Bundelkhand Me Afgano Ka Rajya बुन्देलखंड मे अफगानों का राज्य

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By admin

बुंदेलखंड पर अफगानों का पहला आक्रमण वि. सं. 1078 में कालिंजर पर हुआ था। Bundelkhand Me Afgano Ka Rajya की सुरूआत थी उस समय कालिंजर पर गंडदेव चंदेल राज्य करता था। गंडदेव चंदेल की हार हो गई थी और महमूद गजनवी कालिंजर से बहुत सा खजाना लूटकर ले गया था। इसके आक्रमण अधिकतर लूट-मार के लिये ही हुए थे। भारत की अतुल्य संपत्ति लूटकर ले जाना ही इसका मुख्य उद्देश्य था।

बुन्देलखंड मे अफगानों का राज्य कालिंजर के  खजाने की लूट  

मुसलमानों ने भारत पर हमले करना वि० सं० 769  में आरंभ कर दिया था। इनके पहले हमले सिंध में हुए थे। इस समय यहाँ चच का लड़का दाहिर आल्लोर (राजधानी) में और उसका भतीजा ( राजा चंद्र का लड़का ) ब्रम्हनावाद में राज्य करते थे।  दाहिर के दे लड़के थे । इनके नाम फूफी और  जय सिंह थे। इसके सूर्यदेवी और पालदेवी नाम की दो लड़कियाँ भी थीं। इन्होंने ही मुहम्मद कासिम से अपने बाप का बदला लिया था।

मुहम्मद कासिम के पश्चात्‌ दूसरा मुसलमान बादशाह, जिसने भारत पर आक्रमण किया, महमूद गजनबी था। इसके कई आक्रमण हुए हैं। बुंदेलखंड पर इसका पहला आक्रमण बि० सं. 1078 में कालिंजर पर हुआ था। उस समय वहाँ पर गंड देव चंदेल राज्य करता था। इसके बारे मे इतिहासकार निजामुद्दीन ने लिखा है कि गंडदेव चदेल की हार हो गई थी और महमूद गजनवी कालिंजर से बहुत सा खजाना लूटकर ले गया था। इसके आक्रमण अधिकतर लूट-मार के लिये ही हुए थे। भारत की अतुल्य संपत्ति लूटकर ले जाना ही इसका उद्देश्य था।

गंडदेव चदेल के राज्य पर, जब यह वि० सं० 1080  में महमूद गजनवी दुबारा आया था, तब चदेल राजा गंडदेव ने 300  हाथी और बहुत सा धन देकर इससे संधि कर ली  थी और उसकी तारीफ मे बहुत सी कविता भी भेजी थी जिसे सुन महमूद गजनवी  बहुत खुश हुआ और  उसके राज्य में 14 किले और भी बढ़ा दिए। यहाँ से वह ग्वालियर गया। यहाँ आते  ही उसने घेरा ढाल दिया । तब राजा देवपाल कछवाहे ने वाध्य होकर उसे 35 हाथी और बहुत सा घन देकर संधि कर ली और ग्वालियर को लुटने से बचाया ।

दूसरा आक्रमण करने वाला मुसलमान बादशाह गोर का शासक शहाबुद्दीन मुहम्मद गोरी था। इसे मुईज्जुद्दीन सास भी कहते थे । इससे और दिल्ली के राजा पृथ्वीराज चौहान से वि० सं० 1948 में तरेन ( करनाल और थानेश्वर के वीच दिल्ली से १०० मील उत्तर ) में युद्ध हुआ था । इस युद्ध में पृथ्वीराज चौहान के सामंत चामुंडराय के हाथ से इसे गहरी चोट लगी थी, इससे यह वापिस चला गया, पर दूसरी बार इसने पृथ्वीराज चौहान को थानेश्वर के युद्ध में वि० सं० 1248 में हराया। इसके पश्चात पृथ्वीराज चौहान को कैद कर मार डाला, परंतु रायसे में लिखा है कि मुहम्मद गोरी पृथ्वी राज को पकड़कर गजनी ले गया। वहाँ उसने उसे अंधा कर दिया ।

कुछ दिनों के वाद पृथ्वीराज ने चंद बरदाई की सहायता से शहाबुद्दीन को मार डाला । उस समय भारत के राजा लोग आपस में लड़ना ही अपना कर्तव्य समझते थे। पृथ्वीराज के हारने के बाद दिल्ली भी मुहम्मद गौरी के हाथ में आ गई  पंजाब पहले से ही इसके अधीन था। कुबुद्दीन एवक कुहराम ( पटियाला ) में रहता था।

