Karasdev Ko sako कारसदेव कौ साकौ

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बुन्देलखण्ड की एक लोक-गाथा परम्परा है। Karasdev Ko sako मे कारसदेव की वीरता और गौ रक्षा के विषय में गुणगान के रूप में प्रस्तुत किया गया है। बुन्देलखण्ड के हर गाँव में कारसदेव की पूजा की जाती है। उन्हें गोपालक देव मानकर अहीर, गड़रिया और गूजर जाति के लोग उनकी पूजा किया करते हैं।

दूध, दही और शुद्ध घृत(घी)  चढ़ाकर उनकी पूजा की जाती है। कारसदेव सच्चे गौ रक्षक वीर थे। यही कारण  है कि उनकी मढ़िया के सामने घोड़ों के प्रतीक बने रहते हैं। कारसदेव उन घोड़ों पर चढ़कर गोहंता(गायों को मारने वाले) शत्रुओं से युद्ध करते थे।

बुन्देलखण्ड की लोक-गाथा कारसदेव कौ साकौ

बुन्देलखण्ड के लोक-देवता कारसदेव राजपूत कालीन हैहयवंशीय अजयपाल के आश्रित और समकालीन थे। इनका समय ग्यारहवीं-बारहवीं सदी के मध्य माना जाता है। उनके साथ ही हीरामन का उल्लेख है।  कारसदेव, हीरामन के साथ जंगल में गायें चराया करते थे। ऐसा कहा जाता है कि बुन्देलखण्ड के झाँझ ग्राम के एक गूजर परिवार में माता सरनी थीं। वे निःसंतान थीं।

माता सरनी ने संतान प्राप्ति के लिए बारह वर्ष तक निराहार रहकर भगवान शंकर की कठोर तपस्या की थी। शंकर जी की कृपा से उन्हें प्रातःकाल सरोवर में एक कमल के विशाल फूल पर लेटा हुआ सुंदर बालक दिखाई दिया। सरनी समझ गई कि भगवान शंकर की कृपा से यह सुंदर बालक मुझे ही प्राप्त हुआ है। यह सोचकर उसने उस बालक को पुचकारकर गोद में उठा लिया और मन ही मन कहने लगीं कि भगवान शंकर ने मेरी मनोकामना पूर्ण कर दी है।

यह सारी की सारी लोक गाथा बुंदेली के लोकप्रिय गोटों के रूप में प्रचलित है। ये गोटें बुंदेली की विचित्र लोक ध्वनि में ढंक / डौरू (डमरू) लोकवाद्य के साथ गाई जाती हैं। पहली ही गोट से माता सारनी और बहिन ऐलादी का परिचय प्राप्त होने लगता है।

बारा बरस तपिया तपी, करे न अन्न अहार।
सरनी गई असनान खौं, अहेले तला के पार।
कमल पै पोंढ़ों राजकुमार।
सौ सौ दल कमला खिले, भ्रमर रहे गुंजार।
एक कमल पै ऐसें लगैं,  जैसें  दियला  जले  हजार।
कमल पै पोंढ़ों राजकुमार।

माता सरनी अपनी तपस्या पूर्ण होने पर भगवान शंकर का वरदान मानकर शिशु को गोदी में उठाकर पुचकारने लगीं…।
उठा  सरनी  ओली  लये,  कारस  को  पुचकार।
जप-तप सब पूरन भये, मोरी शिव ने सुनी पुकार।
कमल पै पोंढ़ों राजकुमार।

पुत्र प्राप्त होते ही सरनी का घर प्रकाशित हो गया। मानो सरनी के घर का जन्म-जन्म का सारा अंधकार एक साथ ही दूर हो गया हो…।
सुरजा थके चंदा थके, मौं की जोत निहार।
जनम-जनम कौ सरनी घर कौ, मिट गओ सब अँधियार।
झूलना झूलें राजकुमार। कमल पै पोंढ़ों राजकुमार।

कारसदेव के हीरामन और सूरजपाल नाम के दो चचेरे भाई थे। वे भी वीर और साहसी पुरुष थे। उनके पास अपार गौनिधि थी। वे तीनों मिलकर गायें चराने जाते थे। एक गोट में कहा भी गया है…।
धौरी ठाँढ़ी कान उठाय, कारस नें दुदुआ पियों।
मन में भरैं उमाव, सुमर भवानी को चलैं।

कुछ गोटों में कारस की बहिन ऐलादी की तपस्या का भी वर्णन किया गया है…!
जनम से कारसदेव कनइया,पतों भेंद काउयें नइयाँ।
ऐंलादी ने बारह बर्ष सेवा कर लई,
भोला अड़बंगे नाथ की।
तारी खुली भोला अड़बंगेनाथ की, आज कौ माँगों पाव।
ऐंलादी ऐसे वीर माँग रई,
गइयंन के चरइया धौरी के रखइया।
सूरज पाल के भइया, जेठी बल पाय।

शंकर जी ने प्रसन्न होते हुए ऐलादी से कहा…।
गूजर की बिटिया तैनें, मौसें माँग लये अड़बंगे वरदान।
जा आजई कौ मांगौ पाय।
इतनें बचना सुन लये, भोले अड़बंगे नाथ के जा आजई कौ मांगौ पाय।
बिटिया घर-घर बुलौवा दै रई, माना सी झाँझ, ओ बाई बैन हों,
कातक अनालो सीते सीपार।

गाथा में कारसदेव के द्वारा गाय चरानेका वर्णन है। वे भगवान कृष्ण की भाँति मुरली लिए हुए जंगल में गायें चराया करते थे।
धौरी ठाँढ़ी कान उठाय, कारस नें दुदुआ  पियो।
मन में भरैं उमाव,सुमर भवानी को चलैं, मुरली में उचारैं नाव।
हीरामन मुरली बजाय।
मुरली के धुन में धौरी, कजरी गाय।।

एक बार गायों की रक्षा करते समय उन्हें भुवन सिंह (भुवना) से घोर संग्राम करना पड़ा था। भुवन सिंह गायों का चोर था। वह गायों को चुराकर व्यवसाय करता था। एक बार कारसदेव के साथ उसकी मुठभेड़ हो गई। कारसदेव महान वीर और शक्तिशाली योद्धा थे। उन्होंने भुमना का डटकर सामना किया और उसे परास्त करके खदेड़ दिया था। एक गोट में उस मुठभेड़ का वर्णन किया गया है…

बढ़ा दये बछेरा अपनें खिरक के, कारस पौंचे भुवन के दोर।
रूरूर-खुरूर बच्छा डारे, ठाँढे़ बदलों लै लियो बहोर।
सुन लै भुमना कान लगाय।
बिजुरिया ऐसों खांड़ो कांड़ो, जैसें जीभ काड़ै करिया नाग।
भुमना आग बबूला भयौ, आओ सामैं मार छलांग।
बोलो दैहों मजा चखाय।

कारस सुन भुमना की बात, मनैं  मन  रहो  मुस्काय।
कर लै दो-दो दावरे, बोलो खांड़ो उठाय।
अपनौ बदलों लेबैं चुकाय।
भुमना धरन गिरो रे ऐसें, जैसें गिरें टूट कैं  डार।
बारा बरस कौ कारस खेलैं, लै कैं नगन तलवार।
झाँझ के मिट गये दुक्ख अपार।

कारसदेव गौ रक्षा के साथ लोकरक्षा में भी करते  थे। इसी कारण से आज बुंदेलखंड के गाँव-गाँव में उनके चबूतरे और मढ़िया बनी हुई हैं। पशु पालक लोग उन्हें देवता की तरह पूजते हैं। भाद्रपद शुक्ल पक्ष चतुर्थी को उनकी विशेष पूजा की जाती है। रात भर ढांक / डौरू (डमरू) की ध्वनि के साथ विचित्र धुन में गोटें गाईं जाती हैं, जिनमें कारस के शौर्य और जनकल्याणकारी कार्यों का वर्णन होता है।

राजा गढुवाढार की बेटी जमदेव का सौन्दर्य वृत्त सुनकर कारस उसे प्राप्त करने के लिए लालायित हो गये। माता ने बहुत समझाया कि बेटा बाँगर जाने की बात छोड़ दो। अभी तुम बच्चे हो, वहाँ जाने योग्य नहीं हो। एक गोट में उस स्थिति का वर्णन किया गया है…।
इतनें बचना सरनी माता नें सुन लये, वीरन के धर्मन के द्वार।
वीरन बाँगर की रटना छोड़ दो।
वीरन तोरी छोटी उमर कइये लिलोर,  टूटे  नइयाँ  दूद  के  दाँत।
तोपैं ऐंड़न सें बछेरा दबेंना, तोपैं सदें ना दुधारों सेल।
बाँगर में बारा कोस कौ जंगल कइये,
सरगन  में  मड़राय  रये  कटंगी  बाँस  मोरे  वीरन।
पैलें पारे सिंहन के लगे, दूजे पारे नाथन के लगे।  है झाड़ी बीच मझार।
तीजे पारे कइये पाँचों कलइया के, लगे मैंढ़े मझार।
चैथे पारे लगे हथियंन के, राजा रहो है लगवाय।
राजा नें गेर गढ़िया खाई खुदवा दई।
उर गेर गढ़िया कोट दओ फिरवाय।

