Mauniyan/Baredi-Bundelkhand Ka Lok Nritya मौनियाँ/बरेदी-बुन्देलखण्ड का लोक नृत्य

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Mauniyan/Baredi-Bundelkhand Ka Lok Nritya मौनियाँ / बरेदी - बुन्देलखण्ड का लोक नृत्य
Mauniyan/Baredi-Bundelkhand Ka Lok Nritya मौनियाँ / बरेदी - बुन्देलखण्ड का लोक नृत्य

मौनियाँ नृत्य को ही अहीर या बरेदी या दिवारी नृत्य कहते हैं। अन्तर यह है कि मौनियाँ से किसी अनुष्ठान का, दिवारी से त्यौहारी का संकेत मिलता है, जबकि अहीर या बरेदी से जाति और व्यवसाय का बोध होता है। इस प्रकार यह नृत्य अनुष्ठान, व्यवसाय और त्यौहार की संवेदनाओं का प्रतिनिधित्व करता है।

मौनियाँ नृत्य पुरुषप्रधान समूह नृत्य है, जिसमें कम से कम 4-5 और सब मिलाकर 10-15 से कम की मण्डली नहीं होती और उसमें 8-10 वर्ष के आयु-समूह से लेकर 55-60 वर्ष तक की आयु के वृद्ध सम्मिलित रहते हैं। वे पहले दिवाली के दूसरे दिन से कार्तिक पूर्णिमा तक नृत्य करते थे, पर अब दिनों की संख्या बहुत कम हो गयी है।

दिवारी के दूसरे दिन बड़ी भोर गाँव के ग्वाले, अहीर, गड़रिये, यादव आदि पशुपालक तालाब या नदी में स्नान करते हैं और अपनी परम्परित पोशाक पहनते हैं। मौन व्रत धारण करनेवाले मौनियाँ कहलाते हैं। सफेद चमकीली कौंड़ियों से गुँथे लाल रंग के लाँगिये (जाँघिये) और उनपर छोटी-छोटी घंटिकाओं से जड़ी झूमर कटि पर शोभित हो लांगझूमर नाम से प्रसिद्ध, दोनों नर्तकों की पहचान निश्चित करते हैं।

स्वस्थ गठे हुए वक्षस्थल पर लाल रंग की कुर्ती या सलूका एक निराला पौरुष खड़ा कर देते हैं। झूमर पर बँधती है गलगला (बड़े घुँघरुओं की दो पंक्तियाँ), जो पाँव के घुँघरुओं के नारीत्व पर हँसने के लिए हर समय आतुर रहती हैं, लेकिन वस्त्रों के किनारों से लटकते फुंदने बार-बार सिर हिलाकर उन्हें मना करते हैं।

हाथों में मोरपंखों के मूठों की ’ढाल‘ और दो डण्डों का ’शस्त्र‘ लेकर जब वे मौन धारण कर लेते हैं, तब भले ही लोग उन्हें मौनियाँ कहें, पर वे वीरता के साक्षात अवतार लगते हैं। मौनियाँ के साथ घुटनों तक धोती एवं वक्ष पर ढीला कुर्ता और बण्डी पहने तथा सिर पर पगड़ी या साफा बाँधे कई लोकगायक दिवारी गीत गाने का संकल्प किये तैयार रहते हैं।

तीसरा दल होता है लोकवादकों का, परम्परित लोकगायकी में प्रयुक्त ढोल, नगड़िया और झाँझ वाद्य प्रमुख रहते हैं और रमतूला तो चेतावनी की घण्टी है। दूसरे क्षेत्रों में मृदंग, टिमकी, कसावरी, मंजीर, ढोलक, बाँसुरी आदि में से अपनी रुचि के अनुसार चुनकर प्रयुक्त कर लेते हैं। पहले जब ढोल का धौंसा पाँच-छः नगड़ियों के साथ रमतूला की भैरवी पर गरजता था, तब श्रोता दर्शकों के नग-नग फड़क उठते थे

अरे ढोल के ओ बजवैया, तोरें न आयी ओंठन रेख रे,
एक बजौरी ऐसी बजा दे, मोरी नग नग फरकै देह रे…..

गाँव के ग्योंड़े में बाँस की लाठी के सिरे पर तुलसी जैसे बोबई पौधे की शाखें बाँध दी जाती हैं, जिसे छ्याँवर बाँधना कहते हैं। छ्ँयावर बँधने पर दिवारी नृत्य शुरू होता है और 12 गाँवों की मेंड़ें लाँधने के बाद गाय के नीचे से निकलने पर खत्म होता है।

गायक द्वारा दिवारी गीत गाये जाने के बीच पहली पंक्ति की यति पर ढोला का धौंसा घोष करता है, परन्तु दूसरी पंक्ति के अंत में गायक के साथ नर्तकदल का सामूहिक स्वर कुछ क्षणों तक तार सप्तक की ऊँचाई पर खड़ा रहता है और तभी वाद्य बज उठते हैं तथा नर्तक हाथ में लाठी या डण्डे लेकर उचकने लगते हैं।

धीरे-धीरे वे एक घेरा बना लेते हैं और फिर कई तरह से नृत्य करते हैं। इस नृत्य के तीन रूप हैं। पहला है कि मौनियाँ हाथों में केवल मोरपंखों के मूठे लेकर गोलाकार घेरे में वाद्यध्वनि के अनुरूप नृत्य करते हैं। आरम्भ में गति मंद होती है और अंग-संचालन मंथर, लेकिन तीव्र गति होने पर कला की उत्कृष्टता दिखने लगती है।

हाथों और जंघाओं की नस-नस थिरक उठती है और कौंड़ियों की खनक एवं फुँदनों की हिलन से संयुक्त होकर इतनी ऊर्जस्वित हो जाती है कि ओजस्वी पौरुष झलकने लगता है फिर धीरे-धीरे गति धीमी पड़कर नृत्य को विराम देती है।

दूसरा रूप है डण्डा नृत्य या चाँचर का, जो मौनियों के द्वारा सम्पन्न होता है। हर नर्तक नृत्य करते हुए अपने दोनों डण्डों से अगल-बगल, सामने-पीछे के साथियों को अपने कौशल का प्रदर्शन करते हुए उनके डण्डों पर चोट करता है, तब उसकी कला निखर उठती है। तीसरा है लाठी नृत्य, जो गाँवों में अधिक प्रचलित है और दाँव-पेंच की कुशलता के साथ-साथ व्यायाम की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। आक्रमण करने या आक्रमण से रक्षा के सभी तरीके इस नृत्य के अंग हैं।

दरअसल, दिवारी या बरेदी नृत्य उद्धत नृत्य हैं। घुँघरुओं और घंटिकाओं के स्वराघात से महीन और उलझे पदक्षेप भले ही कभी-कभी कलाप्रेमियों को भ्रम में डालें, लेकिन कुल मिलाकर यह नृत्य ओजस्वी और पौरुषेय है। नृत्य की ताण्डवी भंगिमा सभी भारतीय लोकनृत्यों से निराली है।

एक विशेषता यह भी है कि यह नृत्य पड़ोस के बारह गाँवों से एक गाँव के जुड़ाव का माध्यम है। इसी तरह हर गाँव सामाजिक और राष्ट्रीय एकता के लिए आनुष्ठानिक संकल्प से काम करता है और उसकी यह भूमिका देश की सेवा का सजीव उदाहरण है।

बुन्देलखण्ड की लोक नृत्य कला 

संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल