Bundelkhand के महाकवि ईसुरी की फागों में जितना संयोग श्रृँगार का प्रयोग देखने को मिलता है, उतना ही वियोग श्रृँगार का। ईसुरी की फागें में जिस तरह संयोग श्रृँगार की भरमार है, उसी तरह वियोग श्रृँगार की भी। Isuri Ki Viyogshringarik Fagen वियोग श्रृँगार का उत्कृष्ट उदाहरण बनकर उभरी है।
बुन्देलखंड के महाकवि ईसुरी की वियोग श्रृँगारिक फागें
हंसा फिरें विपत के मारे, अपने देश बिनारे।
अबका बैठे ताल तलैंया, छोडे़ समुद किनारे।
चुन चुन मोती उगले उनने, ककरा चुगत विचारे।
ईसुर कात कुटुम्ब अपने सें, मिलबी कौन दिनारे।
महाकवि ईसुरी Mahakavi Isuri के सम्बन्ध में कहा गया है कि उन्हें रजऊ से प्यार होने की बात जब ठाकुर जगत सिंह को मालूम चली तो उन्होने ईसुरी को पेड़ से उल्टा लटका कर शारीरिक प्रताड़ना दी थी तथा धौर्रा से निष्कासित कर दिया। रजऊ के विछोह में उन्होंने अपनी दशा का जो वर्णन किया है।
बस्ती बसत लोग बहुतेरे, कौन काम के मेरे।
बैठे रात हजारन कोदी, कबहुं न जे दृग हेरे।
गैल चलत गैलारे चरचे, सब दिन सांझ सबेरे।
हाथ दई उन दो आँखन बिन,सब जग लगत अंधेरे।
ईसुर फिर तक लेते उनखां, वे दिन विधना फेरे।
वे रजऊ के बिछोह में कहते हैं कि इस गाँव में भी बहुत सी हैं किन्तु उनके जैसी कोई नहीं और यदि है भी तो मेरे किस काम की। उनकी दो आँखों में कितना जादू था, जिनके बिना यह संसार अन्धकारमय लग रहा है। क्या विधाता दुबारा ऐसा अवसर देंगे , जब उनके देखने का अवसर मिलेगा। वे वियोगी नायिका की विरह दशा का वर्णन करके कहते हैं ।
हम पै बैरिन बरसा आई, हमें बचा लेव भाई।
चढ़कें अटा घटा न देखें, पटा देव अगनाई।
बरादरी दौरियन में हो, पवन न जावे पाई।
जै दु्रम कटा छटा फुलबगिया, हटा देव हरयाई।
पिय जस गाय सुनाव न ईसुर, जो जिय चाव भलाई।
नायिका विरह अग्नि में जलती हुई उन सभी परिस्थितियों से आक्रोशित होती है, जो श्रृँगार को उद्दीत्ति करने वाले हैं। वह अपनी दुश्मन वर्षा ऋतु पर क्रोध कर उसे कोसती है। वह उन सभी उद्दीपनों को प्रतिबंधित कर देना चाहती है, जो उसे नायक की स्मृतियों में जलने की पीड़ा देते हैं। ईसुरी नायिका की विरह पीड़ा का वर्णन करते हुए कहते हैं।
जे दिन कटत बैन बज्जुर के, अबै दुपर ना मुरके।
पूरब से सूरज नारायण, पच्छिम खां ना मुरके।
अपने-अपने घरन मजा में, लोग-लुगाई पुर के।
जान जिवावन आन मिलेंगे, कबे यार ईसुर के।
महाकवि ईसुरी ने ऋतु वर्णन करते हुए नायक-नायिका विरह की पीडा़ का जो चित्रण किया है, उसे देखकर लगता है कि वे उन परिस्थितियों से पूर्ण रूपेण भिज्ञ हैं, जो नायक-नायिका विरह की तपन से जलते हुए कलेजे झेलते हैं। नायिका अपनी पीड़ा व्यक्त करती हुई कहती है।
अब के गए कबै तुम आ हौ, वो दिन हमें बताओ।
होय आधार तनक ई जी खां, ऐसी स्यात धरायो।
जल्दी खबर लियौ जो जानों, इन प्रानन खां चाओ।
ईसुर नेंक चलत की बिरिया, कण्ठ से कण्ठ लगाओ।
नायिका कहती है कि हमें यह तो बता दीजिए कि आज के गए आप कब और किस दिन आऐंगे। अगर आप उस तय अवधि पर नहीं आएंगे तो फिर मुझे जीवित नहीं पाओगे। नायिका विछोह के वर्णन में ईसुरी कहते हैं।
देखो नइयां आँखें भरके, जब से गए निकरकें।
आपन ज्वान फारकत हो गए, मोय फकीरन करकें।
अपने संगै ले गए प्यारे, प्रान पराए हरकें।
ऐसे मानस मिलने नैंया, मानस कौ तन धरकें।
खपरा भओ सूख तन ईसुर, खाक करेजो जरकें।
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ईसुरी का सौंदर्य श्रृंगार
जब से आप गए, तब से इन आँखों में वह रूप माधुरी न भर सकी। मुझे फकीरन बनाकर आप निशचिंत हो चले गए हैं। मेरे प्यारे। आप मेरे प्राण चुराकर अपने साथ ले गऐ हैं। तुम सच पूछो तो मैं तुम्हें पाकर बड़ी धन्य हूँ कि चाहे कितने भी शरीर धारण कर लूं, किन्तु आप से अच्छा प्रियतम मुझे नहीं मिलेगा। मैं आपकी विरह अग्नि में जल रही हूँ, इस दुःख से मेरा शरीर सूख कर खपरा बन गया है और कलेजा जलकर खाक हो गया है।
पीतम बिलम विदेश रहे री, नैनन नीर बहे री।
मोय अकेले निबल पिय बिन, लख अंग अनंग दहे री।
बागन-बगन बंगलन बेलन, कोयल सबद करे री।
ईसुर ऐसी विकल वाम भई, सब सुख बिसर गए री।
महाकवि ईसुरी Mahakavi Isuri ने वियोग श्रृँगार का अपनी फागों में जिस तरह निर्वाह किया है, उसे देखकर लगता है कि ईसुरी विरह पीड़ा की तड़पन से भली भाँति परचित रहे हैं।
तुमने मोह टोर दओ सैंयां, खबर हमारी नैंयां।
कोचन में हो निबकन लागीं, चुरियन छोड़ी बइयां।
सूकी देह छिपुरिया हो गई, हो गए प्रान चलैयां।
जे पापिन ना सूखी अंखियां, भर-भर भरी तलैयां।
उन्हें मिलादो हमें ईसुरी, लाग लाग कें पैयां।
नायिका कहती है कि विरह ताप में मैं इस तरह जल रही हूँ कि मेरी देह सूखकर छिपुरिया हो रही है।
हड़रा घुन हो गए हमारे,सोचन रजऊ तुमारे।
दौरी देह दूबरी हो गई,करकें देख उगारे।
गोरे अंग हतै सब जानत,लगन लगे अब कारे।
ना रये मांस रकत के बूंदा, निकरत नई निकारे।
इतनउ पै हम रजऊ को ईसुर, बने रात कुपियारे।
इसी तरह नायिका के विछोह में नायक की बुरी दशा का वर्णन करते हुए ईसुरी कहते है कि मेरे हांड़ घुन गए हैं, देह दुहरी हो दुर्बल हो गई है। गोरा रंग काला पड़ गया है। शरीर का मांस जल चुका है, खून सूख गया है- फिर भी रजऊ के लिए हम बुरे बने हैं।
संयोग की सुखद स्मृतियाँ और वियोग की दुःखद पीड़ा एक दूसरे से विलोभात्मक अद्वितीय है। कहा जाता है कि सुख के दिन कब गुजर जाते हैं पता ही नहीं चलता, किन्तु दुख के दिन काटे नहीं कटते हैं और जो पीड़ा, जो वेदना इन दिनों में भोगनी पड़ी होती है, उसे भुलाना चाहते हुए भी भुला नहीं पाते हैं।
हींसा परे आगले मेरे, रजऊ नैन दुई तेरे।
जां हम होवें मईखां हेरो, अन्त जाय ना फेरे।
जब देखों तब हम खां देखो, दिन में सांज सबेरे।
ईसुर चित्त चलन ना पावे, कबहुं दायने डेरे।
ईसुरी रज्जू राजा के बिरह में इतने आसक्त थे कि जड़-चेतन सर्वत्र में रजऊ को देखने लगे और सारा जग उन्हें रजऊमय दिखने लगा। वे पेड़-पत्ती, फूल-फल जल-थल, नभ सभी में रजऊ की छवि देख रहे थे और सदैव रजऊ के होकर जीना चाह रहे थे। उन्होंने इतनी चाहत पाल रखी थी कि अगर उसकी विवेचना की जाय तो उनके प्रेम के पर्याय से चराचर भी कम पड़ जाय। उनके कल्पना की उड़ान देखिये।
