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Vaibhav Laxmi Vrat Katha वैभव लक्ष्मी व्रत कथा

बुन्देलखण्ड की औरतें कैऊ तरा के उपास करतीं । कछू जनी वैभव लक्ष्छमी Vaibhav Laxmi Vrat Katha पूजा करती । जौ व्रत औरते हर शुक्रवार खौं करतीं हैं । आज काल के भरे-पूरे परिवार की बऊयें ई व्रत खौं बड़े मन लगाकै उर नियम सैं करत हैं। घर की कोनऊ बड़ी-बूढ़ी औरत या गाँव की पंडितानी ई पूजा में अपनौ सहयोग देत रती हैं।

शुक्रवार के दिना सबई जर्नी सपर खोर कै Vaibhav Laxmi Vrat Katha वैभव लच्छमी की पूजा विस्तार लेत है । एक पटापै पटरा बिछाकै ऊपै लच्छमी जू की पुतरिया बनाकै धर दई जात। चाँवर उर फूल चढ़ाकै पूजा करी जात फिर कोंनऊ सियानी समानी औरतें किसा कानिया कन लगत, सब जनी अपने हातन में चाँवर लैके कथा के लाने मन लगाकै बैठ जात, ई मौका पै पंडितानी बऊ ऐसी कानिया कन लगती-

एक गाँव में एक माते कक्का हते। उनके लिंगा धन माया की कोनऊ कमी नई ही । हर तरा सैं उनको घर भरो- पूरौ हतो। अच्छी किले कैसी बखरी, लम्में चौरो आँगन, अच्छी खेती पाती, ढोर- भैंसे। राजन कैसी गिरस्ती हती उनकी, गाँव भर में उनकी बंदी बंदत हती और छोरी छूटत हती। उनके हुकम के सामने काऊ की नई चल पाउतती ।

माते के चार ठौले लरका हते। जैसे-जैसे वे स्याने होत गये सो उनको ब्याव होत गऔ । अब का कने चारई बऊये घरै आ गई। लरका बऊवन सैं उनकौ घर हमेसई भरों- भरों सो लगत तो । माते की तीन बऊयें तौ अपनी घर गिरस्ती के कामन में जुटीं रत्तीं । अकेले हल्की बऊ खौं घर गिरस्ती से कौनऊ मतलब नई हतो । वा हमेसा पूजई पाठ करबे में जुटी रत्ती ।

हर शुक्रवार खौं वैभव लक्ष्मी के व्रत करकै दिन-दिन भर पूजा उर कथा सुनबे में काड़ देती । ऊके सास-ससुर कमेली तीन बऊँवन खौं तौ भौत चाऊतते । अकेले हल्की बऊ सै मनई मन नाराज रत्ते । अकेले वा हती अपनी धुन की पक्की । उयै काऊसै कछू मतलब नई रत्तो। ऊकीतौ ऐसी कानात हती कै सुनिये सबकी करियै मनकी।

ऊके ससुर ने उयै आलसन मानके घर सैं निकार दओ । उर उयै खेत की मैड़ पें टपइया बनाकै जुनई कै भुटा रखावे कौ काम सौंप दओ। वा मौगी चाली खेत की मैड़ पै एक जुनई कौ खेत रखावन लगी, तोऊ ऊने अपनौ पूजा पाठ नई छोड़ो। ऊ साल बैभव लच्छमी की ऊपै ऐसी कृपा भई कै ज्वार में बड़े-बड़े भुन्टा पैदा हो गये ।

उर जब उन भुंटन के काटवे कौ समय आव, सोऊ जुनई कै दानन की जगा मोती के दाने झरन लगें। जीने सुनी सो बेऊ अचम्भो खाकै रै गओ । हराँ – हराँ जा खबर सबरे गाँव में फैल गई। उर गाँव भर के आदमी खेत खौं देखबे पौंचे । माते ने उन मोतियन खौं देखकै अपनी हल्की बऊ सै दै पूछी कै बेटा जौ सब कैसे हो गओं । वा बोली कै हम का जाने बेई बैभव लच्छमी जाने जिनकी कृपा सैं सब चमत्कार भओ है ।

पूजा कोनऊ होय उर कजन सांसे मन सैं करी जाय तौ ऊकौ फल मिले बिगर नई रत् । ईसै पूजा साँसे मनसें करी जाय । ढोंग दिखावे की जरूरत नइयाँ सांसौ । झूठौ तौ भगवानई जानत, उनसे कौऊ का छिपा सकत।

