Homeबुन्देलखण्ड का सहित्यThakur Harnarayan Singh ‘Yar’ Ki Rachnayen ठाकुर हरनारायन सिंह ‘यार’ की रचनाएं

Thakur Harnarayan Singh ‘Yar’ Ki Rachnayen ठाकुर हरनारायन सिंह ‘यार’ की रचनाएं

प्रकृति के सुरम्य परिवेश में स्थित अजयगढ़ जिला पन्ना में ठाकुर हरनारायन सिंह ‘यार’ का जन्म आश्विन विजयादशमी सम्वत् 1973 ( सन 1916) को हुआ था। इनके पिता का नाम श्री बृजलाल सिंह एवं माता का नाम श्रीमती रामदुलारी बाई था। माताजी भक्ति भावना से ओत-प्रोत हो रामचरित मानस का सदैव भाव विभोर होकर पाठ करती थीं, जिससे इसका प्रभाव श्री हरनारायण सिंहयार’ पर बाल्यकाल से ही पड़ा।

कवित्त

मोर और पपीहा चिचयाबें बरसावें जल,
गुस्सा सी चढ़त ‘यार’ इनकी ई बोली पै।

बरसै जब पानी, छानी छप्पर चुचवानी सब,
कुरता तक भींज गओ टपका चुओ चोली पै।।

टपरा के खपरा हैं ऊपर गिरे घुर-घुरके,
नौंनौ ना लगो मोय दइ की ठिठोली पै।

कूरा मकरजारौ सब ऊपर गिरो कारौ-कारौ,
होरी सी खेल गओ मोरी खटोली पै।।

कवि यार कहते हैं कि मोर व पपीहा चिचिया कर (बुरी तरह आवाज कर) रहे हैं और जल बरस रहा है, इनकी बोली से गुस्सा सी चढ़ती है। लेकिन जब अधिक वर्षा होती है तब छप्पर चूने (टपकने) लगता है। इतना ही नहीं छप्पर चूने पर कुरता भीग जाता है और प्रिया की चोली पर पानी टपकता है। झोपड़ी की खपरैल घुल-घुल कर गिर रही है। मुझे ईश्वर की यह हँसी ठीक नहीं लगती है। कूड़ा, करकट, मकड़जाल सब काला-काला कचड़ा ऊपर गिरता है। यह बादल की वर्षा मेरी चारपाई पर होली सी खेल कर भाग गया है।

देख कें चुनाव ‘यार’ अचरज आनन्द होत,
दुलहिन एक कुरसी, बरात सात दूल्हा की।

वाहन उपवाहन अफवाहन की धूम मची,
नेतन की बानी बनी, नामी रमतूला की।।

जीत भई जी की तीकी सबली बरात भई,
हर्ष औ उलास बीच बरसा भइ फूलन की।

हारे प्रत्याशी के साथी भगे छोड़-छोड़,
होरी सी जरी राख रह गइ बरूलन की।।

कवि यार ने चुनाव को देखकर कहा है कि मुझे आश्चर्य और आनन्द होता है कि एक सत्ता रूपी दुल्हन को प्राप्त करने हेतु सात दूल्हे अपने बारातियों के साथ प्रयास करते हैं। इस समय वाहनों की भीड़ तथा अफवाहों की धूम मचती है। नेता की वाणी रमतूला जैसी होती है।

जीतने वाले के साथ सब जुट जाते हैं, हर्ष व उल्लास छा जाता है। हारे प्रत्याशी के साथी उसका साथ छोड़-छोड़ कर भाग जाते हैं। जैसे होरी जलने के पश्चात् केवल बरूलों (गोबर से निर्मित) की राख ही शेष बचती है वैसी स्थिति हारे प्रत्याशियों की होती है।