संवत 1253 में मुहम्मद गौरी अपने सेनापति कुतुबुद्दीन ऐवक को लेकर वयाना के राजा हरिपाल को परास्त करता हुआ गालियर आया । यहाँ के राजा लोहनदेव परिहार ने इससे संधि कर अपना पिंड छुड़ाया। इस युद्ध में बयाना का सूवेदार बहाबुद्दीन तघरूल वेग भी आया था |

कुतुबुद्दीन ऐवक बड़ा ही पराक्रमी था। इससे मुहम्मद गौरी के पीछे कई राजाओं को परास्त कर अपने अधीन कर लिया था । अत में इसने वि० सं० 1258 में कालिंजर पर चढ़ाई की । उस समय यहाँ पर राजा परमर्दिदेव राज्य करता था। पर यह न तो  वह योग्य शासक ही था न उसमें शूरता ही थी। यह युद्ध से सदा डरा करता था । पृथ्वीराज चौहान ने इसके राज्य का बहुत सा भाग पहले ही से बि० सं० 1239 में छीन लिया था। पर जो कुछ रह गया था उसके जाने की भी अब बारी आई। बिचारे परमर्दिदेव से कुछ न बन पड़ा ।

उसने कुतुबुहीन की अधीनता स्वीकार करनी चाही पर उसके मंत्री ने इसे ही मार डाला और  वह युद्ध करता रहा । परंतु पीछे से वह भी युद्ध मे मारा गया । इससे काल्लिंजर पर कुतुबुद्दीन का अधिकार हो गया। इस जीते हुए प्रदेश के शासन के लिये उसने हजबरुद्दीन हसन नामक एक मुसलमान सरदार को सूबेदार नियत कर दिया। यहां से कुतुबुद्देन ऐबक  महोबा लेता हुआ कालपी गया। उस समय महोबा कालपी के राजा के अधीन था। इससे महोबा, कालपी और इसके आस-पास का प्रदेश भी मुसलमानों के हाथ में आ गया। पर कालिंजर को हिंदुओं ने कुतुबुद्दीन ऐबक  के सूबेदार से छीन लिया।

मुहम्मद गौरी के मरने पर कुतुबुद्दीन ऐबक स्वतंत्र हो गया। यह गोर के बादशाह शहाबुद्दीन ( मुहम्मद गोरी ) का गुलाम था । ऐबक इसकी जन्मभूमि थी। निशॉपुर के एक सौदागर ने इसे मुहम्मद गौरी के हाथ बेचा था । इसी से इसे ऐबक कहते हैं। इसका वंश गुलाम वंश कहलाया। इस वंश का तीसरा बादशाह अलतमश नाम का था। यह कुतुबुद्दीन ऐबक का दामाद था।

अलतमश कुतुबुद्दीन के लड़के आरामशाह को वि० सं० 1268 मे गद्दी से उतारकर बादशाह दो गया। कालिंजर आरामशाह के पूर्व ही हिंदुओं के हाथ में चला  गया था। इससे इसने बि० सं० 1261 में फिर कालिंजर पर चढ़ाई की और वह यहाँ से बहुत सा माल लूट कर ले गया।

अलतमश  के समय में वि० सं० 1272 में चंगेज खां मुगल ने भारत पर चढ़ाई की और उसने गुलामवंश के बादशाहों के राज्य का कुछ उत्तरीय भाग ले भी लिया ।  अल्तमश ने वि० सं० 1988 में ग्वालियर पर चढ़ाई की, इस समय यहाँ पर सारंगदेव परिहार राजा राज्य करता था। हिंदुओं ने जी-जान से युद्ध किया पर हार गए। राजा सारंगदेव बड़ी बहादुरी से लड़कर जान दी । इसकी रानियों ने पहले ही से जलती हुईं चिता में भस्म हो गई थीं।

अल्तमश के मरने पर उसका लड़का रुकनुद्दीन फीरोज वि० सं० 1293 मे गद्दी पर बैठा। यह सिर्फ 7 महीने राज्य कर पाया था कि इसकी बहिन रज़िया बेगम को इसके सरदारों मे राजगद्दी पर बैठा दिया । पर इसे भी उन लोगों ने वि० सं० 1287  मे मार डाला और मुइजुद्दीन बहराम को गद्दी पर बैठाया। यह भी रजिया बेगम का भाई था। इस समय राजगद्दी देना और  उससे अलग करना सरदारों के ही हाथ मे था। ये लोग जिसे चाहते बात की बात में राजा से रंक कर धूल में मिला देते थे ।

इन्होंने वि० सं० 1287 में बहराम को भी गदी से उतारकर रुकनुद्दीन के लड़के मसऊद को गद्दी दे दी। इसके समय से मुगलों के हमले हुए। इसने सिर्फ पाँच ही वर्ष राज्य किया। इतने ही मे उसने निर्दयता के अनेक काम किए। इससे सरदारों ने इसे भी वि० सं० 1303 मे गद्दी से उतारकर शमसुद्दीन अल्तमश के छोटे लड़के नसीरुद्दीन महमूद को बहराइच से बुलाकर गद्दी पर बैठाया । यह एक योग्य शासक निकला। इसके समय में शासन-कार्य इसका बहनोई गयासुद्दीन बलबन किया करता था ।

नसीरुद्दीन महमूद ने वि० से० 1304 ( दिसंबर सन्‌ 1247 ) में कालिंजर पर चढ़ाई की ।  इस समय यहाँ पर बघेल राजा दलकेश्वर और मलकेश्वर राज्य करते थे, और  चंदेल राजा त्रेलोक्यवर्मन के अधिकार में अजयगढ़ और उसके आस-पास का प्रदेश ही बाकी रह गया था। इन दोनों भाइयों ने नसीरुद्दीन से घोर युद्ध किया, पर हार गए। इससे इसने कालिंजर को मनमाना लूटा।

इसके पश्चात्‌ इसने वि० सं० 1307 में नरवर पर चढ़ाई की । चाहड़देव हार गया। (फरिश्ता में जाहिरदेव लिखा है।) यहाँ से वह चेँदेरी होता हुआ मालवा गया। यहाँ के राजा भी इसके अधीन हो गए। इस प्रकार नसीरुद्दीन महमूद ने बुंदेलखंड का बहुत सा भाग अपने अधीन कर लिया। नसीरुद्दीन मे वि० सं० 1304 मे बघेल राजाओं के परास्त कर कालिंजर का मनमाना लूटा था । उसके जाते ही हिंदुओं ने उसे फिर से  मुसलमानों से छीन लिया।

इस तरह से यह किला कई बार हिंदुओं से मुसलमानों के हाथ आया और फिर कई बार हिंदुओं के हाथ में चला  गया। अंत में इसने वि० स० 1308 मे एक बड़ी सेना लेकर कालिंजर पर चढ़ाई की ।  इस समय इसने दिल्ली, ग्वालियर, कन्नौज और सुल्तान कोट से भी सेना बुलवाई थी । इस समय तो  कालिंजर मुसलनों के हाथ आ गया, पर फिर भी उनसे निकल कर हिंदुओं के हाथ में चला  गया । इस समय से यह किला कोई अढाई सौ  वर्षों तक बराबर हिंदू राजाओं के हाथ में रहा ।

अंत मे वि० सं० 1554 में रीवा के बघेल राजा शालिवाहन से दिल्ली के बादशाह सिकंदर लोदी से अपनी कन्या का विवाह करने के लिये कहा, परंतु बधेल राजा ने अपनी राजकुमारी का विवाह एक मुसलमान बादशाह के साथ करना अनुचित समझकर इस प्रस्ताव को नही माना। इससे बादशाह नाराज हो गया और उसने उस पर चढ़ाई कर दी । राजा इस युद्ध में हार गया। अंत में बादशाह यहाँ से उसके देश को उजाड़ता हुआ बॉदा से दिल्ली चला गया।

इसके पश्चात्‌ बुंदेलखंड मे वि० सं० 1602  मे शेरशाह ने भी चढ़ाई की। इस समय यह बुंदेलों के अधीन था। राजा भारतीचंद ने इसका सुकाबला करने के लिये अपने भाई मधुकरशाह को भेजा, पर किला बुंदेलों के हाथ से निकल ही गया । यद्यपि शेरशाह बारूद के ढेर मे आग लग जाने से झुलसकर मर गया, पर किला उसके मरने के पूर्व ही अधिकार में आ गया था।

इतिहासकारों ने राजा का नाम नहीं लिखा, न उसकी जाति ही बतलाई है। इसी से मतमेंद हो रहा है। जेनरल ए० कनिंघम इसका नाम कीर्तिसिंह चंदेल बताते हैं और अबुफज़ल शलिवाहन कहते हैं। ओरछा स्टेट गजेटियर में यह भी लिखा है कि कालिंजर का किला निकल जाने पर सलेमनाबाद ( शेरशाह के लड़के सलीमशाह के नाम पर बसाया हुआ आधुनिक जतारा का प्राचीन नाम ) पर आक्रमण कर उसे सलीमशाह से छीन लिया ।

नसीरुदीन महमूद ने कालिंजर के साथ  बुंदेलखंड का बहुत सा भाग अपने अधीन कर लिया था। चंदेरी और मालवा भी बि० सं० 1308 से इसके हाथ आ गए थे। पर अजयगढ़ और उसके आस-पास का प्रदेश अब तक चंदेलों  के पास ज्यों का त्यों बना हुआ था । यह बिना संतान के मरा और गयासुद्दीन बलबन इसका मंत्री ही वि० सं० 1323 मे बादशाह हो गया।

इस समय मालवा आदि प्रदेशों ने फिर भी स्वतंत्र होने का प्रयत्न किया, परंतु बलबन ने उन्हें दबा दिया । इसके पश्चात्‌ कोई योग्य शासक इस वंश में न हुआ | अंतिम बादशाह कैकोबाद को इसके मंत्री जलालुद्दीन खिलजी ने मार डाला और वह स्वयं वि० सं० 1345 में बादशाह बन बैठा।

अलालुद्दीन खिलजी के समय से खिलजी वंश चला । इसने वि० सं० 1350 में मॉड़ो पर चढ़ाई की और इसे लूटकर दिल्ली वापस चला गया | इसके पश्चात्‌ इसके भतीजे अलाउद्दीन खिलजी ने इसी वर्ष मिलसा पर चढ़ाई की और  बह बहुत सा लूट का माल ले गया। जलालुद्दीन खिलजी को अलाउद्दीन ने वि० सं० 1352 में मार डाला और वह खुद बादशाह हो गया । इसमे मालवा पर अपना दृढ़ अधिकार करके दक्षिण पर भी चढ़ाई की और सौराष्ट्र देश के यादव वंश के राजा रामदेव से एलिचपुर ले लिया ।

अलाउद्दीन ने वि० सं० 1360 में चित्तोड़ पर चढ़ाई की । यद्यपि राजपूतों ने बड़ी वीरता से अपना बचाव किया परंतु हार गए। इस समय भी भारत के भिन्न-भिन्न प्रदेशों के शासकों ने मिलकर मुसलमानों का सामना करने का कभी निश्चय न किया। यादव राजा रामचंद्र को अलाउद्दीन की सेना ने दूसरी बार के आक्रमण में हरा दिया और उसे कैद कर लिया । अलाउद्दीन के बुढ़ापे में मंत्रियों में झगड़ा हो गया। इसी समय चित्तोड़ के राजपूतों को हम्मीर ने स्वतंत्र कर दिया और दक्षिण के यादवों ने मुसलनों को मार भगाया। ऐसे ही गुजरात भी स्वतंत्र हो गया।

अलाउद्दीन को उसके मंत्री मलिक काफूर ने संवत्‌ 1373 में मरवा डाला और उसके लड़के, खिजर खां  और  शादी खॉ की भाँखे’ निकलवा डालीं। यह मुबारक को भी मारना चाहता था पर  सिपाहियों ने इसी का मार डाला और मुबारक को बादशाह बना दिया। इसे बजीर खुशरू ने वि० सं० 1377 मे मार डाला और वह खुद  बादशाह हो गया। यह सिर्फ चार ही महीने राज्य कर पाया था कि इसे गाजी मलिकतुगलक ने मार डाला | फिर यही गाजी मलिक तुगलक गयासुद्दीन तुगलक का नाम धारण कर वि० सं० 1378 मे बादशाह हो गया।

दमोह जिले के बटियागढ़ नामक स्थान के किले  के महल में एक शिलालेख मिला है। यह वि० सं० 1381 का है। इसमे गयासुद्दीन का नाम आया है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि इसकी तरफ से यहाँ पर कोई सूबेदार रहा होगा और  उसी ने यह महल बनवाया होगा । वि० सं०1382 मे जौन खां  ने अपने पिता गयासुद्दीन को मार डाला और मुहम्मद तुगलक नाम धारण कर बादशाह हो गया । किसी किसी ने इसका नाम महमूद भी लिखा है।

मुहम्मद तुगलक एक पागल बादशाह था। इसके मन मे जे आता था वही कर डालता था। यह अपनी राजधानी दिल्ली से देवगिरि और देवगिरि से दिल्ली ले  गया । इस राजधानी परिवर्तन का कारण ऐसा बतलाते हैं कि इसका एक सरदार बागी होकर सागर के राजा के पास भाग आया। जब इसकी फौज ने सागर पर आक्रमण किया तब राजा देवगिरि भाग गया।

इसे सर करने के लिये देवगिरि पर बादशाह ने चढ़ाई की और इसकी प्राकृतिक शोभा देख इसे राजधानी बनाया और उसका नाम देलताबाद रखा। यह बड़ा निर्दयी भी था। इसी के समय मे दक्षिण मे विजयनगरस्‌ और बम्हनो नाम के दो  नये राज्य स्थापित हो गए।

दमोह जिले के बटियागढ़ नामक स्थान से वि० सं० 1385 का एक शिलालेख मिला है। इसमे मुहम्मद तुगलक का जिक्र है। इस समय इसकी  ओर से जुलचीखाँ नाम का सूबेदार चंदेरी में रहता था और  इस सूबेदार का नायक बटियागढ़ मे रहता था। उस समय इसे बटिहाड़िम ( बढ़िहारिन ) भी कहते थे और दिल्ली जोगनीपुर कहाती थी। मुहम्मद तुगलक के बाप गयासुद्दीन के समय का भी एक लेख यहीं पर मिला है। ऐसे ही सुरोर नामक ग्राम मे, जो जुकोही स्टेशन से १४ मील है, मुइनुद्दीन महमूद के समय का एक शिलालेख वि० सं० 1384 जेठ सुदी ११ का मिला है। यह भी एक सतीचौरा है।

मुहम्मद तुगलक के पश्चात्‌ वि० सं० 1407 से फीरोज तुगलक बादशाह हुआ । बि० सं० 1413 में सागर जिले के दुलचीपुर ग्राम मे एक सती हो गई थी। उसी के स्मारक पत्थर पर सुल्तान फीरोज शाह के राज्य का उल्लेख है। यह 90  वर्ष का होकर वि० सं० 1445 मे परलोक को सिधारा।  इसके मरने पर इसके नाती फतेहखाँ का लड़का गयासुद्दीन, और जफर खां  का लड़का अबूबकर बादशाह हुए, कितु मार डाले गए ।

इनके पश्चात्‌ नसीरुद्दीन महमूद वि० सं० 1447 मे बादशाह हुआ। इसके राज्य मे अराजकता सी फैल गई।  कहीं पर मुसलमान सूबेदार और कहीं हिंदू राजा स्वतंत्र बन बैठे। मालवा का सूबेदार दिलावर खाँ गोरी स्वतंत्र हो गया। इसने चंदेरी पर चढ़ाई की और बुदेलखंड का दक्षिणी और पश्चिमी भाग भी अपने अधीन कर लिया । इससे बुंदेलखंड के अधिकांश भाग पर दिल्ली का आाधिपत्य उठ गया। ग्वालियर में नरसिंहराय राजा बन बैठा। यह कटेहर का राजा था |

तुगलक घराने के शासकों के समय मे बुदेलखंड के पश्चिम का भाग, जो धसान नदी के पश्चिम मे है, पहले दिल्ली के शासकों के हाथ मे चला  गया था। इसके पश्चात्‌ सागर और दमोह के जिले भी इन्हीं के अधीन हो गए, परंतु अजयगढ़ और कालिंजर तथा इनके आस-पास का प्रदेश चंदेलों के ही हाथ मे रहा। जब मालवा का शासक दिलावर खां गोरी तुगलक वंश के बादशाह नसीरुदीन मुहम्मद के राजत्-काल मे दिल्ली के बादशाह से स्वतंत्र हो गया तब जो प्रदेश दिल्ली के अधिकार मे था बह सब मालवा के अधिकार में चला  गया ।

कालपी और महोबे का प्रांत पहले मालवा प्रांत में नही था। यहाँ पर दिल्ली की ओर से मुहम्मद खां  नाम का सूबेदार था ।  जब तुगलक वंश की शक्ति क्षीण हो गई तब यह मुहम्मद खां  स्वतंत्र बन बैठा ।  जौनपुर का शासक ख्वाजाजहाँ उर्फ शाह शर्की भी इसी प्रकार स्वतंत्र हो गया ।  

इसके मरने पर मालिक वासिल मुबारिक शाह और इसके पश्चात्‌ इबराहिमशाह राजा हुए। पर मालवा के शासक हुशंगशाह गोरी के सामने इसकी ( मुहम्मदखाँ ) एक भी न चली  और हुशंगशाह ने कालपी पर आक्ररण कर इसे ले लिया। इससे कालपी और इसके निकट का प्रांत भी मालवा के अधिकार में चला  गया ।

इसी गड़बड़ के समय वि० सं० 1455 में भारत पर तैमूर का आक्रमण हुआ ।  इस आक्रमण से गड़बड़ी और भी बढ़ गई। फिरोजशाह तुगलक के पश्चात्‌ का बादशाह महमूद ( दूसरा ) दक्षिण की ओर भाग गया और  तैमूर लूट मार करके वापस चला गया। इस समय सारे देश मे जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली कहावत ही सिद्ध हो रही थी । राज्य-व्यवस्था के नियमों को हिंदू लोग भूल गए थे और मुसलमान लोग उन्हें जानते ही न थे। एक के बाद दूसरी मुसलमानी सेना उत्तर भारत मे लूट- मार करने आती थी । पहले हिंदू शासक थे, इससे उनका राज्य लूटा जाता था। अब मुसलमानों का लूटा जाने लगा ।

चंगेज खां और तैमूर इन दोनों ने तो मुसलमानी राज्य ही लूटे थे, क्योंकि इस समय यहाँ कोई बड़ा हिंदू राज्य रह ही न गया था ।  अलवत्ता कालिंजर और अजयगढ़ में अब तक चंदेलों का ही राज्य चला  आ रहा था। इसके सिवाय ग्वालियर में 1488 में नरसिंहराय का लड़का ब्रह्मदेव राज्य करता था। इसके पूर्व नरसिंहराय कटेहर का राजा था। इसने भी तैमूर की चढ़ाई के समय ग्वालियर अपने अधिकार में कर लिया था, परंतु ग्वालियर मे प्राप्त शिलालेखों में बि० से० 1456 में बीरमदेव का नाम मिलता है। वीरमदेव के पश्चात्‌ उधरनदेव और धौलसाप के नाम मिलते हैं।

वीरमदेव संभवत: वीरसिंहदेव का लड़का है । इस पर मुल्लयकबाल खां  ने चढ़ाई की । तैमूर के जाने के बाद यह दिल्ली का बादशाह हो गया था और महमूद दूसरे के नाम से बादशाहत करता था । ग्वालियर का किला बहुत ही मजबूत था। इससे वह आस- पास के इला के को लूट-पाट कर दिल्ली चला  गया और  वहाँ से फिर सेना लेकर आया, पर अंत में हारकर वापस चला  गया ।

वि० सं० 1461 में ग्वालियर, झलवार और  श्रीनगर के राजाओं की सम्मिलित सेना ने मुल्लयकबाल खां  पर चढ़ाई की। पर ये  लोग इटावा के पास हार गए और एक बढ़ी सी रकम देकर इन्होंने अपना पिंड छुड़ाया। महमूद वि.  सं० 1464 में मरा । इसके मरने पर दौलत खां लोधी बादशाह बन गया। इसने कटेहर के राजा नरसिंह पर चढ़ाई की। इस समय नरसिंहराय आदि जमीदारों ने इसकी अधीनता स्वीकार कर ली । इसी संमय इबराहिम शाह शर्की ने कालपी के नवाब कादर खां पर चढ़ाई की । यह मुहम्मद खां का लड़का था।

दौलतखां के पास अधिक सेना न थी, इससे यह सेना लाने के लिये दिल्ली चला  गया। इस बीच खिजरखाँ सैयद ने अपनी पूर्ण तैयारी कर ली थी। इससे यह भी दिल्ली की ओर आया और इसने दौलत खां की वि० सं० 1473 में (4 जून सन 1416) कैद कर लिया। यह मुल्तान का सूबेदार था ।  

खिजरखाँ सैयद ने वि० सं० 1478 मे कोटले पर चढ़ाई की, यहाँ से वह ग्वालियर की ओर आया। यहाँ के राजा गनपतदेव से कर वसूल कर दिल्ली चला गया | वहाँ जा कर वह परलोक को सिधारा। इस वंश में सैयद मुबारिक, सैयद महमूद और सैयद अलाउद्दीन नाम के बादशाह हुए हैं। अंतिम बादशाह अलाउद्दीन को लाहोर के सूबेदार बहलोल लोधी ने वि० सं० 1508 में गद्दी से उतार दिया और उससे बादशाहत छीन ली ।

बहलोल लोधी ने जौनपुर के शासक से संधि कर ली, पर पीछे से उसने इसके इलाके पर धावा कर दिया। इस प्रकार कभी तो  जौनपुर का शासक दिल्ली पर चढ़ाई करता था और  कभी बहलोल उसके राज्य पर आक्रमण कर बैठता था। अंत  में वि० से० 1434 में हुसेनशाह शर्की ग्वालियर के  राजा कीर्तिसिंह के पास आाया। इससे जौनपुर के राजा की अच्छी सहायता की  । इसने उसे कई लाख रुपए, हाथी, घोड़े और  लड़ाई के सामान दिए तथा वह कालपी तक पहुँचाने के लिये भी आया।

इधर बहलोल लोधी भी हुसेनशाह शर्की के भाई इबराहिम शर्की से इटावा लेकर कालपी की ओर आया। यहाँ पर कटेहर के राजा राय त्रिलोकचंद ने बहलोल को नदी के एक ऐसे घाट से उतार दिया कि शाह शर्की को इसकी खबर तक न लगी । इससे बहलोल ने जौनपुर के शासक को हरा दिया। इस समय कालपी के समीप का बुंदेलखंड का भाग मालवा के अधिकार में न था, वरन्‌ जैानपुर के अधिकार में चला  गया था।

मालवा का अधिकांश भाग हुशंगशाह के अधिकार में था। यह दिलावर खां  का लड़का था । दिलावरखाँ पहले दिल्ली का सूबेदार था, पर बि० सं० 1454 में दिल्ली से स्वतंत्र हो गया। हुशंग शाह ने कालपी पर अधिकार कर लिया था, पर यह पीछे से जौनपुर के अधिकार मे और जौनपुर से बि० सं० 1435  मे बहलोल के अधिकार में चला गया। हुशंगशाह वि० सं० 1483 में मरा। इसके दो वर्ष बाद मालवा खिल्जियों के अधिकार मे चला गया।

इस वंश का पहला राजा महमूदशाह था। इसके लड़के का नाम गयासशाह ( गयासुद्दीन ) खिलजी था । इसके राज-काल का एक फारसी शिलालेख दमोह जिले के बटियागढ़ ग्राम में मिला है। उसमें लिखा है कि गयासशाह ने दमोह के किले की दीवार हिजरी सन्‌ 885 , अर्थात्‌ वि० सं० 1537, में बनवाई। यह वि० सं० 1532 में तख्त पर बैठा और  सं० 1557 तक राज्य करता रहा ।

उस समय के कई सतीचौरा में इसका नाम उत्कीर्ण है। गयासशाह के लड़के का नाम नासिरशाह ( नसीरुद्दीन ) था और  उसका लड़का महमूदशाह (दूसरा) था । इसके समय का भी एक शिलालेख दमोह मे मिला है। इसके मुसलमान सरदारों ने जब इसे तख्त से उतारना चाहा तब मेदिनीराय ने इसकी बड़ी सहायता की, पर पीछे से इसने उन्हीं सरदारों के कहने से मेदिनीराय पर घात लगाया। इससे वह साथ छोड़कर चला गया। पीछे से गुजरात के बहादुरशाह ने इसे तख्त से उतारकर मरवा डाला और मालवा को गुजरात में मिला लिया । इस तरह बि० सं० 1481 मे खिलजी घराने से मालवा प्रदेश निकल गया |

फीरोज तुगलग ने फर्हतुल्मुल्क को गुजरात का सूबेदार बनाया था, पर वह नसीरुद्दीन महमूद तुगलक के समय बागी हो गया, इससे मुजफ्फर खां  सूवेदार नियुक्त किया गया, परन्तु यह तैमूर लंग की चढ़ाई के समय स्वतंत्र  हो गया। इसके 130 वर्ष बाद बहादुरशाह तख्त पर बैठा। इसने वि० सं० 1441 में मालवा पर चढ़ाई की और उसे अपने राज्य में मिला लिया। इस समय राय सिन में लोकमानसिंह राज्य करता था।

इसके भाई का नाम सिलहदी ( शिलादित्य ) और भतीजे का नाम भूपत था। जिस समय बहादुरशाह ने रायसिन पर चढ़ाई की उस समय शिलादित्य की रानी दुर्गावती (यह चित्तौड के राना साँगा की कन्या थी ) सात सौ स्त्रियों  सहित चिता में जल मरी और राजा लोकमानसिंह भी अपने अन्य राजपूतों के साथ हार गये । बहादुरशाह ने कालपी के सूबेदार आलमखों को रायसेन, मिलसा और  चंदेरी का भी सूबेदार बना दिया। यह बहादुरशाह के साथ आया था।

सैयद अलाउद्दीन के समय बहलोल लोधी सरहिंद का सूबेदार था। जब राज्य-व्यवस्था बिगड़ गई और बादशाहत की अवनति होने लगी तब हमीद खां  वजीर ने बहलोल को सरहिंद से बुलाया। यह आाते ही गद्दी पर बैठा ।  इसके 9 लड़के  थे । अपनी वृद्धावस्था के समय इसने अपनी रियासत अपने पुत्रों में बांट दी। बारबिक को जौनपुर, कड़ा और मानिकपुर, आलम खां  को बहराइच, अपने भतीजे शेखजादा मुहम्मद को लखनऊ और कालपी, आजम हुमायूँ ( वयाजीद का लड़का ) और शाहजादा निजामा खां  को दुआब के कई जिले दे दिए और  इसी को अपना उत्तराधिकारी बनाया।

बहलोल ने अपने लड़के बारविक को जौनपुर दिया था। पर उस समय यहाँ पर हुसेनशाह शर्की राजा था। इसकी परवरिश के वास्ते सिर्फ ५ लाख रुपए सालाना आमदनी का इलाका हमेशा के वास्ते दे दिया गया । यहाँ से बहलोल कालपी की ओर आया। इसे अपने अधिकार में करके अजीम हुमायूँ को  दे दिया। पीछे से इसने ग्वालियर पर भी चढ़ाई की पर राजा से बहुत सा रुपया नजराना लेकर वह चला गया। इस समय राजा मानसिह तेमर ग्वालियर मे राज्य करता था ।

बहलोल के मरने पर सिकंदर बादशाह हुआ । इसने अपने भतीजे अजीम हुमायूँ से कालपी ले ली और उसे मुम्मद खां  लोधी को दे दिया ।  यहाँ से यह ग्वालियर की ओर वि० सं० 1547 में आया। इस समय भी मानसिंह तोमर का राज्य था। इससे वि० सं० 1558 में धौलपुर  के विनायकदेव पर चढ़ाई की, पर राजा भागकर ग्वालियर चला आया ।

इससे सिकंदर ने ग्वालियर पर दुबारा चढ़ाई की। अंत  में राजा ने संधि कर ली और  राजा विनायक देव को धौलपुर दे दिया गया । इसके पॉच लड़के थे । इबराहीम और  जल्लाल खाँ में बहलोल मरने पर गद्दी के लिये झगड़े हुए। इस समय अजीम हुमायूँ कालिंजर जीतने में लगा हुआ था।

जलालाखां ने अपने लड़के-बच्चों को कालपी के किले मे रख दिया और खुद जौनपुर का राजा है गया। वि० सं० 1575 में इबराहीम ने इसे परास्त करने के लिये सेना भेजी, पर यह ग्वालियर की ओर भाग गया। इस समय यहाँ पर सानसिंह का लड़का विक्रमाजीत राज्य करता था । शाही सेना से सामना होने पर राजा की हार हो गई।

जलालखां गढ़ाकोटा जा रहा  था, पर रास्ते में गोंड़ों ने पकड़कर इसे बादशाह के पास भेज दिया। वहाँ यह मरवा डाला गया। इसके पश्चात्‌ इसने अजीम हुमायूं शेरवानी को , जो गवालियर की चढ़ाई में भेजा गया था, वापस बुलाकर मरवा डाला। इस प्रकार उसने अफसरों को  तंग कर डाला। अंत  मे दौलत खां  ने बाबर बादशाह को इससे लड़ने का बुलवाया ।

बाबर ने वि० सं० 1483 में इबराहीम लोधी को पानीपत के मैदान में हराकर दिल्ली पर अपना अधिकार कर लिया परंतु चित्तौड़ के राजा राना साँगा को दिल्ली की बादशाहत पर बाबर का अधिकार हो जाना अच्छा नही लगा। इससे इसने एक बड़ी राजपूत सेना साथ लेकर बाबर पर चढ़ाई कर दी। पर राजपूत हार गए। यह युद्ध भी इसी साल हुआ । इस युद्ध में ग्वालियर के राजा विक्रमाजीत, रायसेन के शिलादित्य, चंदेरी के मेदिनीराय और  गागरोन तथा कालपी के राजा भी गए थे। कहते हैं कि शिलादिय राणा से विश्वासधात कर बाबर से मिल गया था। यह राना की सेना को हरवा रहा था।

बाबर ने वि० सं० 1487 मे चंदेरी के राजा मेदिनीराय पर चढ़ाई की । राजा ने जौहर ब्रत किया। इससे सूना किला और  टूटी-फूटी मसजिदें ही बाबर के हाथ लगीं। यही हाल रायसेन, सारंगपुर और मिलसे का भी हुआ। अंत में यह मालवा का राज्य अहमदशाह को देकर ग्वालियर चला  आया । यहाँ पर उसने किला, मानसिंह के बनवाए महल और बगीचा देखा । इसके बाद उसने शमसुद्दीन अलतमश की बनवाई, पर बे-मरम्मत टूटी-फूटी, मसजिदें देखी और  यही पर नमाज पढ़ी ।

मुसलमान शासकों ने हिंदुओं को जबरदस्ती मुसलमान बनाना आरंभ कर दिया था, परंतु बुंदेलखंड मे इसका अधिक जोर न रहा। ब्राह्मणों ने हिंदू समाज को मुसलमानों के संसर्ग से बचाने के लिये बड़े बड़े नियम बनाए । कबीर, रामानंद, नानक और चेतन्य इत्यादि धर्मगुरु इसी समय हुए। कविवर विद्यापति ठाकुर और चंडीदास भी इसी काल के हैं। पठानों का सब शासन बादशाह के ही हाथ में रहता था। उसके सामने किसी भी मंत्री की कुछ नही  चलती थी। वह सदा अपने इच्छानुसार ही कार्य किया करता था ।

दतिया – अंग्रेजों से संधि 

संदर्भ – आधार –
बुन्देलखण्ड का संक्षिप्त इतिहास – गोरेलाल तिवारी

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