Bundelkhand Me Muglon Ka Rajya बुन्देलखंड मे मुगलों का राज्य

Bundelkhand Me Muglon Ka Rajya बुन्देलखंड मे मुगलों का राज्य

विक्रम संवत्‌ 1600 मे शेरशाह ने कालिंजर पर आक्रमण किया और यहीं से Bundelkhand Me Muglon Ka Rajya आरम्भ हुआ।  राजसीन ( रायसेन ) का किला तो  शेरशाह के अधिकार में आसानी से आ गया था। बुंदेलों ने कालिंजर के आक्रमण के समय शेरशाह से शक्ति भर लड़ने का निश्चय कर लिया। कालिंजर के लिये  बुंदेलों ने खूब लड़ाई की, परंतु शेरशाह ने कालिंजर ले ही लिया। कालिंजर का किला शेरशाह के मरने के पूर्व ही मुसलमानें के अधिकार में आ गया पर  बारूद के थैलों में आग लग जाने से शेरशाह और  उसके कई सरदार झुलस गए थे।

पानीपत और  सिकरी के युद्ध के तुरंत बाद बाबर दिल्ली का बादशाह हो गया। परंतु वह अधिक दिन तक राज्य नही कर सका और विक्रम संवत्‌ 1587 मे उसकी मृत्यु हो गई । बाबर के पश्चात्‌ उसका बढ़ा लड़का हुमायूँ दिल्ली की राजगद्दी पर बैठा । हुमायूँ के कामरा, हिंदाल और अस्करी ये तीन भाई थे | इन्हें बाबर के मरने पर हुमायूँ ने अपने राज्य का भाग दिया। परंतु इनमें झगड़े हो गए और प्रांतीय शासक इस समय में स्वतंत्र बनने लगे।

इस समय गुजरात का शासक बहादुरशाह था। यह स्वतंत्र हो गया था और इसने मालवा अपने अधिकार मे कर लिया था, पर हुमायूँ ने इसे हराकर मालवा अपने अधिकार में कर लिया। इसके साथ बुंदेलखंड का पश्चिमी भाग भी, जो बहादुरशाह के अधिकार में था, अब हुमायूँ के अधिकार मे आ गया।

इसने कालिंजर पर भी चढ़ाई की थी, किंतु किला फतह करने के पूर्व ही इसे चला आना पड़ा । हुमायूँ को फिर बिहार की ओर अपनी सेना लेकर जाना पड़ा, क्योंकि बिहार का शासक शेरखाँ ( जिसे शेरशाह भी कहते हैं ) वहाँ पर अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित कर चुका था ।

शेरखाँ की राजधानी बिहार के सहसराम (सासाराम ) नामक स्थान में थी। जब हुमायूँ अपनी सेना लेकर बिहार की तरफ गया तब गुजरात के बहादुरशाह ने फिर अपना पुराना राज्य हुमायूँ के हाथ से ले लिया और वह स्वतंत्र बन गया । शेरशाह ने संवत्‌ 1586 में बक्सर की लड़ाई सें हुमायूँ को हरा दिया।

इससे उसे वहाँ से भागना पड़ा। शेरशाह ने भी अपनी फौज लेकर हुमायूँ का पीछा किया और  उसे कन्नौज की लड़ाई मे फिर हराया । फिर दिल्ली आकर वह तख्त पर बैठा। यह सूर जाति का था। इससे इसे शेरशाह सूर भी कहते हैं। हुमायूँ ने कालिंजर पर आक्रमण किया था । उस समय कालिंगर के चंदेल राजा ने हुमायूँ की अधीनता स्वीकार कर ली थी, इससे हुमायूँ ने फिर किले को नहीं घेरा।

संबत्‌ 1599 में शेरशाह ने मालवा पर अधिकार कर लिया। इससे वह सब प्रदेश, जो गुजरात के शासक के पास था, शेरशाह के अधिकार में आ गया। इसके बाद संवत्‌ 1600 में उसने राजसीन ( रायसेन ) पर भी चढ़ाई की । यह इसके अधिकार में तो आ गया पर इसने किले के भीतर के सिपाहियों को मरवा डाला। मालवा लेने के परचात्‌ शेरशाह ने चित्तौड़गढ़ को अपने अधिकार में किया । फिर विक्रम संवत्‌ 1600 मे शेरशाह ने कालिंजर पर धावा किया।