कोऊ ना दिखइया ना सुनइया गरीबन की,
सबरे दुकानदार धौंकें मनमानी है।

पानी मिलो दूध मिल जात तो गनीमत ती,
अब तौ है मिलन लगो दूध मिलो पानी है।।

चाय हम पिवाते और खबाते कछू ऊपर सें,
पै चक्कर जौ पर गओ ‘यार’ शक्कर बढ़ानी है।

परी मंहगाई आमदानी कछू रही नइयाँ,
सेवा में अपुन की जौ एक गड़ई पानी है।।

गरीबों की रक्षा व दुःख देखने वाला कोई नहीं है। सब दुकानदार अपनी मनमानी कर रहे हैं। पानी मिला दूध मिल जाता था, सो गनीमत थी परन्तु अब तो दूध मिला पानी मिलने लगा है। मित्र हम आपको चाय भी पिलाते और कुछ (नमकीन, बिस्कुट) खिलाते, परन्तु शक्कर का चक्कर आ गया हैं कि शक्कर खत्म हो गई है। मंहगाई के अनुपात में आय वृद्धि नहीं हुई है। इसलिए अब आपकी सेवा में यह एक लोटा पानी ही उपस्थित है।

कलि किलकानों विलखानों बिलानों सुख,
सत्य सरम्यानों शील सुमति सिरानों हैं।

गरब गरूर गरम्यानों गरीबन पै,
कुटिल कुपूतन कुकृत्य ठान ठानों है।।

सुजन सयाने पुराने सब पीत भये,
मूंढ़न पै बैरी बसन्त बरयानों है।

स्वारथ के सपनें में अपनें पराये भये,
मानों ना मानों ‘यार’ बिगरो जमानों है।।

कलयुग प्रसन्न हो रहा है जिसमें सुख दुखी होकर विलुप्त हो गया है इसीलिए सत्य, शील, सुमति सब सरमा कर समाप्त हो गये हैं। गरीबों पर गर्वित धनपतियों ने कुटिलता पूर्ण कुकृत्य करने की ठान ली है। सभी अच्छे लोग पुराने पड़कर समाज की मुख्य धारा से अलग हो गये हैं। मूर्खों पर बसंत विराजमान है। स्वास्थ्य की इस दुनिया में अपने सब पराये बन अपना प्रभाव दिखा रहे हैं। यार कवि कहते हैं कि आप मानें या न मानें जमाना बिगड़ गया है।

मन खाँ मरोर ‘यार’ रसना बा टोर डारौ,
सपनेहु में सुरत कराबै जौन खीर की।

माछीं भिनकातीं श्रम बिन्दु टपकातीं जातीं,
मुड़री पै कुड़री धरे है फटे चीर की।।

ग्राहक के द्वार पै उघार मूड़ हेरैं जुँवा,
नखन दबाय चटकारें बिना पीर की।

खोर-खोर जाय दूध बेंचे कर बोर-बोर,
छी-छीं कर देतीं, छाँछ छोकरी अहीर की।।

कवि यार कहते हैं कि मन को नियंत्रित कर मैं जीभ को भी प्रताड़ित करूँगा जो कभी भी खीर खाने की बात को सपने में भी याद दिलाये। मक्खियों को भिनकाती पसीने की बूंदों को टपकाती, सिर पर फटे कपड़ों की कुन्डी रखे वह दूध बेचने जाती हैं। ग्राहक के दरवाजे पर सिर को उघाड़कर जुँआ (जूँ) ढूंढ़ने लगती है। गली-गली में जाकर उंगलियों को डुबो-डुबोकर वह दूध बेच रही है। वह अहीर की बेटी इसी तरह मठा व दूध छी-छी कर (मक्खियों को भगाकर) दे रही है।

