गोंड़ लोगों का प्रसिद्ध स्थान गढा (मंडला) था। यहाँ के मोतीमहल में एक शिलालेख मिला है जिसमें गोंड़ राजाओं की वंशावली दी है। गोंड़ राजाओं ने सबसे पहले अपना राज्य गढ़ा नामक स्थान मे जमाया था। प्राचीन गोंड राज्य की यही राजधानी थी । गढ़ा के पहले गोंड़ राजा की लड़की का नाम रत्नावली था। इसका ब्याह यादवराय ज्ञत्रिय के साथ हुआ था। Gond Rajya Rani Durgavati Tak अनेक संघर्षों से जूझता रहा और अपना अस्तित्व को बनाये रखा ।
गोंड़ ( राजगोंड़ ) लोगों का राज्य मुगलों के राज्य से बहुत पुराना है। मुसलमानों ने इनके प्रदेश का गोंड़वाना नाम लिखा है। इनके मतातुसार उड़ीसा और खानदेश के बीच का सब प्रदेश गोंड़वाना कहलाता था, किंतु आजकल जिस देश को गोंड़वाना कहते हैं वह नर्मदा के दक्षिण और ताप्ती तथा वर्धा नाम की नदियों के उत्तर में है। पूर्व-काल में गोंड़ लोगों का राज्य उत्तर में देवगढ़ और दुदाही तक पहुँच गया था।
कविवर चंद्र बरदाई के पृथ्वीराज रायसे में गौड़ (गोंड़) लोगों का नाम आया है। कन्नौज मे जगनायक (जगनिक) ने आल्हा से कहा था कि मैंने देवगढ़, चाँदा और सब गौड़ ( गोंड़ ) देश को अपने अधिकार में कर लिया है। आल्हा के समय परमाल चंदेल राजा था, और परमाल के समय देवगढ़ चंदेल राज्य में था। फिर पृथ्वीराज ने परमाल का बहुत सा राज्य ले लिया।
संभवत: कीर्तिवर्मा चंदेल की मृत्यु के बाद गोंड लोगों ने यहाँ अधिकार किया हो। पृथ्वीराज के मंत्री ने परमाल के गढ़ पर चढ़ाई करने के लिये पृथ्वीराज से कहा था। पृथ्वीराज रायसे में जो गौड़ देश लिखा है उसका अर्थ इसी राज- गोंड़ राज्य से है।
गोंड़ लोगों का प्रसिद्ध स्थान गढा (मंडला) था। यहाँ के मोतीमहल में एक शिलालेख मिला है जिसमें गोंड़ राजाओं की वंशावली दी है। इस बंशावली और प्रचलित कथाओं से गोंड़ राजाओं के नाम और उनके राज्य- काल का पता लग गया है। राम- नगर के महल में भी एक वंशावली दी है। यह वंशावली पं० जय गोविंद वाजपेयी राजमंत्री और पुरोहित के संग्रह पर से तैयार की गई थी।
इन राजाओं ने सबसे पहले अपना राज्य गढ़ा नामक स्थान मे जमाया था। गढ़ा प्राचीन गोंड राज्य की यही राजधानी थी। गढ़ा के पहले गोंड़ राजा की लड़की का नाम रत्नावली था। इसका ब्याह यादवराय ज्ञत्रिय के साथ हुआ था। यही यादवराय अपने ससुर के भरने पर गढा राज्य का मालिक हुआा। कहा जाता है कि यादवराय विक्रम संवत् 415 में सिंहासन पर बैठा । परंतु कई विद्वानों का कथन है कि 415 विक्रम संवत् नही, चेदि संबत् है। इस दृष्टि से यादवराय का राज्य-काल विक्रम संवत् 721 से आरंभ होता