राजसीन ( रायसेन ) का किला तो  शेरशाह के अधिकार में आसानी से आ गया था, क्योंकि किले के अधिपति ने शेरशाह की बड़ी फौज से सामना करना ठीक न समझ उसे किले का अधिकार दे दिया और शेरशाह ने किले के सिपाहियों के साथ अच्छा व्यवहार करने का वचन दिया । परंतु जब शेरशाह किले के भीतर घुसा तब-उसने अपना वचन नही  निवाहा और विश्वासघात करके सब सिपाहियों को अचानक मरवा डाला था ।

इसी कारण बुंदेलों ने कालिंजर के आक्रमण के समय शेरशाह से शक्ति भर लड़ने का निश्चय कर लिया। इतिहासकार अहसद यादगार लिखते है कि शेरशाह ने कालिंजर पर आक्रमण इसलिये किया था कि कालिंजर मे वीरसिंह नामक बुंदेला छिपा था। वह शेरशाह का दुश्मन था। कालिंजर के लिये  बुंदेलों ने खूब लड़ाई की, परंतु शेरशाह ने कालिंजर ले ही लिया और मधुकरशाद हार गया।

अहमद यादगार का लिखना असत्य है, क्‍योंकि वीरसिंहदेव राजा मधुकरशाह के पुत्र थे। ये वि० सं० 1662 में अपने पिता के बाद गद्दी पर बैठे थे। यह भी लिखा मिलता है कि कालिंजर में इस समय कीर्तिसिंह चंदेल का राज्य था, पर यह ठीक नहीं मालूम होता, क्योंकि अबुफजल ने लिखा है कि रानी दुर्गावती राठ के राजा शालिवाहन की लड़की थी। कालिंजर का किला शेरशाह के मरने के पूर्व ही मुसलमानें के अधिकार में आ गया । बारूद के थैलों में आग लग जाने से शेरशाह और  उसके कई सरदार झुलस गए थे।

शेरशाह के मरने पर उसका लड़का इस्लामशाह बादशाह हुआ। कालिंजर के युद्ध में यह भी अपने पिता के साथ था। बि० सं० 1602 मे यह अपने पिता का धन चुनार से ग्वालियर लाया और कुतुब झादि लोगों को  राजविद्रोह के अपराध मे, पकड़कर इसने इसी किले मे कैद किया। वि० सं० 1602  में यह फिर यहाँ आया था। इसी के सामने आटेमसखाँ ने अपने पिता का बैर निकालने के लिये मालवा के शुजाअत खां  को कटार मार दी थी ।

आटेमसखाँ वि० से० 1610  मे मरा। इस समय उसका पुत्र बहुत छोटा था। इसे मुहम्मद आदिलशाह ने मार डाला। यह इस्लामशाह का भाई था। इसके बाद  मुहम्मद आदिलशाह बादशाह हो गया। इसके समय में बादशाहत का सब काम हेमचंद्र सरदार करता था। यह जाति का भार्गव था । परंतु राजघराने में इस समय भगड़े हो गए और इब्राहीम सूर बादशाह बन गया। इब्राहीम सूर को सिकंदर सूर ने गद्दी से उतार दिया।

इसी समय हुमायूँ फारस के बादशाह से सहायता लेकर भारत में आया और सिकंदर सूर को सरहिंद की लड़ाई में हराकर फिर दिल्ली का बादशाह विक्रम संवत्‌ 1612 बन गया । हुमायूं के मरने पर उसका लड़का अकबर बादशाह हुआ। इस समय यह 14  वर्ष का था । मुहम्मद आदिल शाह के दीवान हेमचंद्र के पास बहुत सी सेना थी । उसी के सहारे इसने बंगाल और विहार पर अधिकार कर लिया और  हुमायूँ के मरने पर उसने दिल्ली पर भी चढ़ाई की ।

इस समय दिल्ली मे हुमायूँ का लड़का अकबर बादशाह बना दिया गया था। अकबर का एक बढ़ा मददगार बहराम नाम का सरदार था । अकबर ने बहराम को साथ लेकर पानीपत में हेमचंद्र का सामना किया। पानीपत का युद्ध विक्रम संवत्‌ 1603 में हुआ। अचानक हेमचंद्र की आँख में एक तीर लग गया जिससे उसको बढ़ी चोट आई और उसकी सेना तितर-बितर हो गई ।  इस युद्ध में हेमचंद्र कैद कर लिया गया ।