विधना करी देह न मेरी, रजऊ के घर की देरी।
आवत जात चरन की धूरा, लगत जाय हरबेरी।
लागी आन कान के ऐंगर, बजन लगी बजनेरी।
उठन चात अब हाट ईसुरी, वाट बहुत दिन हैरी।
ईसुरी रज्जू राजा के बिना एक पल भी जीना नहीं चाहते थे। वे सदैव उनकी स्मृतियाँ अपने अन्तस में रमाए रहते थे और मिलन की कल्पना की उड़ाने भरते रहते थे। वे कहते हैं।
पंछी भए न पंखनवारे, इतनी जांगा हारे।
कड़-कड़ जाते सांसन में हो, अड़ते नहीं किनारे।
सब-सब रातन मजा लूटते, परते नहीं नियारे।
ईसुर उड़ प्रीतम से मिलते, जां होंय यार हमारे।
महाकवि ईसुरी Mahakavi Isuri अपनी नायिका की याद में तड़पते हैं और उसकी हँसन-हेरन, उठन-बैठन इत्यादि कृत्यों को स्मरण करते-करते खुद की सुधबुध भूल जाते हैं। वे संसार के सारे कार्य कलापों में उसे ही देखते हैं। सारा संसार उन्हें रजऊमय लगता है और जो कुछ भी हो रहा है, उस सभी में रजऊ की सहभागिता है।
सूजै इन आँखन अनवेली, जग में रजऊ अकेली।
भरके मूठ गुलाल धन्य वे, जिनके ऊपर मेली।
भाग्यवान जिन में पिचकारी, रजऊ के ऊपर ठेली।
ई मइना की आउन हम पै, झिली मस्त की झेली
अब की बेरें उनने ईसुर, फाग सासुरे खेली।
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हम पै इक मुख जात न बरनी, रजऊ तुमारी करनी।
जा ठाड़ी हो जाती जाके, दिपन लगत वा धरनी।
हते नक्षत्र नई पुक्खन में, नई भद्रा नई भरनी।
आई हो औतार मांग भव, तीन ताप की हरनी।
धन्य तुमारे भाग ईसुरी, कैउ करी बैतरनी।
महाकवि ईसुरी Mahakavi Isuri की फागें सुनने-पढ़ने में तो सरल और आसान लगती हैं किन्तु उनकी धार बहुत पैनी और मारक क्षमता का तो जवाब नहीं। वे जो भी कहते हैं उनमें एक और गूढ़ अर्थ छिपा रहता है। उसे वही समझ पाता है जिसकी बुद्धि निर्मल और प्रखर है।
मोरी रजऊ सासरे जातीं, हमें लगा लो छातीं।
कै नई सकत गरौ भर देतीं,अंसुवन अखियां बातीं।
ऊसेई चित्र लिखि सी रैगईं, मां से कछु न कातीं।
हमने करी हमई जानत हैं,अब पीछू पछतातीं।
ईसुर कौन कसाइन डारी,विकल विदा की पाती।
नीको नई रजऊ मन लगवौ, एई से कठिन हटकवौ।
मन लागै लग जात जनम कौ, रोमई रोम कसकवौ।
सुनती तुमे सओ न जैहै, सब-सब रातन जगवौ।
कछु दिनन में होत कछु मन, लगत-लगत लै भगवौ।
ईसुर जे आसान नई हैं, प्रान पराये हरवौ।
नायक-नायिका प्रीति और विछोह संसारिक गतियाँ हैं। जो जीवित है उसे ये गतियाँ प्रभावित करेंगी। ईसुरी ने रजऊ को अपनी साँसों में रमा रखा है और वे हर क्षण उन्हीं में रमे रहते हैं। वे मनसा, वाचा और कर्मणा से रजऊ को चाहते हैं और उनके विरह में जल बिन मछली की तरह तड़पते है।
जो जी रजऊ-रजऊ के लाने, का काउ सें का काने।
जौ लौ जीने जियत ज़िन्दगी, रजऊ के होके राने।
पहले भोजन करै रजऊआ, पीछे मो खां खाने।
रजऊ-रजऊ कौ नाम ईसुरी, लेत-लेत मर जाने।
विरह की पीड़ा असहनीय होती है। नायक-नायिका के बिना एक पल भी अकेला रहने की कल्पना भी नहीं करता है। वह चाहता है कि उसकी प्रेयसी उसकी नजरों के सामने रहे । यदि नायिका उससे दूर जाती है तो उसके प्राण निकलने लगता है।
