बीजासेन, कालिका, औसान बीबी या हुर्रेयाँ, संकटा देवी, आसोमाई, तुरत देवी, कसालो देवी आदि अनेक देवियों के साथ गणेश की सुहागिले, रसगुल्ला की सुहागिलें आदि भी प्रचलित हैं। जिस देवी की पूजा में जो भोज्य सामग्री लगती है, वही प्रसाद स्वरूप सुहागिलों को दी जाती है । जैसे कालिका की सुहागिनों में पूड़ी – हलुवा लगता है, कसालो देवी की पूजा में कसार (आटे के लड्डू) लगते हैं।
बुन्देली लोक में ‘सती माता’ की पूजा भी प्रचलित है । यहाँ गाँव-गाँव में सती के चौरे हैं । त्याग बलिदान के कारण महान नारियों ने भी देवीवर्ग में स्थान पा लिया है। इनमें बुन्देलखण्ड में रत्नगढ़ के राजा की पुत्री रतनकुँवर अत्यन्त प्रसिद्ध हैं, इन्हें रत्नगढ़ की माता के रूप में पूजा जाता है । रत्नगढ़ में इनका मन्दिर बना है। वर्ष में दो बार होली और दिवाली पर आने वाली भैयादूज पर यहाँ विशाल मेला लगता है ।
मन्दिर के पिछले भाग में रत्नकुँवर के सात भाईयों की समाधि है, जो कुँवर साहब के चबूतरे के नाम से प्रसिद्ध है । आसपास दूर-दूर तक के गाँवों में इन कुँवर साहब के नाम पर सर्पदंश का बंध लगाया जाता है, जो इसी भैयादोज के मेले में खोला जाता है । उसकी कमर में काला धागा बाँध दिया जाता है।
भुवानी, चुड़ैल, डायनों की पूजा भी देवी की तरह होती है। ऐसा माना जाता है कि जो कन्या या स्त्री अकाल मृत्यु से जलकर या पानी में डूबकर मर जाती है, इनमें से वही चुड़ैल, डायन, भुवानी बन जाती हैं। जिस स्थान पर इनकी मृत्यु होती है, उनका निवास वहीं बन जाता है । उस स्थान पर दोपहर, रात्रि में किसी को अकेले पाकर ये उसको पकड़ लेती हैं और उसे समय-समय पर विविध प्रकार से प्रताड़ित करती रहती हैं।
ये अधिकतर कन्याओं और महिलाओं को ही लगती है। जिनको चुड़ैल भुवानी लगती हैं, उनको अपने बारे में कोई ज्ञान नहीं रहता – वे कौन हैं, क्या कर रही हैं। इनके इलाज में दवा काम नहीं करती । सेवकिया भगत, जिसे ओझा कहते हैं, उसके द्वारा झाड़-फूँक करने पर उसके प्रयासों से ही मुक्ति मिल पाती है।