Bundelkhand Ki Pangat बुंदेलखंड की पंगत : अनोखी भोजन व्यवस्था

Bundelkhand Ki Pangat बुंदेलखंड की पंगत

बुन्देली संस्कृति की अनोखी भोजन व्यवस्था है Bundelkhand Ki Pangat । पंगत के कारण भी हम बुन्देली संस्कृति पर गर्व करते हैं। बुंदेलखंड में पंगत की प्रथा अनादिकाल से आज तक जारी है। पंगत की प्रथा बुंदेलखंडी समाज की दैवीय भोजन व्यवस्था भी है। हमारे पूर्वजों द्वारा बनाई हुई व्यवस्था को परंपरागत स्वरूप देते हुए सबसे पहले जिस चूल्हे पर पंगत का भोजन तैयार होता है उसकी अर्चना पूजा होती है। और जो भी पहला भोजन बनता है उसे अग्नि को समर्पित किया जाता है।

बुंदेलखंड और बुंदेली संस्कृति दुनिया में अपनी अनोखी पहचान और अस्तित्व बनाए हुए है। बुंदेली संस्कृति, भारतीय संस्कृति की विशिष्ट शाखा के रूप में पल्लवित – पुष्पित हुई है। बुंदेली संस्कृति अपने अनोखे खान – पान, रहन – सहन, बोल – चाल, लेखन – पाठन, खेती – बाड़ी और पर्व – त्यौहार आदि के कारण विशेष स्थान बनाए हुए अनवरत चली आ रही है। बुंदेलखंड विशेषकर गाँव – देहातों में बसा है इसलिए हम इसकी देहातीपन से परिपूर्ण संस्कृति को ही मानक बुंदेली संस्कृति मानते हैं।

आज के दौर में भी बुंदेलखंड के सारे गॉंवों और कुछ कस्बाई नगरों में भी विवाह  – शादी समारोह हो, मृत्युभोज तेरईं – गियारईं का कार्यक्रम हो, जन्मदिन पार्टी या फिर कोई भी कार्यक्रम हो तो मेहमान, नाते – रिश्तेदार, अड़ोसी – पड़ोसी, घर – परिवार वाले एक साथ पंगत में बैठकर भोजन करते हैं।

हम अपने बचपन से लेकर अब तक देखते आ रहे हैं कि जब हम किसी शादी में जाते हैं या अपने घर – परिवार में कोई कार्यक्रम होता है तो पंगत के लिए भोजन पकाने के लिए एक मिठया या हलवाई होता है और उसके संगे एक – दो आदमी और होते हैं उसकी सहायता के लिए।

भोजन पकाने के अलावा बाकी के सारे काम जैसे – लुचईं / पूड़ी बेलना, सब्जी – तिरकाई और सलाद काटना आदि काम घर की, रिश्तेदारी और गांव –  मुहल्ला की महिलाएँ ही करतीं हैं।  आटा गूँथने का काम घर के, रिश्तेदारी या गांव – मुहल्ले के पुरूष करते हैं। पंगत में भोजन परोसने का काम भी मिलजुल कर गाँव – मुहल्ले, रिश्तेदारी और घर के आदमी करते हैं।

बुंदेलखंड के गाँव – देहातों में पंगत की प्रथा आज भी इसलिए जीवंत रूप में प्रचलन में है क्योंकि ग्रामीण बुंदेलखंडी अपनी संस्कृति का वहन कर रहे हैं और उन लोगों का पहनावा आज भी पारम्परिक धोती – कुर्ता, कुर्ता – पजामा और सादा पैंट – शर्ट है। महिलाएं साड़ी और लड़कियाँ कुर्ता – सलवार, फ्रॉक – सूट पहन रही हैं।