हम खां रजऊ की बिछुरन व्यापी,कड़त नई जी पापी।
भरमरात जे प्रान फिरत हैं, थर-थर देइयां कापी ।
को जाने लएं जात प्रान कों, सिर पै मौत अलापी।
उनके ऐंगर रए ईसुरी, वे मानस पिरतापी।
महाकवि ईसुरी प्रीति की रीति का वर्णन करते हुए कहते हैं कि प्रीति का बन्धन स्थाई होता है। वह जब जुड़ जाता है तो तब तक नहीं टूटता, जब तक तन में प्राण रहते हैं।
करकें प्रीति मरे बहुतेरे, असल न पीछूं हेरे।
फुदकत रहे परेवा बन के, बिरह की झार झरेरे।
ऐसे नर थोरे या जग में, डारन नाई फरेरे।
नीत तकन ईसुर की ताकन, ने ही खूब तरेरे।
प्रेमी को प्रेयसी की यादें दिन रात सताती हैं। वह लाख कोशिश कर ले, किन्तु भुला नहीं सकता।
खबरें आदी रात को आवैं, कांलौ मन बिसरावें।
निस दिन चर्चा करें तुमारी, सोउत में बर्रावें।
जो तन हो गओ सूख ठठेरो, न्यारे हाड़ दिखावें।
ईसुर कात तुमारो होकंे, कओ कीकौ हो जावैं।
महाकवि ईसुरी कहते हैं कि जिसने प्रेम किया हो, वही प्रेयसी के विछोह की विरह पीड़ा को समझ सकता है। यह न तो कहने से कही जा सकती है और न कही हुई को कोई समझ सकता है । वे कहते हैं यह पीड़ा वही समझ सकता है, जिस पर बीती हो। ईसुरी ने इस सम्बंध में कहा है।
करके प्रीत करे सौ जाने, कात की कोउ न माने।
दाबन लगे दूर से नकुआ, लासुन भरे बसाने।
काने कछू-कछू कै आवै, ना रए बुद्धि ठिकाने।
बिगरे कैउ आ दिन से ईसुर, हम वे तरे निसाने।
तुम बिन तड़प रहे हम दोऊ, आन मिलो निर्मेही।
सोने की जा बनी देईया, कंचन जुबना दोई।
जबसे बिछुरन तुमसे हो गई, नहीं नींद भर सोई।
कात ईसुरी बिना तुम्हारे, हिलक-हिलक कै रोई।
तलफन बिन बालम जौ जीरा, तनक बंधत न धीरा।
बोलन लागे सैर पपीरा, बरसन लागो नीरा।
आदी रात पलंग के ऊपर, उठत मदन की पीरा।
ईसुर कात बता दो प्यारी, कबै मिलै जे जीरा।
नायक-नायिका को जब विछोह का दर्द सहन नहीं होता है, तब पश्चाताप करने लगते हैं।महाकवि ईसुरी कहते हैं अब तो जो हो गई सो हो गई, किन्तु अब अगले जन्म में ऐसी भूल नहीं करेंगे।
अब न होवी यार किसी के, जनम-जनम खां सीके।
यारी करे में बड़ी बिबूचन, बिना यार के नीके।
निठुआं ज्वाब दओ है उनने, हते न जीके नीके।
मानुष जनम करौ ना ईसुर, ककरा करो नदी के।
महाकवि ईसुरी Mahakavi Isuri कहते हैं कि एक बार किसी से लगन लग गई तो फिर कितनी भी कोशिश कर लें, आप भुला नहीं पायेंगे। जब तक जीवित रहना है, तब तक उन्हीं का होकर, आगे की राम जाने।
जा नई मिटत प्रीति की यारी,जिगर भरी मतवारी।
मन चल जात सुरत आंगना,से बिना वदन पैड़ारी।
कारे परे करेजे भीतर, मारी नैन कटारी।
ईसुर कात तुमारे लाने, हैं तन त्याग हमारी।
महाकवि ईसुरी Mahakavi Isuri कहते हैं कि बिछोह की पीड़ा ऐसे तड़पाती है जैसे आग से जले अंगों में जलन। विरही को हर चीज, हर क्रिया प्रक्रिया तड़पाती है। उसे कुछ भी अच्छा नहीं लगता। बस अगर उसे कुछ सताता है तो अपने दिलवर-दिलवरी का मिलन, सुखद मिलन।
प्रीतम बिलग विदेश रहे री, ते दृगनीर बहे री।
निपट अकेल निबल पियबिन, बिनलख अंग अनंग दहेरी।