ज्यादा हठ करते हुए देखकर अंत में माताजी ने कारस को बाँगर जाने की आज्ञा दे ही दी। आज्ञा पाते ही कारस घोड़े पर सवार होकर चल दिए। एक गोट में कारस के उत्साह का वर्णन किया गया है…।
पाँच परिकम्मा बछेरा खौं दै दये,
उचट कैं हो गये बछेरा पै सवार।
तोरे बल भरोसे जा रये बछेरा,
बाँगर सी बैरी भूमि खौं बछेरा कारस वीरन खौं समझा रये,
कै ऐसें झुला दओ,
जैसें सरनी नें झुलाये पलना में झार।

गाथाकार ने कारस के शौर्य और स्फूर्ति का वर्णन करते हुए कहा है…।
कारसदेव नें बदल दयें बछेरा बैरी की भूमि लौं,
कछुअक बछेरा धरनी चले, कछुअक चले असमान।
पैले पारे पै सिंहा मारे कारसदेव ने,
दूसरे पारे पै नाथन के फोर डारे मौन बाजे।
तीसरे पारे पै सिंहा मारें कारसदेव नें,
कसइया की लगी है जीकी दुकान, मेडै़ पै दई ढड़काय।
चैथे पारे हथियंन के कारसदेव ने दये हुमसाय।
हथियंन के पारे हुमसा दये आड़ी बारी नाकी बछेरा नें।
उड़-उड़ कैं पौंच गये, जाँ पलका डरे बेटी जमदेव के।
उड़कें बछेंरा बदलत जा रये माना सी झाँझ।
इक वन चाले दूजे वनचाले, तीजे चाले माना सी झाँझ।

अवसर पाकर कारसदेव बेटी जमदेव का अपहरण  करके अपने ग्राम झाँझ ले गये। समाचार पाते ही राजा गढुवाढार बहुत क्रोधित हुआ और कारसदेव के मारने का उपाय सोचने लगा। किन्तु कारस के शौर्य और शक्ति को देखकर आश्चर्यचकित रह गये। उन्हें अवतारी मानकर, मन ही मन हार मानकर बेटी का समर्पण कर दिया। एक गोट में कहा गया है…।

राजा गढुवाढार ने सोदे लगा लये। अपनी बेटी जमदेव के।
राजा गढुवाढार बदलत आ रये, माना  सी झाँझ  लौ।
हात जोर विनती कर रये, चरन छू रये माफी मांग रये।
राजा समजा रये कारसदेव खौं, मैं रहों हौं मानुस भरोसें।
मैं नई जानत तो कोन माना सी झाँझ लौ।
औतारी नें लै लओ जनम।
इतनी दीनता देख लई राजन की धरमन के द्वार।
भिजवा दई राजन की बेटी, राजन के साथ।

इतना सब कुछ होने के बाद भी राजा ने बैर-भाव नहीं छोड़ा और मन ही मन कारस की मृत्यु का उपाय सोचने लगा। उसने एक ब्राह्मण के बालक को चुरेरे के रूप में ग्राम झाँझ भेजा। वह बालक झाँझ जाकर कारस की मृत्यु का उपाय खोजने लगा।
एक गोट में इस स्थिति का वर्णन किया गया है…

बामुन के वारे नें चुरियां खरीद लईं,
धर लओ चुरेरे कौ भेष।
चुरियंन के पसारे धर लयें मूँढ़ मझार।
बदलत जा रये माना सी झाँझ  में,  माना  सी झाँझ  में।
की खोरन में लम्मी दै रये अवाज, ओ बाई बैनें हरों।
चुरियां तो पैर लो बड़े भारी मोल की।
सरनी माता भीतर सें बाहर कड़ आई, समजा रई चुरेरे कों।
बैंन ऐलादी चुरेरें खौं समजा रई।
मोरे कारस खौं पेर में पदम, माथे पै चंद्रमा होय।
जिन के बछेरा उड़ आसमान खौं जाय।
जीकौ मरइयां नइयाँ कोनउं लोक में।
इतनें बचना चुरेरे नें सुन लये।

ये सारे समाचार सुनकर चुरेरे के लड़के ने राजा को दे दिये। उनकी शक्ति और पौरुष के विषय में जानकर राजा संतुष्ट हो गये। बेटी के लिये सुयोग्य वर जानकर बहुत प्रसन्नता हुई।

संदर्भ-
बुंदेलखंड दर्शन- मोतीलाल त्रिपाठी ‘अशांत’
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेलखंड की संस्कृति और साहित्य- रामचरण हरण ‘मित्र’
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास- नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली संस्कृति और साहित्य- नर्मदा प्रसाद गुप्त
मार्गदर्शन-
श्री गुणसागर शर्मा ‘सत्यार्थी’
डॉ सुरेश द्विवेदी ‘पराग’

मर्दन सिंह को साको 

बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)

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