जिदना लौट हेरती नइयां, बुरऔ लगत है गुइयां।
सूक जात मौं बात कड़त ना, मन हो जात मरैयां।
दुविदा होत तौन के डारो, तुम ही जान करइयां।
ईसुर पानी भरन चली गई कछवारे की कुइयां।
तिल की तिलन परन में हलकी, बांय गाल पै झलकी।
कै मकरन्द फूल पंकज पैं, उड़ बैठन भई अलकी।
कै चूं गई चन्द के ऊपर, बिन्दी जमुना जलकी।
ऐसी लगी ईसुरी दिल में, कर गई काट कतल की।
दुल्हिन जो नई बेंदी दैहें, छैलन मन लग जै हैं।
अमल अनन्द अनोखे मौंकों, नाका नाक बने हैं।
जाके लगे एक दिन धोकौ, सब खुल कान गमें हैं।
ईसुर भाल लाल रंग देखें, हाल बचन नई पैं है।
महाकवि ईसुरी ने नायिका के रूप-श्रृँगार एवं अंग-प्रत्यंग वर्णन में सामाजिक मर्यादाओं को ताक पर रख दिया और उस हद तक जाकर फागें लिख दी, जिन्हें सार्वजनिक रूप पर गाया जाना आसान नहीं हैं। इसके कुछ उदाहरण देखिये, किन्तु ये श्रृंगार की दृष्टि से साहित्यिक विधान में खरी उतरती हैंl