बागन और द्रुमन वन बेलन, कोयल सबद कहेरी ।
कात ईसुर विकल बाम भई,सब सुख बिसर गएरी।
महाकवि ईसुरी की फागों में बिछोह पीड़ा का सचित्र चित्रण देखने को मिलता है। सच भी है, उन्होंने स्वयं इस दर्द को सहा है उसी के अभिव्यक्ति है।
नैहा निरमोही हो डारे, तनक न दर्द बिचारे।
प्रीत लगाय प्रान तलफाये, विष दे काय न मारे।
जाके पठई सोच ना करिये, और जरे पै जारे।
हम तो हेत लगायो जो तन, वे पूरब में हारे।
कहें ईसुरी काये सजनी,रैन बिछोहा पारे।
नायिका की ओर से नायक को सम्बोधित करके महाकवि ईसुरी शिकायत करने का अंदाज अलह है।
तुमने मोह टोर दए सैंया, खबर हमारी नइयां।
कौंचन में हो निबकन लागीं, चुरियन छोड़ें बैंया।
सूकी देह छिपुरिया हो रई, हो गए प्रान चलैयां।
जे पापिन न सूखी अँंखियां, भर-भर र्रइं तलैंया।
उन्हें मिला दो हमें ईसुरी, लागों तोरी पैंया।
महाकवि ईसुरी ने रजऊ के वियोग की पीड़ा झेली है, जिसे वे अपने जीवन में कभी भुला नहीं पाए। उनकी विरह वेदना दर्द किस तरह छलता है।
जब से रजऊ से नैन लगाए, बडे़ कसाले खाए।
तरवन तरे फलक पर आए, उप नए पावन धाए।
भए अधमरे प्रेम के बस में, प्रान निकर न पाए।
ककरा गड़े कसक गए कांटे, सेरन खून बहाए।
ईसुर भौत भुगतना भुगती, तऊं न भले कहाए।
प्रेम एकपक्षीय नहीं होता है। सच्चा प्रेम वही है जो दोनों ओर से हो। जितना नायक की ओर से उतना ही नायिका की ओर से भी, तभी उसे सच्चा प्रेम कहा जा सकेगा।
हम पे नाहक रंग न डारौ, घरै न प्रीतम प्यारौ।
फीकी फाग लगत बालम बिन, मन में तुमई बिचारौ।
अतर गुलाब अबीर ना छिरकौ,पिचकारी ना मारौ ।
ईसुर प्रान पति बिन सूझे, सारौ जग अंधियारौ।
तुमरी बिदा न देखी जाने, रो-रो तुम्हें बताने।
कोसक इनके संगे जाने,भटकत पांव पिराने।
पल्ली और गदेली जोरै, नये-नये ठन्ना पाने।
जो कऊं होते दूर तलक वे, सुनी न जाती काने।
रंधे भात जे कहिए ईसुर, कीके पेट समाने।
जो जी बेदर्दिन खां दओ तो, जब मन ऐसो भओ तो।
बिगरी जात पराई बातन, जब तौ फिरत भओ तो
टूटो नेह नाव धरवाओ, निगओ सवई ने कओ तो।
आई नहीं ध्यानतर एकऊ, हर-हर तरा सिकओ तो।
समझ के सुपरस करो ईसुरी, हटक पैल से दओ तो।
विरहन नायिका अपनी व्यथा का किस तरह बखान करती है…..।
रस्ता आधी रात लौ हेरी, छैल बेदरदी तेरी।
तलफत रही पपीहा जैसी, कहां लगाई देरी।
भीतर से बाहर हो आई, दै-दै आई फेरी।
उठ-उठ भगी सेज सूनी से, आंख लगी न मेरी।
तड़प-तड़प सो गई ईसुरी, तीतुर बिना बटेरी।
जो हम विदा होत सुनलैवी, माडारें मर जैबू।
हम देखत को जात लुबे, छुड़ा बीच में लैबू।
अपने ऊके प्रान इकट्ठे, एकई करके रैबू।
ईसुर कात लील को टीका, अपने माथे दैबू।
वियोग श्रृँगार का एक पक्ष ये भी कहा है महाकवि ईसुरी ने कि जिसे हम अपनाना चाहते हैं वह दूर भागता है। हम उसके प्यार के दीवाने हैं और वह हमसे नफरत कर दूर-दूर भागती है। यह कैसा प्यार है, इससे तो नफरत ही उत्पन्न होती है प्यार नहीं। यह संयोग की विपरीत प्रतिक्रिया है।
हमसें काये छरकतीं राती, औरन खां पतयातीं।
औरैं आंय तनक दै-दै के, दौर-दौर के जातीं ।
हमतौ कहैं प्रेम की बाते, अपुन जहर सौ खातीं।
जो मिल जायें गली खोरन में, काट किनारौ जातीं।
अटके प्रान ईसुरी तुममें, हमें लगा लो छाती।
वियोग श्रृँगार में नायक-नायिका जब विरह व्यथा से बहुत अधिक पीड़ित हो चुके होते हैं तो उन्हें क्रोध और ग्लानि होने लगती है और वे बुरा-भला कुछ भी बोलने लगते हैं।
तुमसे हमने कीन्हीं यारी, गई मति भूल हमारी।
पीछूं से सब हाथ हिलाके, हँसी करे संसारी।
भये बर्बाद असाद कहाए, ऐसी शान बिगारी ।
गओ मौ लौट जानके खा गए, खांड के धोखे खारी।
अपने हातन मारी ईसुर, अपने हाथ कुलारी।
यार और यारी बड़ी विचित्र स्थिति पैदा कर देते है। मुहब्बत किसी से और विवाह किसी और से कर लेने पर दोनों ही नायक और नायिका विरह अग्नि में जलते हैं और एक-दूसरे पर दोषारोपण तक करने लग जाते हैं। वे यह भी नहीं सोचते कि उन्होंने किन परिस्थितयों में विवश होकर यह निर्णय लिया है। ईसुरी भी अपनी नायिका से कह रहे है।
अबकी बेर बिछुरतन मरने, का जाने तोय करने।
तुम सुख चाओ हमे दुख दैकें, तोरौ जनम बिगरने।
मोरी कौन ख़बर राने जब, तोय खसम संग परने।
दूर से लखें रजऊ आवत हैं, पांव पुरा पर परने।
रै जै बिसर ईसुरी तुम खां, तुमना हमें बिसरने।
मैने तोरे घर के लाजें, बाहर नीरे काजें।
जितने की जा भाव भगत न, बजत फूट गई झाजें
भए नटखटा दास के लाने, छिन में नीचे छाजें
हे परमेसुर मोरे ऊपर, गिरी गरज के गाजे।
वे न मिली सरम गई ईसुर, धरती फटे समाजें।
प्रेम सच्चा है या झूठा, स्वार्थमय है या निःस्वार्थ, इसे प्रेमीजन भी समझ नहीं पाते और प्रेमपास में बिंधते चले जाते है। किन्तु जब धोखा खाते है तो पश्चाताप करते हाथ मलते हैं, किन्तु यह सदैव एक सा नहीं होता है। सच्चा प्रेम निःस्वार्थ होता है और उसका निर्वाह भी दोने ओर से करने के प्रयास होते हैं, किन्तु कुछ परिस्थितियाँ ऐसी उत्पन्न हो जाती हैं कि उन्हें ना चाहकर भी ऐसे निर्णय स्वीकारने पड़ते हैं जो उन्हें कतई स्वीकार्य नहीं होते है।
जो तुम जुड़ी बनी रई हमसे, माने बुरओ जनम सें।
प्रीति की रीति निभावत आये, हम तो अपनी गम से।
राजी बुरी तई सिर ऊपर, भई सो भई करम सें।
दुबिधा एक दिया ना जावै, दगाबाज की दम से।
ईसुर मोरी कोद रजऊआ, हुए भलाई तुम सें।
बिछुड़न की पीडा विरह वेदना का अनुभव वही कर सकता है, जिसने इसे भोगा हो। प्रेम करना आसान है, किन्तु निर्वाह उतना ही कठिन। चलो मान भी लें कि प्रेमी-प्रेमिका में सच्चा प्रेम है, किन्तु यह दुनिया क्या उनके इस प्रेम का निर्वाह करने देगी। जब वे असमर्थ होकर बिछुड़ जाते हैं तो फिर एक-दूसरे के लिए बहुत तड़पते हैं।
तुम खां रटत रात भर रौवो, और बिछुर गए सोवो।
भींजत रात बिछौना अंसुवन, सब दिन करत निचोवो।
कांलों कहे तुमें समझावे, नाहक बचपन खोवो।
ईसुर बैठ रहे घर अपने, सओ डीलन कौ ढोवो।
हो गई देह दूबरी सोसन, बीच परगओ कोसन।
सरबर दओ बिगार स्यानी, कर-कर शील सकोचन।
इतनी बिछुरन जानत नई ते, भूले रये भरोसन।
भई अदेखे देखवे खैंयां, अबका पूंछत मोसन।
ईसुर हुए कछु ई जीखां, तुमई खां आवे दोसन।