यादवराय के पश्चात् लगातार एक राजा के बाद उसका पुत्र राजगद्दी पर बैठता आया। इन राजाओ के नाम के सिवाय उनके राज्य-समय की उल्लेखनीय घटनाओं का कुछ पता नहीं चलता और न राज्य के विस्तार का ही पूरा पता मिलता है। इन राजाओं में राजा संग्रामशाह विशेष प्रतापी हो गया है।
संग्रामशाह को अमानदास भी कहते थे। बाल्यकाल में यह बड़ा ही अन्यायी औरक्रूर था। कहते हैं कि अपनी क्रूरता के कारण इसने अपने बाप को भी मार डाला। इस अत्याचार का बदला लेने के लिये रीवॉ के बघेल राजा रामचंद्र ने इस पर चढ़ाई की। यह वि० सं० 1472 से 1585 के मध्य गद्दी पर बैठा था । राज्य प्राप्त करने पर यह बड़ा ही प्रतापी और शूर वीर निकला ।
इसने गुजरात के बादशाह बहादुरशाह को रायसेन की चढ़ाई के समय बड़ी सहायता पहुँचाई थी। कहा जाता है कि इसी ने इसका नाम संग्रामशाह रखा था। संग्रामशाह के पिता के समय राजगोंड़ राजाओं के पास बहुत थोड़े किले थे। परंतु इसने अपने बाहुबल से आसपास के राजाओं को जीतकर उनका राज्य अपने राज्य में मिला लिया । इस तरह से संग्रामशाह के पास 52 किले ( गढ़ ) हो गए पर इसका राज्य भी जबलपुर से भोपल तक फैल गया।
इसके राज्य मे सागर, दमोह, भोपाल और जबलपुर जिले भी शामिल थे। संग्रामशाह ने यह विस्तृत राज्य किस प्रकार बढ़ाया, इसका पूरा इतिहास नहीं मिलता । इसने ५० वर्ष राज्य किया और अपने नाम के सोने और चॉदी के सिक्के भी ढलवाए। दमोह जिले का संग्रामपुर नामक गांव भी इसी का बसाया हुआ है।
संग्रामशाह का देहांत विक्रम संवत् 1587 ( सं० 1589 में ) के लगभग हुआ । उसके पश्चात् उसका लड़का दलपतिशाह गद्दी पर बैठा। संम्रामशाह जबलपुर के पास के सदन- महल में रहता था और गढ़ा से राज्य करता था। परंतु उसके पुत्र दलपतिशाह ने दमोह जिले के सिंगोरगढ़ में रहना पसंद किया। इसने सिंगारगढ़ के किले को बढ़ाया और उसे मजबूत भी किया ।
दलपतिशाह का विवाह राठ ( हमीरपुर जिले ) के चंदेल राजा की रूपवती कन्या दुर्गावती से हुआ था। इससे जान पड़ता है कि ये गोंड लोग राजपूतों की एक शाखा थे। ब्याह के चार वर्ष पश्चात् दलपतिशाह का देहांत हो गया। इसने ७ वर्ष राज्य किया था। जब दलपतिशाह का देहांत हुआ तब उसके पुत्र वीरनारायण की अवस्था तीन वर्ष की थी । इस कारण अपने अल्पवयस्क पुत्न की ओर से राज्य का काम रानी दुर्गावती संभालने लगी ।
दलपतिशाह की मृत्यु के पश्चात् चोदह वर्ष तक रानी दुर्गावती ने अपने पुत्र की ओर से राज-कार्य बुद्धिमानी से चलाया। इसने राज्य-प्रबंध बहुत अच्छा किया और राजकोष की खूब बृद्धि की। इसकी प्रजा इससे बहुत प्रसन्न रहती थी। इसका राज्य-विस्तार भी बहुत हुआ । इस समय राज्य का प्रधान नगर चौरागढ़ था।
यहाँ का किला संग्रामशाह ने बनवाया था। अकबरनांमा का केखक कहता है कि रानी दुर्गावती के राज्य में असंख्य धन और सत्तर हजार ससृद्धिशाली गाँव थे। इस राज्य की संपत्ति और विभूति मुगलों से न देखी गई और उन्होंने गोंड़वाने पर आक्रमण करने का निश्चय किया।
इस समय दिल्ली में मुगल बादशाह अकबर राज्य करता था। कालिंजर, मानिकपुर और बुंदेलखंड का कुछ उत्तरीय तथा कुछ पश्चिमी भाग भी मुगलों के अधिकार में था। कड़ा मानिकपुर और उसके आस-पास के शासन का कार्य मुगलों की ओर से ख्वाजा अब्दुल मजीद नाम का एक सूबेदार करता था। अब्दुल मजीद के कार्य से मुगल बादशाह अकबर बहुत प्रसन्न हो गया था, इससे उसे आसफ खॉ की पदवी मिली थी ।
विक्रम संवत् 1610 में आासफ खाँ ने गोंढ़वाने की अतुल संपत्ति लूटने के उद्देश्य से उस पर चढ़ाई की । उस समय रानी दुर्गावती की फौज सिंगोरगढ़ नामक किले में थी । अपनी फौज लेकर रानी लड़ने आई। इसकी और आसफ खाँ की फौजों का सामना संग्रामपुर नामक स्थान में हुआ ।
संग्रामपुर सिंगारगढ़ से दो कोस की दूरी पर है। युद्ध बहुत देर तक होता रहा। अंत में रानी की फौज को हटना पड़ा और वह गढ़ की ओर चली । रानी ने अपनी फौज गढ़ा से १२ मील की दूरी पर मंडला की तरफ की एक पहाड़ी के पास एकत्र की।
यहाँ पर आसफ खां की फौज को हार खानी पड़ी। परंतु इसी समय आसफ खाँ की सहायता के लिये उसकी और भी फौज आ पहुँची और दूसरे दिन फिर युद्ध हुआ। इस समय भी रानी दुर्गावती वीरता से लड़ती रही । दुर्भाग्यवश एक तीर उसकी आँख मे ऐसा लगा, जिसे वह निकाल न सकी और निकालते ही तीर टूटकर आंख में रह गया।
उसकी यह हालत देखकर उसकी फौज ने हिम्मत छोड़ दी और रानी दुर्गावती को मंडला की ओर भागना पड़ा । इसी समय रानी दुर्गावती के गले पर दूसरा तीर लगा जिससे उसके जीने की आशा करना कठिन हो गया। अपने जीने की आशा छोड़ भर अपने शरीर को मुसलमानें के हाथ से बचाने के उद्देश्य से रानी दुर्गावती अपने हाथ से अपने पेट मे कटार मारकर मर गईं। जहाँ पर वह मरी वहाँ पर अभी तक उसका स्मारक बना हुआ है।
जब रानी दुर्गावती को विवश होंकर भागना पड़ा तब सैनिक लोग उसके पुत्र वीरनारायण को रणभूमि से अलग ले गए और उसे चैरागढ़ में रखा । यहाँ पर उस समय राज्य का खजाना रहता था। आसफ खां को यह बात मालूस थी और वह रानी दुर्गावती को हराने के, पश्चात् चौरागढ़ गया और उस को उसने घेर लिया। गढ़ मे सेना बहुत न थी। सैनिक लड़े और उन्होंने युद्ध में प्राण त्याग दिए। वीरनारायण भी इसी इद्ध मे मारा गया। गढ़ की रानियाँ, अपने शरीरों को यवनों के हाथ से बचाने के लिये, आग मे जल गई।
इस किले से आसफ खाँ का इतना धन मिला कि वह उसके दसवें भाग का भी हिसाब न लगा सका कि वह कितना था। उसे बहुमूल्य रत्न, सोने और चॉदी के गहने, मूर्तियां और घड़े मिले थे। इस किले में उसे बहुत से पुराने सिक्के भी मिले। एक हजार हाथी भी आसफ खाँ के अधिकार में आए। इस घन-दौलत मे से आसफ खाँ ने केवल तीन से हाथी बादशाह को दिए और बाकी सब अपने पास रख लिया |
