Dasarani Vrat Katha दसारानी व्रत कथा

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चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की दशमी खों  दसारानी व्रत कथा Dasarani Vrat Katha को पूजन करो जात । एक गाँव में मताई बेटा रत्ते । लरका कौ बाप तौ हल्कई में चलो गऔ तो । जैसे- तैसै हांत घसीट-घसीट कै मताई ने लरका खौं पाल पाओ तो । घर में थोरक सी खेती किसानी हती। उयै अदिया बटिया पै दयै सै थोरौ नाज मिल जात तौ ओईसै उननकी गुजर बसर चलत रत्ती।

हराँ-हराँ लरका लोट पीट कै सियानौ हो गओ । उर अपने घर की खेती किसानी समारन लगो। ऊकी मताई खौं एक आसरौ हो गओ । दो-तीन गइयाँ भैंसे हो गई घर में । दूद मठा होन लगो। अब तौ कोनऊ कमी रई नई हती उनकै घर में । अच्छौ खातौ पीतौ घर देखकै एक गाँव के भले आदमी ने लरका की भौरिया पार दई । अब अच्छी तरा सैं उनकी घर गिरस्ती चलन लगी।

मताई ढोर बछेरू करकै खेत पटिया देखन लगी । लरका सो किसानी में रात दिन जुटऊ रत्तो । उयै आराम करबे फुरसतई नई रत्ती । उनके घर कौ सबई दालुदुर दूर हो गओं तो। बऊने तौ सब घर गिरस्ती समारलई ती। मताई खौं तौ समय सै ताती रोटी मिल जातती उर उहें चानई का हतो । उनकौ जादाँतर समय खेतई की मैड़ पै कति तौ । उतई रोटी पौंच जात ती। कनलगत कै जितै मिली दो उतई रयै सो। दुनिया की चिकचिक में परबे की उर्ने गुंजाइशई नई हती।

एक दिना उनके घर की आगी बुज गई । वे दोई जनी सास बहू कण्डा लये दोन-दोन फिर आई। अकेले उर्ने काउनें आगी नई दई । कायकै गाँव के हर घर में दसारानी की पूजा हो रई ती। अब बताव उनकौ कैसे चलौ पर रोटी बनाबे के लानें । घर-घर औरते दसा रानी की किसा कै रई तीं । सास खौं तौ ब्रत उपास सैं कछू लैने नई हतो । अकेलै बऊ कौ जिऊ ललचान लगो ब्रत करबे के लाने ।

सास के डरन के मारै मौसे तौ कछूनई कई नईतर वे तनकतनक चिड़- चिड़ान लगत ती। बुढ़ापे में लोग लुगाईयन की मति कछु बिगर सी जात उर वे बात-बात पै नाराज होन लगत । कै चोखरे की दौर मगरेनौ कै घर उर कै हार खेत । बऊतौ मौका की तलाशई में हती । सास क्याऊँ औलट भई उर ऊनें दसारानी की पूजा करी । एक दिना ऊकी सास खेत कुदाऊँ जान लगी। उर अपनी बऊ सै बोली कै देखौ अब हम घरै लौट कै नई आँय तुम हमें रोटी खेतई पै पौंचा दिइयौ।

बहू की तौ फूँद में हुन कड़ गई बोली हओ बाई । वा बेफिकर हो गई ती। ऊने जल्दी सै पौर के किवारन की सांकर लगाई उर बेफिकरी सै आँगन में पूजा विस्तारी मन लगाकै दसारानी की पूजा करी । किसा कै लई । पोतनी की दसारानी कौ लोंदा सै भेंटई रई तीं इतेकई में सास खेत लौट आ गई। पूजा करत में तनक देर हो गई ती । सोऊ सास खौं समय पै रोटी नई पौंच पाई।

सोऊ वे लौट कै घरै आ गई पौर के किवार भड़कै कन लगी कै खौलौ किवार देर हो गई तुम अनौ का कर रई । ऊ दसारानी मैं भेंटई रई ती । इतेकई में सास पौंच गई बऊ ने दसा रानी कौ गोला उलात-उलात में मटकिया में डार दओं । उर उतै कौ चौक मिटा मिटू कै किवार खोले सास भीतर आकै बैठ गई। बहूनें रोटी तौ बना कै धरई लई ती । ऊने उनको आउतनई सास खौँ रोटी पर्स दई। इतैकई में ऊकौ घरवारौ रोटी खाबे खौं आ गओ ।