सच्चा कवि वही है जो संसार की हर होनी-अनहोनी का आकलन कर उसे कविता का रूप दे सके। कवि की मौलिकता का प्रमाण भी वही होता है कि वह जो देखता है, जो सुनता है और जो अनुभव करता है, उसी को अपनी कविता में कह देता है। महाकवि ईसुरी की कविताओं में यह गुण प्रधानता भरपूर देखने को मिलती है। वे विछोह की जलन से तड़पते प्रेमियों की दशा का जिस तरह वर्णन कर रहे हैं।
जानै कौन बाज दिन खाई, मित्र न देत दिखाई।
दीनी छोड़ लाज परिजन की, कुल की शान गमाई।
सास-ससुर छोड़े ससुरे में, चली मायके आई।
बरै भाग कोऊ अपनो न भओ, भुगतौ मौत सवाई।
का दिन अपने आए ईसुर, कोऊ न होत सहाई।
नैयां कोउ को कोउ सहाई, सब दुनिया मजयाई।
गीता अर्थ कृष्ण कर लाने, पिता सो जाने माई।
जा दई देह आपदा अपने, कीखों पीर पराई ।
विपत परे में एक राम बिन, कोउ न होत सहाई।
अपने मरैं बिना ना ईसुर, देवै सुरग दिखाई।
ऐसो अवगुन करो न मैने, खबर बिसारी तैने।
सारी बुरी मरे के ऊपर, सब लोगन की कैंने।
जस अपजस की बांध पुटरिया, ऐई हाथ में रैने।
माता उठ आमाता दोहैं, दाता दया अदैनें।
इस बस्ती में बसे ईसुरी, कुमत-सुमत दोऊ बैनें।
महाकवि ईसुरी ने अपनी नायिका को विश्वास दिलाते हुए कहा है कि उसने अपने जीवन में तुम्हारे (रजऊ) बिना किसी और का ख्याल भी अपने मन में नहीं आने दिया है। तुम्हारे लिये ये जीवन है और तुम्हारे लिए ही जान दे देने का प्रण है…।
चाहो तुम सिवाय ना औरे, और पै दिल ना दौरे।
तुम सिवाह कोऊ मनै ना आवै, जेहि बांधे सिर मौरें।
जी के संग में परी भांवरे, परी न एकऊ रोरे।
हमें सनेही ऐसे सूझत, ज्ये सूझत शिव गौरे ।
हाल दिनन में रहे ईसुरी, बसती बसत बगौरें।
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मोरे तुम सिवाह न दूजौ, तुम ना और की हूजो।
तुम सिवाह ई संसारी में, इन आंखिन ना सूझो ।
जो प्रन होवै पतिव्रता को, प्रान त्याग तन भूजो।
मन मरदन पै कौन चलावै, नहीं बालकन बूझो।
ईसुर अपने जनम भरे में, एक देवता पूजो।
महाकवि ईसुरी Mahakavi Isuri कहते हैं कि विछोह की पीड़ा बड़ी कष्टदायी होती है। इसे वही जान पाता है जिसके दिल में बिछोह का दर्द छिपा हो।
कैसे मिटै लगी कौ घाओ, ई की दवा बताओ।
दिन या रात चियारें परतीं, ज्वर ना खाए चाओ।
गुनिया और नावते हारे, खेल-खेल के माओ।
कात ईसुरी कैसे करिए, चलत न एक उपाओ।
महाकवि ईसुरी ने प्रीति को परिभाषित हुए कहा है कि इस पीड़ा को कोई समझता नहीं है, किसे कैसे समझाएं। इसके मर्म को समझने की ना तो कोई कोशिश करता है और अगर समझाने का प्रयास करो तो उपहास उडाते हैं।
सब कोउ होत प्रीत से न्यारो, ऊंचे गरे पुकारें।
यही प्रीति की ऐसी बिगरन साहूकार बिगारे।
राज बादशाह छोड़ प्रीति से, बेई जोग पग धारे।
ऐई प्रीति से लैला पीछूं, मंजनू सो तन गारे।
ऐई प्रीति से ईसुरी हो गए, ऐसे हाल हमारे।
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कीसो कहें प्रीति की रीति, कयें से होत अनीति।
मरम ना जाने ई बातन कौ, को मानत परतीती।
सही ना जात मिलन को हारी, बिछुरन जात न जीती।
साजी बुरई लई सिर ऊपर, भई जो भाग बदीती।
परबीती नहीं कहत ईसुरी, कात जो हम पर बीती।
महाकवि ईसुरी कहते हैं कि प्रेम में विछोह पीड़ा किसी से कहते नहीं बनती है और किसी से कहो भी तो उपहास के पात्र बनो। किन्तु इसे सह पाना बड़ा कठिन है, फिर भी जो भी है भोगना तो पड़ता ही है, क्योंकि यह कहीं से आई हुई नहीं, स्वयं के द्वारा की गई है। मैं और किसी की क्या कहूँ, मैं तो आप बीती को कह रहा हूँ, जो मैं भोग रहा हूँ, सहन कर रहा हूँ।
यारी सदा निवाए रइयो, बीच बिसर न जइयो।
जैसो दिन है हाल दिनन में, ऐसेऊं राखीं रइयो।
सुनके बात जिया मोरे की, अपने जिउकी कईयो।
अबै कछू ना बिगरो ईसुर, बांय समर के गइयो।
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करके नेह टोर जिन दइयो, दिन-दिन और बड़इयो।
जैसे मिलै दूद में पानी, ऊसई मनै मिलइयो।
हमरो और तुमारौ जो जिऊ, एकई जानौ रइयो।
कएं ईसुरी बांय गए की, खबर बिसर जिन जइयो।
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बेला आदी रात पै फूला, घर में नईयां दूला।
अपनी छोड़ और की कलियन, भलौ भंवरला भूला।
जौ गजरा की खां पैराऊं, उठत करेजे सूला।
छूटन लागी पुहुप परागे, दृगन कन्हैया झूला।
ईसुर सुनत डगर धर आवें, नगर देह रमतूला।
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मोरे मन की हरन मुनैया, आज दिखानी नइयां।
कै कऊं हुए लाल के संगै, पकरी पिंजरा मइयां।
पत्तन-पत्तन ढूढ फिरे हैं, बैठी कौन डरइयां।
ईसुर उनके लाने हमने, टोरी सरग तरैंयां।
महाकवि ईसुरी ने कहा- रहना तो वहीं का अच्छा लगता है, जहाँ चाहने वाले हों और जिनसे चाहत हो, अगर वे वहाँ न हों तो फिर ऐसी जगह रहने का क्या मतलब रह जाता है ….।
अब ना लगै गाँव में नीको, मित्र बिछुरगओ जीकौ।
आवौ-जावौ करे रातते, अब मौं देखों कीकौ।
कर और बार पुरा पाले में, लगत मुहल्ला फीकौ।
सौने कैसो पानी ईसुर, गओ उतर मों ईकौ।
महाकवि ईसुरी ने विरह पीड़ा के वर्णन में कहा है कि यह ऐसी आग है जो पानी से बुझाने से बुझती नहीं है। ये आग तो तभी बुझती है, जब विरही को उसका चाहने वाला मिल जाय।
होने जबई करेजो ओरौ, मिलै मिलनिया मौरौ।
परचत रए बिरह के अंगरा, छनकत रत रओ थोरौ।
जल के परत भवूका छूटत, कितनऊ सपरौ खोरौ।
और-और परचत है ईसुर, पंखन पवन झकोरौ।
महाकवि ईसुरी Mahakavi Isuri कहते हैं कि प्यार-मुहब्बत का चक्कर होता ही है बड़ा कठिन जिस किसी को ये चक्कर पड़ जाता है, उसका चैन छिन जाता है, खुशी चली जाती है, शरीर विरह आग में जलता रहता है।
जबसे भई प्रीत की पीरा, खुशी नई जो जीरा ।
कूरा-माटी भओ फिरत है, इतै उतै मन हीरा।
कमती आ गई रकत-मांस की, बहै दृगन से नीरा।
फूकत जात बिरह की आगी, सूकत जात सरीरा।
ओई नीम में मानत ईसुर, ओई नीम कौ कीरा।
संदर्भ-
ईसुरी की फागें- घनश्याम कश्यप
बुंदेली के महाकवि- डॉ मोहन आनंद
ईसुरी का फाग साहित्य – डॉक्टर लोकेंद्र नगर
ईसुरी की फागें- कृष्णा नन्द गुप्त
मार्गदर्शन-
श्री गुणसागर शर्मा ‘सत्यार्थी’
डॉ सुरेश द्विवेदी ‘पराग’
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