कार्तिक मास शुक्ल पक्ष नवमी को अक्षय नवमी/आंवला नवमी/धात्री नवमी कहते हैं। इसे आंवला नवमी विशेष नाम से भी जाना जाता है। Amla Navmi-Akshaya Navami तिथि का महत्व और भी अधिक है। पुराणों के आधार पर , त्रेता युग का आरंभ इसी दिन से हुआ था। इस दिन आंवले के वृक्ष की पूजा करने की भी मान्यता है और यह मान्यता वैज्ञानिक आधार पर आधारित है । अक्षय का अर्थ है, जिसका क्षरण न हो that does not erode।
अक्षय नवमी के दिन क्यों करते हैं आंवले के वृक्ष की पूजा?
ऐसा माना जाता है कि इस दिन किए गए अच्छे कार्यों का फल अक्षय रहता है does not erode. यह मान्यता है कि इसी दिन भगवान श्रीकृष्ण ने कंस के विरुद्ध मथुरा वृंदावन में घूमकर जनमत तैयार किया था। इसलिए अक्षय नवमी पर मथुरा-वृंदावन की परिक्रमा करने का भी प्रचलन है। अगले दिन दशमी को कृष्ण ने अत्याचारी कंस का वध कर दिया था। अत: यह पर्व सत्य की जीत का संदेश देता है। सत्य ही अक्षय है। अत: सर्वदा सत्य का ही वरण करना चाहिए।
आंवला नवमी / अक्षय नवमी वैज्ञानिक आधार विटामिन सी की पूजा
भारतीय संस्कृति और सनातन परंपरा में जीवन का आधार के विषय मे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की बात कही गयी है। इसमें भी धर्म को अर्थ यानी धन के ऊपर वरीयता दी गयी है। इस लिये दीपावली पर धन की देवी महालक्ष्मी की पूजा-अर्चना से दो दिन पहले धनतेरस पर आयुर्वेद के प्रवर्तक भगवान धन्वंतरि की पूजा-आराधना कर उनसे स्वास्थ्य की रक्षा और आरोग्य का वरदान मांगा जाता है।
हमारे स्वास्थ्य की रक्षा में रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने वाले विटामिन सी की सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका होती है और वैद्यों के अनुसार विटामिन सी का सबसे बड़ा स्रोत आंवला है। शायद इसीलिए हमारे पूर्वजों ने चटनी, अचार, मुरब्बा समेत अनेक रूपों में आंवला के सेवन को अपने दैनिक भोजन में शामिल किया है ।
बतौर औषधि इसका उपयोग च्यवनप्राश के रूप में तो प्रयोग किया ही जाता है। हमारे जीवन की रक्षा में आंवले की महत्वपूर्ण भूमिका को देखते हुए ही सनातन परम्परा में आंवला को देवता स्वरूप मानकर उसके प्रति कृतज्ञता का भाव प्रकट करने के लिए एक दिन निर्धारित कर दिया गया है।
धनतेरस के ठीक ग्यारह दिन बाद कार्तिक शुक्ल नवमी को आंवला नवमी कहा जाता है। इस दिन आंवला के वृक्ष की पूजा-अर्चना की जाती है। महिलाएं आंवला के वृक्ष की पूजा-अर्चना करने के साथ ही उसमें कच्चा सूत लपेटकर श्रद्धाभाव व्यक्त करती हैं। आंवले का दान भी किया जाता है।
बुन्देलखंड सहित उत्तर भारत के कई प्रदेशों में इस दिन आंवला के वृक्ष के नीचे भोजन पकाकर परिवारजनों एवं अन्य लोगो को आमंत्रित करके उनके साथ भोजन करने का भी चलन है। आयुर्वेद विशेषज्ञों का भी कहना है कि किसी न किसी रूप में नित्य प्रति आंवला का सेवन करने से स्वास्थ्य अक्षुण्ण और काया निरोग रहती है।
आंवला नवमी / अक्षय नवमी कथा
Amla Navmi-Akshaya Navami से सम्बंधित एक कथा प्रचलित है कि दक्षिण में स्थित विष्णुकांची राज्य के राजा महाराज जयसेन के इकलौते पुत्र मुकुंद देव एक बार जंगल में शिकार खेलने गए हुये थे । तभी उनकी नजर एक व्यापारी कनकाधिप की व्यापारी की पुत्री पर पड़ी जो अत्यंत सुंदर ही मानो ऐसा प्रतीत हो रहा था की स्वर्ग की अप्सरा पृथ्वी पर आ गई हो । मुकुंद देव उस कन्या के सौंदर्य पास में बनते चले गए, उसकी सुंदरता पर मोहित होकर उससे विवाह करने की इच्छा व्यक्त की।
बड़े आत्मविश्वास के साथ उस कन्या नहीं मुकुल देव से की मेरे भाग्य में पति का सुख नहीं लिखा है। हमारे राज्य ज्योतिषी ने मेरे विवाह के विषय में भविष्यवाणी की है कि जिस दिन मेरा विवाह होगा उस समय मंडप पर बिजली गिरेगी और मेरा वर की उसी समय मृत्यु हो जायेगी।
सुंदरी कन्या के सौंदर्य पास मे बंधे राजकुमार मुकुंद देव अपने प्रस्ताव पर अडिग रहे। राजकुमार मुकुंद देव अपने आराध्य देव सूर्य और सुन्दरी कन्या ने अपने आराध्य देव भगवान शिव की आराधना करने लगे । भगवान शिव ने सुंदरी कन्या को सूर्य की आराधना करने के लिये कहा।
भगवान शिव का आदेश पाकर सुंदरी कन्या गंगा तट पर सूर्य आराधना करने लगी। तभी वहां पर विलोपी नामक राक्षस सुंदरी कन्या पर झपटा तभी सूर्य देव ने उसे तुरंत भस्म कर दिया। सूर्य देव ने प्रसन्न हो कर सुंदरी कन्या से कहा कि मेरा आशिर्वाद तुम्हारे साथ है, तुम कार्तिक शुक्ल नवमी को आंवले के पेड़ के नीचे विवाह मंडप बनाकर राजकुमर मुकुंद देव से विवाह कर सकती हो।
सुंदरी कन्या ने जब यह बात राजकुमार मुकुंद देव को बताई तो दोनों ने मिलकर आंवले के पेड़ के नीचे मंडप बनाया और विवाह की तैयारी शुरू कर दी। तभी अचानक देखते ही देखते बादल भी रहा है बिजली चमकने लगी लेकिन सुंदरी कन्या को अपने इष्ट देव पर पूरा विश्वास था। इसी बीच विवाह की रस्में शुरू कर दी गईं तभी मंडप पर बिजली गिरने लगी लेकिन आंवले के पेड़ ने उसे रोक लिया।
जनमानस ने इस कहानी के आधार पर आंवले के पेड़ की पूजा शुरू कर दी। आंवले का पेड़ औषधीय गुणों से परिपूर्ण होता है। आयुर्वेद में इसके अनेक गुण बताए गए हैं। इसलिए इसकी पूजा का तात्पर्य प्रकृति, औषधीयों एवं वनस्पतियों का संरक्षण व संवर्धन करना भी है।
आंवला अष्टमी कथा
एक राजा था, उसका प्रण था वह रोज सवा मन सोने के आंवले दान करके ही खाना खाता था। इससे उसका नाम आंवलया राजा पड़ गया। एक दिन उसके बेटे बहू ने सोचा कि राजा इतने सारे आंवले रोजाना दान करते हैं, इस प्रकार तो कुछ ही दिनों मे सारा खजाना खाली हो जायेगा। इसी लिए बेटे ने राजा से कहा कि उन्हे इस तरह दान करना बंद कर देना चाहिए।
बेटे की बात सुनकर महाराज को आघात सा लगा कि उनकी प्रतिज्ञा का क्या होगा ? उन्हे बहुत दुःख हुआ और राजा रानी रात मे महल छोड़कर जंगल की ओर चल दिये । रात किसी तरह से गुजरी सुबह हुआ वे नदी के किनारे इतना ध्यान करके बैठ गए पर राजा-रानी आंवला दान नहीं कर पाए और प्रण के कारण कुछ खाया नहीं। जब भूखे प्यासे सात दिन हो गए तब भगवान ने सोचा कि यदि मैने इसकी प्रतिज्ञा का ख्याल ना रखा इनका सत्य से विश्वास चला जाएगा।
इसलिए भगवान ने उस बियावान जंगल में ही महल, राज्य और बाग-बगीचे सब बना दिए और हज़ारों आंवले के पेड़ लगा दिए। सुबह राजा रानी उठे तो आश्चर्यचकित हो गए जंगल में उनके राज्य से भी दुगना राज्य बसा हुआ है। यह चमत्कार देख ईश्वर को धन्यवाद किया।
महाराज, रानी से कहने लगे चलिये महारानी नहा धोकर ईश्वर की प्रार्थना करते आंवले दान करें और फिर भोजन प्रसादी करें। राजा-रानी ने आंवले दान करके खाना खाया और खुशी-खुशी जंगल में रहने लगे। उधर प्राकृतिक संपदा आंवला देवता का अपमान करने एवं अपने माता-पिता से बुरा व्यवहार करने के कारण राजा के बेटे-बहू के बुरे दिन आ गए।
उनका राज्य दुश्मनों ने हमला करके उनसे राज्य छीन लिया, वे भूखे- प्यासे एक –एक दाने को मोहताज हो गए और काम ढूंढते हुए वे वहीं अपने पिताजी के राज्य में आ पहुंचे।
राजा के पुत्र और बहू की हालत इतनी खराब थी कि महाराज ने उन्हेउनके हालात बिना पहचाने हुए काम पर रख लिया। बेटे और बहू सोच भी नहीं सकते कि उनके माता-पिता इतने बड़े राज्य के महाराज भी हो सकते है। समय का फेर उन्होंने भी अपने माता-पिता को भी नहीं पहचाना।
एक दिन बहू ने रानी माता के बाल गूंथते समय उनकी पीठ पर एक मस्सा देखा। उसे याद आया और वो रोने लगी की ऐसा ही मस्सा उसकी महारानी सास के भी था। हमने ये सोचकर उन्हें आंवले दान करने से रोका था कि हमारा धन धीरे-धीरे नष्ट हो जाएगा। आज वे लोग पता नही कहां होगे ? यह सोचकर बहू को रोना आने लगा और उसके आंसू टपक कर रानी माता की पीठ पर गिरने लगे। रानी ने तुरंत पलट कर देखा और उससे रोने का कारण पूछा ?
उसने बताया आपकी पीठ जैसा मस्सा मेरी महारानी सास की पीठ पर भी था। हमने उन्हें आंवले दान करने से मना कर दिया था इसलिए वे घर छोड़कर कहीं चले गए। तब महारानी ने उन्हें पहचान लिया। उनका हाल-चाल पूछा । फिर महारानी ने अपने बेटे-बहू को समझाया कि दान करने से धन कम नहीं होता बल्कि बढ़ता है।
इसके बाद बेटे-बहू भी अब सुख पूर्वक राजा-रानी के साथ उसी राज्य मे रहने लगे। कहाँनी का आशय यही है …. हे भगवान, जैसा राजा रानी के सत्य की लाज रखी वैसे ही सबके सत्य की लाज रखना।