हम तौं भये बूढ़े सब देखत सब जानत हौ,
बची जान दमड़ी भर चमड़ी उधेरौ ना।

कविता सुनाने ती सुना चुके हँसा चुके,
सुनीं ‘यार’ बेर-बेर हम खाँ अब घेरौ ना।।

जो कछु खबानें-पिवानें सो लाव इतै,
जान देउ घर खाँ अब बिरथाँ हमें पेरौ ना।

झट्ट पट्ट उठकें झड़ाकें सें काम करौ,
बैठे बिलइया से टुकुर मुकुर हेरौ ना।।

कवि यार कहते हैं कि आप जानते हैं कि हम बूढ़े हो गये हैं। अब शरीर में थोड़ी सी जान बची है, चमड़ी है, उसकी चमड़ी न उधेड़ो। मुझे जितनी कविता सुनानी थी वह सुना चुके तथा जितना हँसाना था हँसा चुके। हमको बार-बार न घेरो। जो कुछ खिलाना-पिलाना हो तो इसे इधर लाओ। अब मुझे घर जाने दो, व्यर्थ में परेशान न करो। तत्काल उठकर त्वरित गति से काम करो तथा बिल्ली जैसे टुकुर-मुकुर निगाह गड़ाकर मत तको।

आमन की बौरन में नीम की निबौरिन में,
औरन की घौंरन में बिखरो बसन्त है।

सड़क छाप भौंरन में साँप और नौरन में,
मंत्रिन के दौरान में भारत स्वतन्त्र है।

मद के मतवारिन में नये कट वारन में,
नेतन के नारन में आदि है न अंत है।

लूट पाट हत्या में लालच लौलत्या में,
‘यार’ यहाँ मिथ्या में बीधो गणतंत्र है।

आम के बौरों, नीम की निबौरियों में तथा औरों की घौरन (फलों का गुच्छ) में बसन्त बिखरा है। सड़क छाप भौंरे, साँप और नेवले और मंत्रियों के दौरे स्वतंत्र भारत में हो रहे हैं। इस सत्ता के मद में नेताओं के नारों का कोई आदि व अंत नहीं है। यह प्रजातंत्र में लूटपाट, हत्या, लालच जैसे मिथ्या जाल में उलझ गया है।

देख बऊ द्वारे में कल्लू कौ होत व्याव,
दमक रही दमर-दमर बिजली खूब लिस कें।

अबई और आजइँ करा दे तैं मोरौ व्याब,
दद्दा सें मनवाँ ले चहै जौन मिस कें।।

तेल और रेंहन कौ उपटनौ लगा दे मोय,
दौरिया में भरो धरो अबइँ आओ पिसकें।

चार ठौ डिठौला लगा दे आज काजर के,
खूब मोय सपरा दे, खपरा सें घिसकें।।

पौत्र अपनी दादी से कह रहा है कि देख दादी दरवाजे में कल्लू का विवाह हो रहा है, बिजली दमक-दमक कर जग को चमत्कृत कर रही है। हे दादी! मेरी शादी भी तुम आज और अभी करा दो। पिता को विवाह के लिए किसी बहाने से मना करके स्वीकृति दिला दो। तेल व बेसन का उपटन लगा दो। दौरिया (बाँस का वर्तन) में भरा रखा है अभी पिसकर आया है। चार ठिठौला काजल के लगा दो, खूब मुझे खपरा से घिसकर नहला दो ताकि मैं गोरा निकल आऊँ।

चौकड़ियाँ

कैसे आ गये ‘यार’ जमाने, रहे न कछू ठिकाने।
कागज के चल रहे रुपैया, मिलत मुठी भर दाने।

नित नये रोज विलोरा डारत मुखिया और सयाने।
जनता के मुड़इ के ऊपर, सब कौआ मँड़राने।

‘हरनारायण’ रह गई थोरी, तुम खाँ प्रभू निभाने।।

यार कवि कहते हैं कि जमाना बदल गया है इसका कुछ ठिकाना नहीं रहा है। कागज के रुपयों में अब मुट्ठी भर दाने मिलते हैं। इसमें भी गाँव के मुखिया व सयाने कर्ज लेने के लिए अड़चन डालते हैं। जनता के ऊपर सब कौआ (सत्ताधारी, पूँजीपति) मंडरा रहे हैं। हरनारायण कवि कहते हैं कि हे प्रभु! तुम्हें ही सब निभाना है।

कैसउ जी रये हैं रो गाकें, भटा गकरियाँ खाकें।
पहरें फिरियत फटो पिछौरा, केंसउ कें तन ढाँके।।

भ्रष्टाचारी बड़े स्वाद सें, खारये हमें चबाकें।
यारन की बे धरम नीत नें, धर दओ ‘यार’ नसा कें।।

गरीब लोग भटा-गकरियाँ खाकर जैसे-तैसे विवशता भरा जीवन जी रहे हैं। फटे कपड़े पहनकर तन को ढके हुए हैं। भ्रष्टाचारी, तानाशाही बड़े स्वाद से गरीबों को चबाकर खा रहे हैं। यार कवि कहते हैं कि उनकी बेधरम नीति से निम्न वर्ग को बर्बाद कर रख दिया है।

यारो जग हो रओ दीवानौ, जाय न कछू बखानौ।
बाहर सें हैं भव्य देवता, भीतर बैठो दानौ।।

दूध जलेबी अपने लानें, सब खाँ सरो अथानौ।
भ्याने ‘यार’ होय चहे जैसौ, आज मसक कें छानौ।।

दोस्तों, जग दीवाना हो गया है जिसका कुछ बखान नहीं किया जा सकता है। बाहर से भव्य देवता की भाँति है, पर अंदर से पापी दानव बैठा है। दूध जलेबी अपने लिये है और दूसरों के लिए सड़ा-अचार बताते हैं। आज यार कवि कहना चाहते हैं कि मसककर खूब खाओ-पियो, भविष्य देखा जायेगा।

रजुआ अजब तुम्हारे साखे, लखत करेजौ कांखे।
पिचके गाल खाल सूखी सी, लाल ओंठ रँग राखे।।

पहरें फिरतीं सरो सुतन्ना, कढ़ी पसुरियाँ पाखे।
‘यार’ पार कैसें लग पाहौ, रहौ तना तन ढाँके।।

यार कवि कहते हैं कि रजुआ (नायिका) तुम्हारे शौक भी अनोखे हैं। हृदय दुख से पीड़ित हो तड़फ रहा है। गाल पिचके, खाल सूखी सी है कि ओंठों को लाल रंग से रंगा है। सड़ा सुतन्ना (घाघरा) पहने घूम रही हो। जिससे ढाँचे की हड्डियाँ दिख रही हैं। यार कवि कहते हैं किस तरह जीवन व्यतीत कर पाओगी अपने इस शरीर को थोड़ा ढँक कर रखो।

होरी आई कौन रँग घोलें, अब की-की जय बोलें।
मंहगाई मरघट लौ पहुँची, मनमानी सब तोलें।।

छूंछे हंड़न की पेंदी में डौवा डगमग डोलें।
ऊपर कौआ तरें चुखरवा, मसकउँ-मसकउँ कोलें।।

कारौ-कारौ न्यारौ जौ मुँह, ‘यार’ कहें अब घोलें।।

होली आ गई है, कौन सा रंग घोलें और किसकी-किसकी जय बोलें। मंहगाई मरघट तक पहुँच गई है, सब मनमानी कर रहे हैं। खाली हड़ियों (खाने बनाने का मिट्टी का बर्तन) की पेंदी में कौवा डगमग डोल रहा है। ऊपर कौआ तथा नीचे चूहा शान्त-चुपचाप शोषण कर रहे हैं। कवि कहते हैं कि इस अन्यायी व्यवस्था का मुँह काला हो इसको किसमें धोकर साफ करें।

ऐसी फैला दई दौ भाँती, रहो न कोउ सँगाती।
नेता अब दूल्हा बन बैठे, चमचा बनें बराती।

सीधीं मिलीं दार दरबे खाँ, हैं जनता की छाती।
सबरन हरिजन भेद बढ़ा दओं दै-दै ठकुर सुहाती।

