होली के अवसर पर राग-रंग और आनन्द के क्षणों में होरी नृत्य करने की परम्परा है। Holi-Bundelkhand Ka Lok Nritya अधिकतर सामूहिक होता है। युवा वर्ग होली के उल्लास में अलग से नृत्य करता है और स्त्रियाँ अलग से। हुरयारों नर्तकों पर दर्शक गुलाल लगाते और रंग डालते हैं। उनके साथ बादक दल मृदंग या ढोलक, नगड़िया, मंजीरा, झींका आदि लोकवाद्यों से संगत करता है।
जैसे ही चौकड़िया फाग की चैथी कड़ी का अन्त होता है, वैसे ही वाद्यों की लय पर नृत्य शुरू हो जाता है। केवल नगड़िया बजती रहती है और नृत्य चलता रहता है। फगवारों में कोई दल नचनारी बुलवा लेता है, जो अलग से नृत्य करती है और नर्तकदल उसका सहयोगी बनकर उसी का अनुकरण करता हुआ उसी की संगत करता है।
कभी-कभी और अधिकतर दोनों में होड़ लग जाती है, तब दोनों के नृत्य में कलात्मक निखार आ जाता है। पदचालन और हस्तचालन में विविधताओं का संयोजन होने लगता है, लेकिन सब श्रृंगार और रसिकता में डुबोकर आकर्षण की तीव्रता गहरा देता है। मैंने तो फाग लोकोत्सव में चाँचर (डण्डिया रास) खेलते और नृत्य करते भी देखा है। फगवारों की अपनी मौज-मस्ती होती है और अपना राग रंग, चाहे जो अपना लें।
अनुष्ठान से जुड़े हुए लोकनृत्य आनुष्ठानिक कहलाते हैं। अनुष्ठान देवी-देवता के सामने किया हुआ एक तरह का ऐसा संकल्प है, जो किसी लक्ष्य को सामने रखकर किया जाता है। अभीष्ट फल की प्राप्ति उसका उद्देश्य है, जिसमें देव का अराधन रहता ही है।
इसलिए यह एक धार्मिक कृत्य हो जाता है और आनुष्ठानिक लोकनृत्य भी उसकी परिधि में आ जाता है। धार्मिक या भक्तिपरक भावना प्रधान होने से इस नृत्य मंे पदचालन और हस्तचालन संयमित रहता है। भावात्मक क्रियाएँ या अभिप्राय ही मुख्य भूमिका अदा करते हैं।
संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल