Shankar Lal Verma ‘Lalitesh’ Ki Rachnayen शंकर लाल वर्मा ‘ललितेश’ की रचनाएं

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कविवर श्री शंकर लाल वर्मा ‘ललितेश’ का जन्म सन् 1933 ई. में छतरपुर में हुआ था। आपके पिता का नाम श्री बेनीकवि था। पिताजी एक अच्छे कवि थे और बेनी कवि के नाम से जाने जाते थे। आर्थिक स्थिति ठीक न होने से शिक्षा-दीक्षा की कोई ठीक व्यवस्था श्री शंकर लाल वर्मा की न हो सकी, फिर भी प्रारंभिक शिक्षा छतरपुर की पाठशाला में पूरी की।

ख्याल (रंगत)

करतूत कहा इनकी कइये या दइये दोस समैया को।
कजरारी

अंखियन हेर हेर कारो कर कियो कन्हैया को।।

केसर कस्तूरी लेपन कर उपटन कर कर कें हारी मैं
फिर राई नौन लैकर कर में लालन की नजर उतारी मैं,

गुनिया ब्रज के सब बुला बुला गुन के गुनवान विचारी मैं,
उपचार अनेकन करे श्याम को झरा झरा विथ धारी मैं

उन चन्द्रमुखीनन चितवन में चित हर लओ मुकुट धरैया को।
कजरारी अंखियन हेर हेर……..।। 1।।

घर सें लै जातीं टेर टेर अपने घर नैन इसारन में
गैया दुहवे के हेत सखीं लै जातीं पकर उसारन में

तकती तन उनको बेर बेर हंस हेर हेर हिसकारन में
ब्रजवारन जे हाल लखे डूबी मैं विमल विचारन में

गोरी गोरी ग्वालन छोरी निरखे जिम सरद जुन्हैया को।
कजरारी अंखियन हेर हेर………।। 2।।

आतीं नित लाख बहाने कर सब भामिन बन बनकें भोरी,
आपन सज्जन अरु साव बनीं लालन को लगातीं हैं चोरी,

कोउ कहैं हमारे चीर हरे कोउ कहै गगर फोरी मोरी,
कोउ कहै लाज टोरी मोरी कोउ कहती कीनी बरजोरी।

कोउ कहती उचका दइ गइया छोरो घनश्याम लवैया को।
कजरारी अंखियन हेर हेर………।। 3।।

ग्वालन की कहिये चाल ढाल चंचल चितवनियां है बांकी
इतने श्रृंगार सजे तन पै हो इन्द्र अप्सरा की झांकी

झांकी को झांक झीक झिझकी, यैसी न झांकी उपमा की
झांकी श्री कृष्ण राधिका की, मनहरन मनोहर सुखमां की

ललितेश हिये बिच वास करें, वे पार करें मोरि नैइया की।
कजरारी अंखियन हेर हेर…..।। 4।।

यशोदा जी कहती हैं कि इनकी (ब्रजांगनाओं की) करनी को क्या कहें अथवा आज के समय को क्या दोष दिया जाय ? इन्होंने अपनी काली-काली (कज्जलित) आँखों से बार-बार देखकर मेरे श्री कृष्ण को काला कर दिया है।

केशर और कस्तूरी का अंगराग बनाकर मैं इसके शरीर पर लेपन कर-कर के थक गई, फिर राई और नमक हाथ में लेकर अपने पुत्र की नजर भी उतारी, इसके बाद ब्रज में जो मंत्र विधा में निपुण हैं ऐसे जानने वालों को और सोच समझकर अन्य जानकारों को बुलाया, उनसे विविध प्रकार की चिकित्सा कराई और झाड़-फूँक भी कराई।

उन चन्द्रमा से सुन्दर मुखवाली ब्रजांगनाओं ने कटाक्ष कर इस मोर मुकुट धारण करने वाले मेरे लाल के मन का हरण कर लिया है। आँखों के संकेत से बुला-बुला कर यहाँ से (घर से) अपने घर ले जाती हैं। गाय लगाने के बहाने से पकड़कर गाय बांधने वाले घर में (एकान्त हेतु) ले जाती है।

वहाँ पर ले जाकर उनके सुन्दर शरीर को बारबार निहारती हैं और प्रतिस्पर्धा में देख-देखकर हँसती है। ब्रजवनिताओं का यह हाल देखकर मैं पावन विचारों में डूब जाती हूँ। ग्वालों की सुन्दर नव युवतियाँ भी इस तरह देखती हैं जैसे शरद की पूर्णिमा के चन्द्रमा को देख रही हों।

प्रतिदिन लाखों बहाने बनाते हुए सरल बनकर ये भामिनी (स्त्रियाँ) यहाँ आती हैं। स्वयं तो बहुत सभ्य और साहूकार बनती हैं और मेरे पुत्र को चोरी लगाती हैं। कोई कहती है हमारे वस्त्र को उठा ले गया, कोई कहती है कि हमारा घट तोड़ दिया, कोई कहती है कि मेरी लाज (लज्जा शर्म) तोड़ दी, कोई कहती है कि मेरे साथ जबरदस्ती की है, कोई कहती है मेरी गाय उचका दी, कोई कहती है कि कृष्ण ने बछड़े को छोड़ दिया।

ब्रजांगनाओं  की चाल-चलन को क्या कहा जाय ? इनका चंचल नेत्रों से तिरछा देखना बड़ा लुभावना है, शरीर पर इतने श्रृँगार करती हैं, जैसे देवराज इन्द्र की देवांगना हो, इनकी झाँकी को बार-बार देखने पर भी कोई उपमा समझ में नहीं आती – कवि ललितेश कहते हैं कि इससे भी सुन्दर सुखदायी और मन को मोहित करने वाली श्री कृष्ण राधिका की जोड़ी है। वे दोनों मेरे हृदय में निवास करें और मेरी नाव भवसागर से पार करें।

ख्याल (रसिया)

अंग उमंग उठी होरी की गोपी ग्वालन में।
मलत गुलाल गुपाल पकर कर गोरे गालन में।।

नयन मिलाय हाय चितवन में जादू सौ डारै।
मधुर मधुर मुरली में मोहनी मंत्रन उच्चारै।।

भर भर के केशर रंग गंग सी श्याम शीश ढारै।
झोरी भरें गुलाल लाल मूठन पै मुठ मारै।।

सनमुख सेंट पिचक की बचौ न घालन में।
मलत गुलाल गुपाल पकर कर गोरे गालन में।। 1।।

विन्द्रावन की कुंज कुंज में नटवर नंद किशोर।
संग सखा लीनें मग डोलत श्यामलिया चितचोर।।

छैल छबीलौ छलिया सजनी तकै सांझ ना भोर।
पकर पकर अपने रंग जबरइ कर देवै सरबोर।।

भूल भटक ना जैइयो नइ पर जैहौ जालन में।
मलत गुलाल गुपाल……।। 2।।

मनमोहन मुस्क्यान मधुर मन मोहै नागरिया।
छाजत छटा छबीली छब की छलकत गागरिया।।

मोर मुकुट पीताम्बर कछनी कांधे कामरिया।
छवि की छटा निरख नैनन सों मैं भई बाबरिया।।

चाली चोर चबाइन के मैं पर गई चालन में।
मलत गुलाल गुपाल……।। 3।।

माखन चोर कनैया चूनर चोर बोर कीनी।
जबरइ पकर गुलाल लाल ने गालन मल दीनी।।

बारबार विनती उनसें कर जोर जोर कीनी।
बनसी के सम श्याम पकर हिय सों लिपटा लीनी।।

व्यास कृपा ललितेश ख्याल कयें नइ नइ चालन में।
मलत गुलाल गुपाल………….।। 4।।

होली खेलने की चाह और क्रीड़ा की आकांक्षा सहित गोप और ब्रज वनिताओं के मन में उत्साह भर आया। श्री कृष्ण उधर गोरे-गोरे गालों में पकड़-पकड़ कर गुलाल मल रहे हैं। आँखों में आँखें डालकर जब देखते हैं तो जादू सा प्रभाव होता है।

बाँसुरी की मधुर-मधुर ध्वनि ऐसी प्रभावी है जैसे मंत्र का उच्चारण हो रहा हो, केशरिया रंग भर-भर कर श्यामसुन्दर सबके सिर से गंगा सी बहा रहे हैं और झोरी (थैले) में गुलाल भरे हुए हैं जिसे वे मुट्ठी में भरकर बार-बार मुँह पर मार रहे हैं।

सीधे सामने पिचकारी की धारा ऐसी चलाते हैं कि कोई नहीं बच पाता। हे सजनी! वृन्दावन की प्रत्येक कुंज में चतुर चित्तहरण नंदलाल कृष्ण अपने साथियों को साथ लिये घूम रहा है। वह सुन्दर छैला छल करने में निपुण हैं वह शाम-सबेरा नहीं देखता, जब भी मिल जाय पकड़कर तुरन्त अपने रंग में पूरी तरह रंग लेता है। भूलकर भी उसकी तरफ न चली जाना अन्यथा उसके जाल में फँस जाओगी।

हे सजनी! मनमोहन श्री कृष्ण की मधुर मुस्कान मन मोहित कर लेती है उसकी सुन्दरता ऐसी शोभा पा रही है जैसे सौन्दर्य की भरी गागर बार-बार छलक जाती हो। सिर पर मोर पंख का मुकुट धारण किये हैं, पीली धोती पहने हुए हैं और कंधे पर कमरी डाले हैं। इन आँखों से इस शोभा की आभा देखकर मैं पागल हो गई और उस पर चितचोर की झूठीं बातों में फँस गई।

माखन चुराने वाले कृष्ण ने मेरी चुनरी को पूरी तरह भिगो दिया और जबरदस्ती पकड़ कर मेरे गोरे गालों पर गुलाल मल दी। मैंने हाथ जोड़कर बार-बार उनसे अनुनय विनय की फिर भी उन्होंने बाँसुरी की तरह मुझे भी हृदय से चिपका लिया। व्यास की कृपा से ललितेश ने नई-नई तरह के ख्याल लिखे हैं।

कवित्त (घनाक्षरी)

पूजन गईती दोज रोजऊँ की भांत आज,
साज के समाज ब्रजराज खड़े खोरी में।

जानकें अकेली गल मेली नंदलाल बांह,
कीन्हीं बरजोरी लाख लाख बरजोरी मैं।।

बांह झकझोरी मोरी कंचुकी मरोरी
अंग अंग सरवोरी घनश्याम रंग रोरी में।

भांत भांत कर जोरी ललितेश कै निहोरी और,
बोरी सब लाज ब्रजराज आज होरी में।।

(मूल पाण्डुलिपि से)

नित्य की भाँति आज जब मैं दोज का पूजन करने गई थी तो गली में कृष्ण अपने सखाओं के साथ खड़े थे। मुझे अकेला समझकर मेरे गले में अपनी बाँह डाल दी और मैंने अनेक विधि से प्रतिकार किया किन्तु उन्होंने मेरे साथ जबरदस्ती (बरजोरी) की।

मेरी बाँह झटककर मेरी चोरी मरोरी और मेरे पूरे शरीर को रंग-रोरी से सराबोर कर दिया। कवि ललितेश का कथन है कि नायिका कहती है कि मैंने अनेक प्रकार से बार-बार हाथ जोड़कर विनती की किन्तु ब्रजराज कृष्ण ने आज होरी में सब मान-मर्यादा को डुबो दिया।

फाग

बदरा घुमड़ रहे बदरारे जैसें गज मतवारे।
जे बदराय करत हैं मो संग धरत रूप विकरारे।

गरज रहे चारउ ओरन सें दे रये धोंस धुकारे।
फिर फिर घिर घिर आयें धरन पै बरसत झिरी लगारे।

कह ललितेश पिया पावस में जा परदेश पधारे।।

मदमत्त हाथी की तरह ये निकृष्ट बादल मंडरा रहे हैं। ये विकराल रूप धारण कर मेरे साथ बुरा व्यवहार करते हैं। चारों ओर से घेरकर गर्जना करते हुए मुझे गड़गड़ाहट के साथ घुड़की दे रहे हैं। बार-बार पृथ्वी के चारों ओर घिर-घिर कर तेजी से लगातार बरसते हैं। कवि ललितेश का कथन है कि नायिका कहती है कि ऐसी वर्षा ऋतु में प्रियतम विदेश चले गये हैं।

बदरा पावस के उमड़ाने घूम रहे मस्ताने।
लियें फौज मेघन की संग में जंग करन के लानें।

बदली ढाल बिजुरिया तेगा इन्द्र धनुष कर तानें।
सरसर वर्षा रये जल सर से गरज गरज मनमाने।।

मड़रा रये स्वतंत्र गगन में लगे आतंक मचानें।
कह ललतेश एक विरहिन पै इतने बांधे तानें।।

(उपर्युक्त सभी छंद सौजन्य से : श्री नारायण वर्मा)

वर्षाकाल के बादल छा गये हैं और मदमत्त होकर घूम रहे हैं। बादलों की घटायें एक साथ दौड़ती-सी लगती हैं कि युद्ध के लिये सेना आ गई हो। छोटी बादल की टुकड़ी मानो उसकी ढाल हैं, चपला उसका तेगा है और इन्द्रधनुष को चढ़ाये हुए भीषण ध्वनि के साथ लगातार जल रूपी वाणों की वर्षा कर रहा है। वे स्वतंत्र मन से आकाश में चारों ओर घूमते हुए आतंक मचाये हैं। ललितेश कवि कहते हैं कि अकेली विरहिणी पर इतने सूत्रों से बंधन बाँध दिया है।

श्री शंकर लाल वर्मा ‘ललितेश’  का जीवन परिचय 

शोध एवं आलेखडॉ. बहादुर सिंह परमार
महाराजा छत्रसाल बुंदेलखंड विश्वविद्यालय छतरपुर (मध्य प्रदेश)

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