श्री सुभाष सिंघई बुन्देलखण्ड के ऐसे साहित्यकार है जिन्हे कलम का सिपाही भी कहते है । कलम का सिपाही यानि पत्रकारिता का प्रतिविम्ब जो बिना रुके- बिना झुके लिखता जाता है । आधुनिक काल मे Subhash Singhai Ki Chhandvaddh Rachnaye अद्भुत हैं । कवि भी है । श्री सुभाष सिंघई का जन्म 12 जून 1955 जतारा , जिला टीकमगढ़ ( मध्य प्रदेश ) मे हुआ था ।
(पद्मावती मात्रिक छंद)
[१०,८,१४ यति, दो यति पदानुप्रास, अंत–गागा]
जीवन में जब गम , आते हरदम , तब लगता है कुछ हारा |
मधु गीतों को सुन , पहचाने धुन , तब लगता कुछ न्यारा ॥
पद चिन्हों पर चल, आगे का कल, बनता है जहाँ सितारा |
बनती अच्छी मति, जाने हम गति, बहती तब निर्मल धारा ॥
पथिक देखता मग , कैसा है जग , सदा जोड़ता वह नाता |
रखता अपनापन , निर्मल है मन , सबको समझे वह भ्राता ॥
अंजाना है पथ , खाली है रथ , फिर भी कहलाता दाता |
रखना है साहस , आएगा रस , जग को वह है बतलाता ॥
मुस्कराते मुक्तक
गुजर गया है काफी अरसा , नहीं चाहतें बदली।
रही दोस्त की लत हमको , नहीं आदतें बदली॥
मुझें सभी इस जग में अब, अपने ही लगते है ।
सब बैसा ही चलता जाता , , नहीं रिवायतें बदली ॥
भिखारी छंद (आधार भिखारी छंद )
रुख लिबास ही अब तो , यह पहचाने दुनिया
कहाँ उतरना दिल में अब यह जाने दुनिया ॥
चले बनावट अब तो, चलन आजकल देखें।
सत्य बोलना अच्छा , कब यह माने दुनिया॥
ग्राहक ही अब बिकता , देखा बाजारों में ।
मीठी बातें मिलती , केवल मक्कारों में ॥
कौन फरिश्ता सुनता , कहता बोल सुभाषा ।
सत्य न्याय है याचक , झूठें दरबारों में॥
शंकर छंद 16- 10 , यति चौकल , चरणांत गाल
भोले भण्डारी शिव शंकर जी, है रुद्र अवतार।
डमरू बाले हरिहर मेरे , सृष्टि के सरकार ॥
गेह हिमालय पर्वत ऊँचा , गंग शुचि है धार ।
चंद्र भाल भी चमचम चमके, शम्भु के दरबार॥
महादेव हरिहर सब कहते , उमापति शिवनाथ ।
नंदी जी की करें सवारी , भस्म शुचि है माथ ॥
करता है त्रिशूल भी सेवा, मृग छाल है साथ ।
सभी चाहते अपने ऊपर , शिवा प्रभु के हाथ ॥
सुंदरी सवैया- 25 वर्ण. 8 सगण (112) + गुरु (2)
जब साजन की सजनी घर में ,गहना पहने तन को सजती है ।
नथनी नग भी चमके दमके , हिलती झुमकी धुन से बजती है ॥
पग पायल घायल है करती, सुर- ताल बरावर भी मिलती है।
चलती वह है जब आँगन में, शशि की छवि ही मुख पै खिलती है॥
आजादी की 75 वीं साल पर ताटंक छंद में अभिव्यक्ति
निज घर की छत पर चल कर हम , चलो तिरंगा फहराएँ ।
झूम-झूम कर हम मग चूमें , जग में जन को बतलाएँ ॥
उर में भरकर नव रंगों को , शुचि पथ पर शुभ यश पाएँ ।
साल पिच्चतर आजादी की, सब हिल-मिल इसे मनाएँ ॥
गीतिका , आधार – उल्लाला छंद
(चारों चरण दोहे के विषम चरण का निर्वाह करते है)
जब मुलाकात भी सजी , उससे उम्र की ढली में ।
यादे नासूर सी जगी , नुक्कड़ वाली गली में ॥
आंसू सूखे हुए भी , वहाँ पिघलने थे लगे,
गंगा – सी बहने लगी , नुक्कड़ वाली गली में।
मुझे एकटक देखती , होंठ नहीं वह. खोलती ,
लगती जैसे वह ठगी , नुक्कड़ वाली गली में ।
नहीं अंजाम था पता , बदली गलियों की हवा,
खता आवाज ही मिली , नुक्कड़ वाली गली में।
चल सुभाष इस गली से ,दूर इल्जाम है नहीं ,
सभी खिड़कियाँ दिलजली , नुक्कड वाली गली में।
मुक्तक. आधार (सार छंद , 16 – 12)
यति व चरणांत चौकल से
चिठ्ठी पर चार मुक्तक
पा जाते थे सब संंदेशा , हम पाकर चिठ्ठी में ।
पूरे रिश्ते जुड़ जाते थे , तब आकर चिठ्ठी में ॥
आनंद बहुत छा जाता था , चिठ्ठी की खुश्बू से।
नजर गड़ाकर पूरी पढ़ते , सब जाकर चिठ्ठी में ॥
लिए डाकिया जब आता था , समाचार चिठ्ठी में ।
सभी खोजते अपना-अपना, जुड़ा तार चिठ्ठी में ॥
सभी धरोहर-सी रख लेते , जैसे सोना चांदी ।
कण पराग से लगते सबको , है वहार चिठ्ठी में ॥
परिवार जोड़कर रख देता , रस रहता चिठ्ठी में ।
भाव भंगिमा हमने देखी, सब ,बहते चिठ्ठी में ॥
इधर उधर जो घूमे हरदम , दोड़ा ही आता था।
राम-राम क्या हमको भेजा , सब कहते चिठ्ठी में ॥
एक जमाना बीत गया है , अनमोल रही चिठ्ठी ।
अहसासों की रानी बनकर , बसी हृदय में चिठ्ठी ॥
हलचल कर देती थी घर में , बिखरा देती खुश्बू ।
रिश्ता जोड़ बनाने में तब , सूत्र रही है चिठ्ठी ॥
छप्पय छंद
एक रोला + एक उल्लाला
उल्लाला = चारों चरण दोहे के विषम चरण जैसे
मौसी उनको मान , निभाता जिनसे नाता |
आदर से लें नाम , कहें हम विद्या माता ||
कलम हाथ में देख , शारदे देती सविता |
बने लक्ष्मी पुत्र, लिखे पर यारो कविता ||
कविता से अंजान हूँ , पर भावो का इत्र है |
मौसी मेरी शारदे , रिश्ता बड़ा पवित्र है ||
होते जलती आग , चुभाते दिल में भाला |
कर्कष जिसके बोल,उगलते मुख से ज्वाला ||
कह सुभाष नादान वचन में भरी रँगोली |
सुखद मिले परिणाम , बोलकर मीठी बोली ||
देखे जग में कटु वचन , पूरे जलती आग हैं |
मीठी बोली बोलकर, खिलते पुष्प पराग हैं ||
पदावली
मात्रानुशासन 16- 12 आधार सार छंद
माता तुमसे नाता |
“छंद महल” का नमन सदा है, तुम्हें शारदे माता ||
तेरी अनुकम्पा सब जानें, तुम हो ज्ञान प्रदाता |
दिव्य मनोहर लेखन होता, जो चरणों में आता ||
अनुकम्पा तेरी पाने को , सबका हृदय लुभाता |
धार कलम में अपनी रखना, कवियों को सिखलाता ||
सृजन कलम करने है लगती, शरण आपकी पाता |
सेवक तेरा सदा “सुभाषा”, महिमा तेरी गाता |
पद आधार ताटंक छंद , मात्रनुशासन 16 -14
भागा आज अँधेरा था |
अंहकार का शीश गिरा था , जो कहता सब मेरा था ||
पापो का भी जिसने पूरा , बना लिया खुद घेरा था |
जहाँ सत्य झुठला़या जाता , अत्याचारी डेरा था ||
रावण उसका नाम “सुभाषा’, खुद को कहता शेरा था |
अंत आज था उस पापी का , जग में नया सवेरा था ||