बुंदेलखंड की पंगत में अमीर – गरीब, किसान – मजदूर, मेहमान – घरवाले  भोजन हमेशा जमीन पर बैठकर ही करते हैं लेकिन अब आधुनिक चलन के चलते तखत – कुर्सी पर बैठकर भोजन करने का भी रिवाज चल रहा है।  बुंदेलखंडी समाज में युवा पीढ़ी आधुनिक हो गई है लेकिन बाप – दादा की पीढ़ी आज भी धार्मिक और रूढ़िवादी होने के कारण समाज में जातिगत भेदभाव मानती है और गिनी – चुनी नीची जाति के लोगों को पंगत में अलग बैठाकर भोजन कराने का भी रिवाज चलाती है।

बुन्देलखण्ड की पंगतों की बात ही कुछ और है!!! पहले जगह रोकने की जुगाड़ ढूँढी जाती थी और फिर होता था बिना फटे पत्तल दोनों का सिलेक्शन!  उसके बाद सारी मशक़्क़त होती थीं पत्तल पे ग्लास रखकर उड़ने से रोकना! नमक रखने वाले दद्दु को जगह बताना पड़तीं थी कि “यहां रख नमक” और सब्जी देने वाले को गाइड करना पड़ता था कि भैया हिला के दे या तरी तरी देना!

पंगत  में हर्षोल्लास के साथ-साथ अनुशासन बहुत मायने रखता है सभी पत्तलों  में जब पूरी तरह से खाना परोस दिया जाता है तो सभी इंतजार करते हैं फिर एक व्यक्ति आकर सबसे निवेदन करेगा भैया शुरू होने दो…. जय लक्ष्मी नारायण की…. लगाव भोग …।

लोक विज्ञान Ethnoscience / नृवंशविज्ञान
बुंदेलखंड की पंगत इसलिए दुनियाभर के लिए महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इसमें जमीन पर एक संगे बैठकर भोजन करने की व्यवस्था है। जमीन से ज्यादा पवित्र और शुद्ध जगह कोई और नहीं हो सकती। जमीन पर भोजन करने के लिए जब पंगत में बैठते हैं तो एक आसन (चटाई, सुखासन, सिद्धासन) पर बैठते हैं। जिससे शरीर हो कई लाभ मिलते हैं, भोजन भी आसानी से जल्दी पच जाता है।

पालथी मारकर यानी पैर मोड़कर बैठने से शरीर फुर्तीला, मजबूत और लचीला भी रहता है। शरीर में रक्त का प्रवाह भी समस्त अंगों में बेहतर तरीके से होता है। गठिया रोग और जोड़ों में दर्द की परेशानी भी नहीं आती है। शरीर का रूप और आकार भी ठीक रहता है। वजन को नियंत्रित रहता है जिससे मोटापे की समस्या भी नहीं आती है।

हम जब पंगत में एक साथ बैठकर खाते – पीते हैं तो आपसी मेलजोल भी बढ़ता है और पारस्परिक द्वेष भावना मिट जाती है। अपनों को अपनों के द्वारा जब भोजन परस के खिलाया जाता है तो लाड़ – प्यार बढ़ता ही नहीं बल्कि खाना में भी प्यार झलकता है।

बुंदेलखंड की पंगत प्रकृति और पर्यावरण के अनुकूल भी है क्योंकि इससे पत्तों से बने दौना और पत्तल में खाना खाया जाता था लेकिन आधुनिक बाजारवाद के चलते प्लास्टिक के दौने और पत्तलें चलन में आ गईं हैं, जो प्रदूषण का कारण भी हैं। हमें अपनी पुरानी पंगत प्रथा की ओर लौटना ही होगा जो प्रकृति, पर्यावरण और  समाज – संस्कृति के अनुकूल भी है और हम सब की विरासत भी है इसलिए हमें अपनी विरासत – पंगत को बचाकर रखना है और अपनी अनोखी पहचान बनाए रखनी है।

लोक विज्ञान की अवधारणा 

आलेख – कुशराज झाँसी
(युवा बुंदेलखंडी लेखक, सामाजिक कार्यकर्त्ता)

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