बहू ने उयै सोऊ थारी लगा दई । दौई जनें मताई बेटा रोटी खान लगें । खातन में लरका बोलौ कै तनक मठा चानें तौ । अब वा मठा काँसै देबै ऊने तौ मठा की मटकिया में दसारानी कौ पोतनी कौ गोला डारई दओ तो । अब वौ मठा खाबे लाख कैसें हो सकत तौ। ऊमें तौ पोतनी घुरई गई हुइयै सोवा मठा के लाने कनबेरी दये रई । उर वो लरका हर-हर बेरऊ मठई माँगत रओ । अकेलै बऊ मठा खौं कैसे जाबै।

अब ऊकी सास कन्नो धीरज धरबै । वा तनक कर्रया कै बोली कै लरका तौ घन्टा भर सै मठा माँग रओं उर तै चिमानी बैठी । तैने घर कौ मठा और काऊयें दै दओं का । सास उठी उर मटकिया में सै मठा भरबे पौंची । मटकिया कौ मठातौ जांकौ तौ धरो तौ । अकेले ऊमें एक सोने कौ गोला डरो दिखानौ। दसारानी की कृपा सैं पोतनी कौ गोला सौने कौ गोला बन गओं। बहू ने सुनी सोऊ उयै सोऊ अचम्भौ भओं के जौ हो का गओं वा तौ जान गई कै जा दशई रानी की कृपा है।

सासनें पूछी कै जौ सोने कौ गोला काँसे आव । तुम साँसी बताव अब बहू का करें उयै साँसी- साँसी कनई आई। सास ने सोसी कै हमई दसारानी की पूजा करे सोऊ हमइयै सोने को गोला मिल जैय। ऊने अपनी बहू सैं पूजा कौ विधान पूछो। उर फिर दसारानी की पूजा कौ ढोंग करन लगी। पैला तौ ऊने बहू सै दसारानी की किस्सा सुनवाई उर फिर पोतनी कौ बड़ो गोला बनाव ।

ऊनें सूवई मिला भेंटी करी उर फिर उयै मठा की मटकिया में डार कै बैठी रई । लरका खौं रोटी परसी उर फिर ऊसै मठा मँगवाव । उर जाकैं जईसै मटकिया कौ मठा देखौ सो वौ पोतनी कौ गोला उमें घुर गओ तो। हात डार कै देखौ सो ऊमें उयै कछू नई मिलो । वा तौ करम ठोक कै अपनी बहू से कन लगी कै काय हमें तौ कछूनई मिलो ।

बहू ने हंसकै कई कै बाई भगवान की पूजा बड़ी भाव भक्ति सैं करी जात तबई आदमी खौं कछू सिद्धि मिल सकत। ढोंग ढकोसला करे सैं कोनऊ देवी- देवता प्रसन्न नई हो सकत। भगवान तौ भाव के भूखे होत । उहें तुमाये तमाशन सैं कछू लैने दैने नइया। कजन तुमें दसारानी की पूजा करनई है सो मन से करो उर नियम से करो तबई तुमें सिद्धि मिल पैय ।

भावार्थ

एक गाँव में माता और बेटा निवास करते थे । लड़के के पिताजी का बहुत पहले स्वर्गवास हो गया था। माता ने जैसे-तैसे करके पुत्र का पालन-पोषण किया। उनके घर में थोड़ी सी जमीन थी। उसकी माँ उस जमीन को अधिया-बटिया पर दे देती थी, जिससे उनके उदर-पोषण के लिए अनाज मिल जाता था। धीरे-धीरे वह लड़का बड़ा हो गया और अपने घर का कामकाज सँभालने लगा।

अपनी खेती भी अपने ही हाथ से करने लगा । उसकी माँ को अपने बेटे का आश्रय मिलने लगा। लड़के ने दो-तीन गायें- भैसें और पाल ली थीं, जिससे घर में पर्याप्त दूध मठा होने लगा । अब उनके घर में किसी भी प्रकार की कोई कमी नहीं थी । अब उनका घर हर प्रकार से भरा-पूरा हो गया। अनाज, दूध, दही, घी सब कुछ था उनके घर में ।