इनने ‘यार’ लड़ा दओ सब खाँ, घर-घर बब्बा नाती।

यार कवि कहते हैं कि इस प्रकार का भेदभाव फैला दिया है कि उसका कोई साथी नहीं रहा है। नेता सत्ता रूपी दूल्हा बन बैठे हैं। बराती (दूल्हे के चमचे) चमचा बन बैठे हैं इनको जनता की छाती पर ही दाल दलने को मिली है। इन नेताओं ने जाति-पाति का इतना भेद बढ़ा दिया है और घर-घर में दादा व पौत्र में द्वेष, लड़ाई पैदा कर दी है।

सवैया

सब ‘यार’ लखें अपनौ अपनौ, कोउ ओरौ बनें कोउ गाज बनें हैं।
बटेर कि टेर खाँ कौंन सुनें, जबरे-जबरे अब बाज बनें हैं।।

राज गये अरु ताज गये, महराज गये यमराज बनें हैं।
रूप छिपाय लुटेरे बढ़े, अब लाखन कोढ़ की खाज बनें हैं।।

यार कवि कहते हैं कि सब व्यक्ति अपने-अपने में हैं, और कुछ व्यक्ति ओला एवं कुछ व्यक्ति गाज बन बैठे हैं। बटेर की आवाज को कौन सुनें? जबरदस्त व शक्तिशाली बाज यहाँ बने हैं। पुराने जमाने के राज चले गये हैं, महराजा चले गये हैं, अब तो यमराज बचे हैं। अपना रूप छिपाकर लुटेरे बढ़ गये हैं, वे लाखों रुपये की जायजाद हड़पकर गरीबों हेतु कोढ़ में खाज बन गये हैं।

अब देत अजान-अजान फिरै, कछु भेद कुरान कौ जान न पावैं।
खेद है पण्डित वेद पुराण को, स्वारथ सॉन लबेद बनावै।।

खुल कें खल खेल रहे हैं प्रचण्ड, सुदेश अखण्ड के खण्ड बनावै।
सत्य के सार को ‘यार’ भुलाय कें, पाप पाखण्ड पहार बनाबै।।

अब अजान (प्रातः की नमाज) से अपरिचित अजान दे रहे हैं अर्थात् जिन्हें कुरान का अर्थ पता नहीं वे कुरान पढ़ा रहे हैं। दुख से कहना पड़ता है कि पण्डित जिन्हे वेद व पुरान का ज्ञान नहीं है, वे स्वार्थ हेतु इसकी व्याख्या कर रहे हैं। दुष्ट अपना खेल खुलकर खेल रहे हैं। प्रचण्ड, सुदेश, अखण्ड भारत को खण्डित बना रहे हैं। यार कवि कहते हैं कि सत्य के सार को भुला दिया गया है। पाप-पाखण्ड का पहाड़ निर्मित हो गया है।

गणना न रही है गुणी जन की, अब मानत न कोउ बूढ़ो सयानौ।
काहू कि कोऊ सुनइया है नाहिं, रुपैया कौ खेल बढ़ो मनमानौ।।

न कूत परै कपटी करतूत, ‘यार’ भयो है अकूत जमानौ।
ऊपर सें मुसकात दिखात है, भीतर-भीतर राहु समानौ।।

अब वर्तमान में गुणी जन की गणना नहीं है। अब बूढ़े सयाने का भेद खत्म हो गया है। यहाँ कोई किसी की नहीं सुन रहा है। पैसों का खेल मनमाना बढ़ गया है। कपटी करतूतों से जमाना भर गया है, ऊपर से मुस्कान दिखाई देती है। आदमी की जिन्दगी में मुस्कान तो है पर वास्तविक रूप से मुस्कान नहीं रही है।

ठाकुर हरनारायन सिंह ‘यार’का जीवन परिचय

शोध एवं आलेखडॉ. बहादुर सिंह परमार
महाराजा छत्रसाल बुंदेलखंड विश्वविद्यालय छतरपुर (मध्य प्रदेश)

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