इस युद्ध के विषय मे कुछ दंतकथाएँ भी प्रचलित हैं। कहते हैं कि अकबर ने रानी दुर्गावती को सोने का रैंहटा इस अर्थ से नज़र (भेंट) किया था कि स्त्रयों का काम रैंहटा कातने का है, राज्य करने का नहीं। इसके उत्तर में रानी ने एक सोने का पींजन बनवाकर भेजा, मानो यह कहला भेजा कि यदि मेरा काम रैंहटा कातने का है तो तुम्हारा काम पींजन से रुई धुनने का है। इस पर बादशाह अकबर बहुत नाराज हुआ।
कुछ लोग कहते हैं कि रानी दुर्गावती के पास एक श्वेत हाथी था। अकबर बादशाह ने उसे अपने लिये मॉगा। रानी ने इनकार किया। इस बात पर अकबर नाराज हो गया और उसने आसफ खा को चढ़ाई का हुक्म दिया, परंतु ये कथाएँ बनावटी जान पड़ती हैं और चढ़ाई का मूल कारण ते गोंड़वाने के खजाने का लूट लेना ही था।
गढ़ा-मंडला के शिलालेख में रानी दुर्गावती की बड़ी प्रशंसा की गई है जो सब उचित जान पढ़ती है। रानी दुर्गावती के उत्तम राज्य के कारण सारी भूमि हीरों और जवाहिरों से भर गई थी और उसमें बहुत सुंदर और मस्त हाथी थे। वह गज भूमि और धन का दान सदा ही किया करती थी और उसके राज्य मे किसी को कुछ कमी नही थी। अपनी प्रजा की रक्षा के लिये वह वह अपने हाथी पर सवार होकर तलवार हाथ में लेकर लड़ने जाया करती थी। गढ़ा के निकट रानीताल इसी ने बनवाया है |
आसफ खाँ इतना धन पाकर और इस विशाल राज्य को जीतकर स्वतंत्र बनने की इच्छा करने लगा । इसके लिये वह गढ़ा मे कुछ दिन रहा, परंतु उसका कुछ सिलसिला ठीक न जमा । फिर इस अपराध की क्षमा उसने अकबर से माँग ली और अकबर ने उसे क्षमा कर दिया। इसके बाद यहाँ और भी कई सूबेदार आए। इसमें से राय सुजनसिंह हाड़ा की विशेष ख्याति है। यह बाड़ी में रहता था। इसके प्रबंध से प्रसन्न हो अकबर ने इसकी जागीर खुनार मे और भी जिले बढ़ा दिए।
यह यहाँ 25 वर्ष रहा और बि० से० 1632 मे चुनार चला गया। इसके पश्चात् सादिक खाँ सूबेदार नियुक्त किया गया । इसके पश्चात् बाकी खां और अजीज खॉ के नाम मिलते हैं । अंत में उसने राज्य के उत्तराधिकारी से मुगल राज्य के आधीन रहना मंजूर कर लिया। दलपतिशाह का पुत्र वीरनारायण चौरागढ़ के युद्ध से मारा गया था ।
इस कारण गोंड सेनापतियों ने चंद्रशाह को राजा बनाया और अकबर ने भी चंद्रशाह से 10 गढ़ लेकर उसे राजा मान लिया । ये गढ़ भोपल की ओर थे जिनमे सागर जिले का राहतगढ़ भी शामिल था। इस प्रकार भोपाल के निकट का भाग तो मुग़लों के हाथ में गया और सागर, दमोह और जबलपुर जिले गोंड़ों के अधिकार में रह गए।
बुन्देलखण्ड में अंग्रेजों से संधियाँ
संदर्भ -आधार
बुन्देलखण्ड का संक्षिप्त इतिहास – गोरेलाल तिवारी