पानीपत के युद्ध के पश्चात्‌ अकबर मुगल बादशाहत का मालिक हो गया। बहराम राज-काज़ में बहुत हस्तक्षेप करता था । इससे अकबर ने उसके हाथ से राज्य का सब काम ले लिया और  जब बहराम ने बलवा किया तब उसे हरा दिया। आदिलशाह का लड़का शेरशाह (दूसरा ) जौनपुर पर अधिकार किए बैठा था। अकबर ने उसे हराकर जौनपुर पर भी कब्जा कर लिया। मालवा मे उस समय बाजबहादुर नाम का एक मुसलमान शासक था। वह स्वतंत्र होने का प्रयन्न कर रहा था। परंतु अकबर ने उसे वि० स० 1618  में हराकर मालवा भी अपने अधिकार में कर लिया ।

वि० सं० 1624  में अकबर गागरौन आया। इसके आने का हाल सुनते ही सुल्तान मुहम्मद मिरजा के लड़के, जे माँढौं के किले में रहते थे, डरकर भाग गए। इससे अकबर शहाबुद्दीन अहमद निशापुरी के सूबेदारी पर रख चित्तौड़ चला गया ।

इस समय बुंदेलखंड के पूर्व में बघेलों का राज्य बढ़ रहा था। इनके इतिहास से जा ना जाता है कि ये लोग वि० सं० 1260 के लगभग कालिंजर  के समीप मड़फा नामक गांव मे पश्चिम से आकर बसे थे। यह ग्राम कालिजर के ईशान में 18 मील पर है। कालिंजर के निकट बघेलवाड़ी और बधेलन नाम के दे गांव हैं। ये दोनों नाम संभवत: बघेलों के नाम पर से ही पड़े हैं। ऐसा कहा जाता है कि ये लोग गुजरात से आए थे और इनके आदि-पुरुष का नाम व्याघ्रदेव था।

बेघेल शब्द की उत्पत्ति ब्याघ्रदेव से ही हुईं है ऐसा लेगों का कथन हैं, पर रीवां स्टेट गजेटियर और टाँड-राजस्थान में लिखा है कि ये लोग  अडहिलवाड़ा पाटन के चालुक्य या सोलंकी क्षत्रिय राजाओं की एक शाखा हैं । इनकी उत्पत्ति इस प्रकार वतलाई जाती है कि उत्तरीय गुजरात में चावढ़ क्षत्रिय राज्य करते थे। इन्हें कल्यान के मुवाड़ राजा ने बि० स॑० 766  के लगभग मार भगाया। इससे राजा की गर्भवती रानी भी, अपने भाई के साथ, जंगल की ओर भाग गई । वहाँ उसे पुत्र हुआ । रानी ने इसका नाम वनराज रखा ।

इसी वनराज ने अनहिलवाड़ा बसाया और इसी से चावड  वंश चला । इसवंश सें वि० स॑० 668  तक राज्य रहा ।  पीछे से चालुक्य लोगों ने इन्हें मार भगाया । चावड़ वंश के अंतिम राजा का नाम सासंतसिंह था । इसकी बहिन चालुक्यराज को ब्याही थी। इसके लड़के का नाम मूलराज था। इसने अपने चचा  के मारकर स्वतंत्र राज्य स्थापित किया । इस वंश में वि० सं० 1166 तक राज्य रहा । चालुक्य राजा कुमारपाल के राज-काल में इसकी मौसी का पुत्र अरुनोराज हुआ ।

इसे राजा कुमारपाल  ने सामंत की पदवी से विभूषित किया और ब्याघ्रपल्ली या  वधेला जागीर में दिया। इसी गांव में बसने के कारण अरुनोराज का वंश बघेल कहलाया। इसके पिता का नाम धवल था । अरुनोराज के लड़के का नाम लवनप्रसाद था। यह गुजरात के राजा अजयपाल के समय भेलसा और उदयपुर का सूवेदार था। यह वि० सं० 1226 से 1236 तक इस पद पर रहा । बाद मे यह भीम दूसरे का मंत्री हो गया, इसे घवलगढ़ जागीर में मिला था।

लवनप्रसाद का विवाह मदनरजनी से हुआ था ।  इससे वीर धवल नाम का पुत्र हुआ। इसने सुल्तान मुइज्जुद्दीन मोहम्मद गौरी से युद्ध किया था। इसके वीरम, चीसलदेव और प्रतापमल नाम के तीन पुत्र  हुए। यह  वि० सं.  1206  से 1295 तक रहा । इसके मरने पर इन लड़कों में वि० सं० 1295में युद्ध हो गया। इसमें बीसलदेव की जीत हुई।

