गोदे गुदनारी ने गुदना, मिली हमारे जिदना।
जबरई बांह पकरकें मोरी, कर दए छिदना-छिदना।
अंसुआ गिरे आग के ऊपर, भीज गए दोउ जुबना।
देखी की दिखनौस बरै वा, घरी आई थी उदना।
गिरी तमारो खाय ईसुरी, रईतन मान की सुदना।
गोदौ गुदनन की गुदनारी,सबरी देय हमारी।
गालन पै गोविन्द गोदवे, कर में कुंज बिहारी।
बइयन
आनन्द कन्द गोद अंगिया में,मांग में भरौ मुरारीं।
करया गोद कन्दइया ईसुर, औठन मदन मुरारी।
महाकवि ईसुरी के साहित्य में श्रृँगार रस की प्रधानता उनकी साहित्यिक सक्षमता को प्रतिपादित करने वाली है। वे जीवन के हर परिदृश्य को श्रृँगार की चासनी में पगकर अपने श्रोताओं को देते थे, जिसका रसास्वादन आज उनके पाठक ले रहे हैं और उनकी फागों को गाने वाले फगवारे। ईसुरी की कई फागें ऐसी हैं जिनमें शाश्वत श्रृँगार देखने को मिलता है।