भावार्थ

बुंदेलखण्ड में महिलाएँ अनेक प्रकार के व्रत और उपवास करती हैं, जिनमें वैभवलक्ष्मी का भी एक महत्त्वपूर्ण व्रत है। इस व्रत को महिलाएँ शुक्रवार के दिन रखती हैं। आजकल साधन संपन्न परिवारों की स्त्रियाँ इस व्रत को विधि-विधान पूर्वक रखती हैं। घर की वयोवृद्ध महिलाएँ अथवा ग्राम की पंडितानी इस पूजा में सहयोग देती हैं ।

शुक्रवार के दिन स्नान करके वैभवलक्ष्मी की पूजा विस्तार ली जाती है। एक चौकी पर लाल रंग का वस्त्र बिछाकर वैभवलक्ष्मी की मूर्ति बनाकर उस पर स्थापित कर दी जाती है। उन पर चावल, चंदन, धूप, दीप और नैवेद्य चढ़ाकर श्रद्धाभाव से पूजा की जाती है और इसके बाद वैभवलक्ष्मी की महत्ता पर आधारित वयोवृद्ध महिलाएँ कथा सुनाया करती हैं और अन्य महिलाएँ अपने हाथों में चावल और फूल लेकर बड़े ही श्रद्धाभाव से कथा सुनती हैं । उस व्रत पर कही जाने वाली एक लोक कथा का सारांश यहाँ प्रस्तुत है –

एक गाँव में एक ग्राम के मुखिया निवास करते था। घर में किसी भी तरह की कोई कमी नहीं थी- आँगन, लम्बी चौड़ी खेती । गायें, भैंसें, बैल – सब कुछ था। घर में उनकी शान-शौकत तो राजाओं से कम नहीं थी। उनके सामने गाँव के लोग मुँह नहीं खोल पाते थे । मुखिया जी के चार लड़के थे। जैसे-जैसे वे विवाह योग्य हुए उनका विवाह हो गया और चारों पुत्रवधुएँ घर में आ गईं।

अब क्या था मुखिया जी का सारा घर पुत्र और पुत्रवधुओं से भर गया। मुखिया जी की तीन वधुएँ तो घर- गृहस्थी के कार्यों में व्यस्त रहा करती थीं, किन्तु उनकी छोटी बहू को घर-गृहस्थी से कोई मतलब नहीं था। वह तो हमेशा पूजा-पाठ करने में व्यस्त रहा करती थी । वह हर शुक्रवार को व्रत रखकर वैभवलक्ष्मी की पूजा में पूरा दिन व्यतीत कर देती थी ।

उसके सास-ससुर काम करने वाली तीनों वधुओं से बहुत प्रेम करते थे। छोटी बहू से मन ही मन नाराज रहते थे । छोटी बहू सास-ससुर की नाराजी की चिंता न करते हुए अपनी धुन में मस्त रहा करती थी । उसे तो ये कहावत स्मरण थी कि ‘सुनिये सब की, करिये मन की’।

उसके सास-ससुर ने उसे अकर्मण्य मानकर अपने घर से निकाल दिया था। वह बेचारी ज्वार के खेत की मेड़ पर झोपड़ी बनाकर ज्वार की रखवाली करने लगी, किन्तु उसने वैभवलक्ष्मी की पूजा का नियम नहीं छोड़ा। झोपड़ी में रहकर भी वह नियमानुसार पूजा-पाठ करती रही। उस पर वैभवलक्ष्मी की उस वर्ष इतनी ज्यादा कृपा हुई कि उसकी ज्वार से भारी पैदावार हुई और उनका घर ज्वार से भर गया।

साथ ही एक आश्चर्य और हुआ कि जब ज्वार के भुट्टे में से मोतियों के दाने झरने लगे । जिसने यह समाचार सुना वह आश्चर्यचकित हो गया । धीरे-धीरे यह खबर सारे गाँव में फैल गई। सारे गाँव के लोग इस आश्चर्यजनक दृश्य को देखने के लिए खेत पर एकत्रित हो गए। मुखिया जी ने अपनी छोटी बहू से बड़े प्यार से पूछा कि बेटा ये सब कैसे हुआ है? वह बोली कि पिता जी! हम क्या जानें, ये तो वही वैभवलक्ष्मी जी ही जानती होंगी, जिनकी मैं पूजा करती हूँ।

यह बात सत्य है कि यदि पूजा किसी भी देव की – की जाय, उसका फल समय आने पर पुजारी को अवश्य ही प्राप्त होता है । साधना और आराधना कभी निष्फल नहीं होती। अतः पूजा सच्चे मन से करना चाहिए। भगवान आडम्बर से कोसों दूर रहते हैं।

दसारानी व्रत कथा 

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