व्याघ्रदेव वि० सं० 1290  मे कालिंजर के पास मड़फा मे आया। इसका विवाह मकुंददेव चंद्रावत की कन्या सिंघुरमती से हुआ था। इससे इसके पांच लड़के हुए । ज्येष्ठ पुत्र कर्णदेव ने टोंस/टोंस ( तमसा ) नदी के आस-पास का प्रदेश अपने अधिकार में कर दिया । इसका विवाह रतनपुर के राजा सोमदत्त की कन्या पद्मकुंवरि से हुआ था ।  इसे बाँधोगढ़ दहेज में मित्ता था ।

बघेल राजा वीरसिंहदेव का विवाह मोहनसिंह कछवाहे की कन्या के साथ हुआ था। इससे और सिकंदर लोधी से बहुत बनती थी। यह प्राय: उसके दरबार में जाया करता था । इसने राजगोंड राजा अमानदास उर्फ संग्रामशाह को  अपने यहाँ आश्रय दिया था। वीरसिंहदेव इसे बहुत चाहता था ।

बघेल राजा वीरभानदेव हुमायूँ का समकालीन है । इसका विवाह गोपालपुर के राव सुल्तानसिंह कछवाहे की कन्या के साथ हुआ था । जब शेरशाह ने हुमायूँ को भगाया तब बधेल राजा वीरभानदेव ने हुमायूं की स्त्री आदि को अपने यहाँ रखा था, पर किसी भी इतिहासकार ने यह बात नहीं लिखी । जब शेरशाह मरा तब रीवाँ, जो  बघेलखंड की राजधानी है, जलाल खाँ नाम के एक शासक के अधीन था। किंतु कालिंजर और बाँधोगढ़ दोनों बघेल राजा रामचंद्र के ही अधिकार में थे।

कालिंजर को राजा रामचंद्र ने शेरशाह के दामाद अलीखाँ से लिया था। कोई कोई इसे बिजलीखाँ भी कहते हैं। भ्ल्लीखाँ कालिंजर का सूबेदार था। बघेल राजा रामचंद्र वीरभान का पुत्र है। यह वि० सं० 1612 में गद्दी पर बैठा था। इसके गद्दी पर बैठते ही इबराहीम सूर ने चढ़ाई की, पर वह युद्ध मे हार गया। किंतु बघेल राजा रामचंद्र ने इसके साथ बहुत ही अच्छा व्यवहार किया और इसे अतिथि के समान अपने यहाँ रखा। इसने वि० सं० 1626 में कालिंजर और उसके आस-पास का बहुत सा प्रदेश अकबर को दे दिया। यह  किला इसके वंशजों में लगभग 120  वर्ष तक रहा।

जब दिल्ली के बादशाह शाहजहाँ के राज-काल में वि० सं० 1671में ओरछा के राजा जुझारसिंह ने विद्रोह किया उस समय उसे दबाने के लिये खानेदौरान के साथ औरंगजेब भी भेजा गया था। इस समय शाही फौज को मदद देने के लिये चंदेरी का राजा देवीसिंह और रीवाँ का राजा अमरसिंह भी आये थे । यह वि० सं० 1681 में गद्दी पर बैठा था। इसे रतनपुर के राजा प्रतापसिंह की कन्या ब्याही थी। अमरसिंह वि० सं० 1697 में मरा और अनूपसिंह राजा हुआ।

अनूपसिंह का विवाह मिरजापुर के पास अंगोरी में मोहनसिंह चंदेल राजा की कन्या के साथ हुआ था। इस पर ओरछा के राजा पहाडसिंह ने वि० से० 1707 में चढ़ाई की, पर राजा अपनी निर्बलता के कारण युद्ध नही किया और भाग गया और  एक पहाडी में जा छिपा । इससे पहाड़सिंह ने राजधानी को मनमाना लूटा । इस लूट में से इसने वि० सं० 1704 में एक हाथी और ३ हथिनियों दिल्ली के तत्कालीन वादशाह शाहजहाँ को  भेंट कीं।

रामचंद्र से कालिंजर का किला लेने पर बुंदेलखंड का अधिकाश भाग अकबर के अधिकार में चला गया। इस समय मुगलों के पास पूर्व में कालिंजर, पश्चिम में धसान नदी के पश्चिम का भाग और उत्तर की ओर कालपी के आस-पास का बहुत सा प्रदेश था। ओरछा इस समय बुंदेलों के हाथ में था, पर॑तु विक्रम संवत्‌ 1657 में वीरसिंहदेव ने अबुफजल को मार डाला इससे ओरछा भी मुगलों ने अपने अधिकार मे कर लिया ।

