बधाया लाने या बुलौआ करवाने पर यह लोकनृत्य सामूहिक रूप में स्त्रियाँ करती हैं। ढपले और नगड़िया के स्वरों पर स्त्रियों का एकल या सामूहिक नृत्य सहजता और उन्मुक्तता की चरम सीमा में होता है। लहँगा और नुगरो पहने तथा पीली-सी ओढ़नी ओढ़े नचनारी स्त्रियाँ हाथ की अंगुलियों के जादू से दिखनारू मन को मोहने में कुशल हैं। पद-चालन की गतों और अंगुलियों के मौन नर्तन में गजब का तारतम्य रहता है, जो इन लोकनृत्यों का प्राण है।
इस नृत्य में ’बाजी बधइयाँ अवधपुर में‘ गीत अधिक प्रचलित है। वाद्यों की लय द्रुत और अति द्रुत होने पर लोकगीत के बोल और नर्तकी या नर्तकियों के चरण उसी गति से संगत करते है। कभी-कभी लोकगीत के बोल थककर चुप हो जाते हैं, पर गीत की लय पर वाद्य बजते रहते हैं और नृत्य होता रहता है।
चंदेल-काल में दीपावली और होली के त्यौहार मनाये जाते थे। त्यौहार आनन्द भरे लोकोत्सव हैं, इसलिए उनमें लोक नृत्यों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। जैसा कि त्यौहार होता है, वैसा ही लोकनृत्य उसमें उपयुक्त बैठता है। त्यौहारों में कोई जातिगत, वर्गगत और सम्प्रदायगत भेदभाव नहीं होता, तो लोकनृत्यों में भी किसी पूर्वाग्रह का कोई प्रश्न नहीं उठता। वे हर पक्षपात से मुक्त होते हैं।
त्यौहारों का आनन्द उद्देश्यपूर्ण हुआ करता है और किसी-न-किसी आदर्श से उसका जुड़ा होना निश्चित रहता है। इस दृष्टि से लोकनृत्य में भी वही लोकादर्श प्रतिबिम्बत होता है।
संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल