Lakhansingh Ko Rachhro लाखनसिंह कौ राछरौ

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Lakhansingh Ko Rachhro लाखनसिंह कौ राछरौ
Lakhansingh Ko Rachhro लाखनसिंह कौ राछरौ

कन्नौज के राजा लाखन सिंह के राज में दुश्मनों ने अचानक आक्रमण कर दिया ऐसी स्थिति में नव विवाहिता सुंदर पत्नी को छोड़कर युद्ध भूमि मे जाना पडा। Lakhansingh Ko Rachhro मे पति-पत्नी के साथ मार्मिक संवाद इस राछरे का मूल-विषय है।

लोक गाथा -लाखनसिंह कौ राछरौ 

वीरगाथा काल में कुछ ऐसे महावीर पुरुषों और देश-प्रेमियों के उदाहरण  सामने आये हैं, जिनकी दृष्टि में विषय-वासना और भोग-विलास की अपेक्षा देशप्रेम अधिक महत्त्वपूर्ण और मूल्यवान था। वे नवविवाहित पत्नि के प्रेम और आकर्षण  को त्याग कर रण भूमि में कूदकर प्राण अर्पण कर देते थे। लाखनसिंह, धनसिंह और हिन्दूपति नाम की लोक गाथाओं में इस प्रकार के अमर वीरों के उदाहरण  प्राप्त होते हैं।

कन्नौज के राजा जयचंद्र के राजकुमार लाखनसिंह का विवाह हुआ। वह अपनी नव-विवाहित पत्नी के साथ चंद दिवस भी व्यतीत नहीं कर पाया और बीच में अचानक शत्रुओं ने उनके राज्य पर आक्रमण कर दिया। ऐसी स्थिति में राजकुमार लाखनसिंह को युद्ध स्थल में मे जाना अति आवश्यक था। वे नव विवाहिता सुंदर पत्नी को छोड़कर युद्ध भूमि की ओर प्रस्थान करने लगे। उस समय उनकी पत्नी के साथ मार्मिक संवाद हुआ, जो इस राछरे का मूल-विषय है।

रानी – हे महाराज! आप भूखे युद्ध स्थल की ओर प्रस्थान नहीं कीजिये। भोजन की सारी सामग्री सुसज्जित रखी है। आप कुछ समय के लिए रूक जाइयेगा, मैं जेवनार तैयार कर रही हूँ। आप भोजन पाकर ही पधारियेगा-

चाँउर चकोटन मैंने धोकैं धरै,
घी में  मोकैं  कनक उर दार।
घरियक बिलमों मोरे बालमा,
तुमरी धनियां तपै  जेवनार।।
कितनी मधुर और मार्मिक पदावली है। शब्दावली की तरह उसकी भोज्य सामग्री में भी अधिक माधुर्य है।

लाखन सिंह – इस समय राजकुमार लाखनसिंह को भोजन करने के लिए अवकाश नहीं है। उनकी दृष्टि में राज्य की रक्षा सर्वोपरि है। वे अपनी महारानी को सलाह देते हैं।
चाँउर चिरइयँन खौं चुनवा दियो, बामनें दे दो कनक  घी  दार।
मोरौ पनवारौ  उर  ही  में  परो, परसा ठाँढ़ो चैंड़िया राय।।

चैड़िया राय नाम सुनकर ऐसा लगता है कि जयचंद्र के किले पर पृथ्वीराज चैहान की सेना ने आक्रमण  किया होगा। उन दिनों दिल्ली और कन्नौज में परस्पर विरोध चलता था।

रानी – महारानी का कुछ ही दिन पूर्व वैवाहिक संस्कार सम्पन्न हुआ था। उसके पाँवों का महावर और हाथों की मेहंदी अभी छूटी भी नहीं थी और उसका पति युद्ध मे जाने की तैयारी कर रहा है। वह अपने पति के सामने प्रणय निवेदन कर रही है।
पाँव महावर अरे छूटे नईं, छूटी नईं काजर की रेख।
दाग हरद के अरे छूटे नईं, कन्ता लरन जात परदेश।
संग न छोडूं मैं पिय तुमरो, जानें कहा रची करतार।
आगे-आगे डोला मोरौ चल है, पाछूँ हथिनी चलैं तुमार।।

लाखन सिंह- अरे मेरी प्रियतमा! क्या तुम पागल हो गई हो। युद्ध क्षेत्र में जाने का कार्य तो केवल पुरुषों का ही होता है, महिलाओं का नहीं। आप तो आनंद से सतखण्डा पर बैठकर डब्बों के आनंद से पान चबाइयेगा। जब मैं विजय प्राप्त करके लौटूँगा, तब मोतियों से मैं तुम्हारी माँग भर दूँगा।
कब-कब छिरिया, अरे मरकउ भई, कबै अंडउवँन परे हैं सार।
कबै-कबै तिरियां जूझैं रन में, जो तैं लैन चहत तरवार।
बैठी रइयों रानी सतखंडन,
सुख सैं खइयों डबन के पान।
जीत जँगरिया जब घर लौटें, मोतिन मांग भरा दैहों आन।।

रानी – हे मेरे प्रियतम! जिस प्रकार चंदा के बिना रात, जल के बिना नदी और पुत्र के बिना परिवार निरर्थक सा लगता है, उसी प्रकार पुरुष के बिना नारी का जीवन किसी काम का नहीं है। आपके बिना आपके सतखण्डा डब्बे में रखे हुए पान किसी काम के नहीं हैं। आपके बिना सारा संसार मेरे लिये सूना है।
रैन विहूनी अरे चंदा बिना, नदिया लगैं बिना जलधार।
बंस बिहूनों लगै बेटा बिना, तैसई बिना पुरुष की नार।
बर जांय जर जांय तोरे सतख डा, उर पानन पै परें तुसार।
एक अकेले तोरे जियरा बिना, मोखों सूनौ लगे संसार।।

इस राछरे में संवादात्मक रचनाधर्मिता देखने को मिलती है। इसमें एक पत्नी के मर्म को स्पर्श करने वाली नारी के मार्मिक भाव प्रदर्शित होते हैं। एक ओर नारी का पातिव्रत और योद्धा का कर्मक्षेत्र युद्ध है। युद्ध में विजय प्राप्त होने पर यश प्राप्त होता है और यही एक वीर का श्रृंगार है।

सच्चा योद्धा कभी युद्ध से विचलित नहीं हो सकता। लाखन सच्चे वीर के पुत्र थे। वे युद्ध से विमुख नहीं हो सकते थे। एक ओर कर्तव्य और दूसरी ओर नव विवाहिता पत्नी का आकर्षण । उन्होंने कर्तव्य को सर्वोपरि समझकर महारानी का परित्याग कर दिया था। यही सच्चा वीरत्व है।

संदर्भ-
बुंदेलखंड दर्शन- मोतीलाल त्रिपाठी ‘अशांत’
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेलखंड की संस्कृति और साहित्य- रामचरण हरण ‘मित्र’
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास- नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली संस्कृति और साहित्य- नर्मदा प्रसाद गुप्त

मधुकर शाह को साको 

बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)