मुगलों  ने गोंडवाना और  बुंदेलखंड के कुछ भाग को लेने का अधिक प्रयत्न नहीं किया। इन सब प्रदेशों को, जिन पर मुगलों का अधिकार न था, मुगल लोग गोंडवाना कहते थे। गोंडवाने का विस्तार आईना अकबरी के अनुसार इस प्रकार है…  पूर्व मे रतनपुर का राज्य, पश्चिम में महोबा, उत्तर मे पन्ना और  दक्षिण में दक्खन ।  इसमें दमोह और  शेष बुंदेलखंड का कुछ भाग शामिल था। अकबर ने गोंडवाने की रानी दुर्गावती के युद्ध के पश्चात्‌ इस ओर अधिक लक्ष्य न किया ।

अकबर ने राजपूताने के राजपूतों  को भी अपने अधिकार में कर लिया था, परंतु चित्तौड़ के राना ने अकबर की अधीनता स्वीकार नही की । जब अकबर ने चित्तौड़ ले लिया तब भी वहाँ के राणा ने परतंत्रता स्वीकार नही  की और वह चित्तौड़ छोड़कर उदयपुर नामक स्थान बसाकर वहाँ रहने लगे  । इस राणा का नाम उदय सिंह था। उदयसिंह के पुत्र प्रतापसिंह ने अंत मे मुगलों के हाथ से चित्तौड़गढ़ ले लिया। ये जेठ सुदी 3 रविवार वि० संवत्‌ 1567 तदनुसार ता० 9-5-1540 को पैदा हुए थे ।

अकबर के पहले के बादशाहों ने हिंदुओं पर जजिया नाम का कर लगाया था। उन लोगों ने हिंदुओं को हर प्रकार से तंग किया और  जबरदस्ती उन्हें मुसलमान बनाने की चेष्टाएँ की थीं। इसी कारण हिंदू लोग सदा उनसे नाराज रहे और उनका राज्य न जमने पाया। अकबर ने हिंदू और  मुसलमानों से बराबरी का बर्ताव किया और उसी कारण से मुगल राज्य की नींव भारत मे जम गई। अकबर के समय में राज्य का प्रबंध बहुत अच्छा था। 

अकबर के मरने पर उसका लड़का जहॉगीर संवत्‌ 1662 में तख्त पर बैठा। इसने शेर अफगान को मरवाकर उसकी स्त्री नूरजहाँ के साथ संवत्‌ 1668 मे ब्याह किया। नूरजहों ने जहॉगीर के लड़कों में लड़ाई करा दी। इसमे शाहजहाँ सफल हुआ और वह जहाँगीर के पश्चात्‌ संवत्‌ 1684 में बादशाह हुआ । जहाँगीर के समय में अँगरेज, डच, पुत॑गाली और फ्रांसीसी व्यापारी भारत में आये । इन लोगों ने अपने व्यापार के स्थान नियत किए और यहाँ पर किले बनवाने के लिये बादशाहों से समय समय पर सनदें ली (राजलेख, अधिकार पत्र)।

शाहजहाँ ने दक्षिण के राज्यों पर अधिकार निश्चित कर लिया था, परंतु उसकी बादशाहत के अंत  के समय फिर उसके लड़कों में झगड़े आरंभ हुए। शाहजहाँ के समय में ओरछा में जुझार सिंह बुंदेला का राज्य था। इसने स्वतंत्र होने का प्रयत्न किया, परंतु शाहजहाँ ने उसे हरा दिया। शाहजहाँ के लड़कों के युद्ध में औरंगजेब सफल हुआ । इसी गड़बड़ के समय मराठों ने अपनी शक्ति बढ़ाई और नर्मदा नदी के उत्तर के कई स्थानों पर आक्रमण किया। औरंगजेब के ही समय में बुंदेलखंड में बुंदेला और महाराष्ट्र में मराठे बढ़े। इन्होंने किस प्रकार धीरे-धीरे मुसलमानों से राज्य ले लिया।

समथर – अंग्रेजों से संधि 

संदर्भ – आधार –
बुन्देलखण्ड का संक्षिप्त इतिहास – गोरेलाल तिवारी

admin

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