अच्छा भरा-पूरा घर देखकर किसी एक भले आदमी ने उसके साथ अपनी लड़की का विवाह कर दिया । अब बहुत ही अच्छी तरह से उनकी घर-गृहस्थी चलने लगी। उसकी माँ पशुओं की सेवा करती, लड़का रात-दिन मन लगाकर कृषि कार्य में जुटा रहता था । उसे विश्राम करने का समय भी नहीं था। धीरे-धीरे उनका घर पूर्ण संपन्न हो गया। उसकी घरवाली तो बहुत ही चतुर थी । उसने घर-गृहस्थी के सारे काम- काज अच्छी तरह से संभाल लिए थे। उसकी माँ को समय पर गर्म और ताजा भोजन मिल जाता था।

माँ पूर्ण संतुष्ट थी, अब उसे और आवश्यकता ही क्या थी? माता जी का अधिकांश समय खेत की मेड़ पर ही व्यतीत होता था । माता जी को वहीं समय पर भोजन मिल जाता । वे भोजन करके और ठण्डा पानी पीकर शांतिपूर्वक वहीं विचरण करती रहती थीं। उन्हें तो ये मूल मंत्र भली-भाँति स्मरण था –
रूखा सूखा खाय के, ठण्डा पानी पीव ।
देख पराई चूपड़ी मत ललचाबे जीव।।

उन्हें अब अपनी घर-गृहस्थी से कोई मतलब नहीं था । गृहस्थी के सारे अधिकार तो वे अपनी पुत्रवधू को सौंप ही चुकी थीं। एक दिन अचानक उनके घर की आग बुझ गई । तब दोनों सास-बहू कंडा लेकर पूरे मुहल्ले में भटक आईं, किन्तु किसी ने उन्हें आग नहीं दी, क्योंकि मुहल्ले के हर घर में दसारानी की पूजा हो रही थी । अब उनके सामने चूल्हे में आग जलाने की समस्या उत्पन्न हो गई थी।

हर घर में दसारानी की कथाएँ कही जा रही थीं। उसकी सास को तो व्रत और उपवास से कोई प्रयोजन था नहीं, किन्तु औरतों को व्रत करते देखकर वधू मन में व्रत रखने की इच्छा जाग्रत हो गई, किन्तु अपनी सास के डर से वह कुछ कह नहीं पा रही थी। उसकी सास बात-बात में नाराज होने लगती थी। वृद्धावस्था में प्राय: मति भ्रष्ट सी हो जाती है और मन में चिड़चिड़ाहट सी बनी रहती है।

वह अपनी सास की नजर बचाकर दसारानी की पूजा करना चाह रही थी। वह सोच रही थी कि कब सास खेत पर जाय और कब मैं मन लगाकर पूजा कर लूँ। एक दिन उसकी सास खेत की तरफ जाने के लिए तैयार हो गई। उसने अपनी बहू से कहा कि देखो आज मैं खेत पर जा रही हूँ और लौटकर नहीं आऊँगी, तुम मुझे रोटी वहीं भेज देना । वह तो यह चाहती ही थी, उसने कहा कि हाँ माताजी मैं आपको रोटी समय पर भिजवा दूँगी। सास खेत की ओर चली गई ।

अब क्या था? बहू को पूजा करने का अवसर प्राप्त हो गया । उसने अपने आँगन को पोंछकर लीप-पोतकर तैयार कर लिया और फिर प्रेमपूर्वक दसारानी की पूजा विस्तार ली । मन लगाकर पूजा की, किस्सा सुनाई। फिर उसने समस्त पूजन सामग्री समेट कर एक गोला बनाकर भेंटना चाहा, इसी बीच में उसकी सास खेत से लौटकर घर आ गई, क्योंकि पूजा के कारण सास को समय पर रोटी नहीं पहुँच पाई थी ।

सामने पहुँचकर किवाड़ खटखटाये और बाहर से बोली कि तुम अभी तक क्या कर रही हो? जो अभी तक रोटी नहीं भेज पाई । वह तो हाथ में पूजा का गोला लए हुए ही थी। सास को आते हुए देखकर वह घबड़ा गई और उसने घबड़ाकर उस गोले को ठे की मटकी में डाल दिया और फिर घर का काम करने लगी। उसने आते ही सास के सामने भोजन की थाली रख दी। इसी बीच उसका पति भी खेत से वापस आ गया।

दोनों माँ-बेटे एक ही थाली में एक साथ बैठकर खाने लगे । खाना खाते समय लड़के ने कहा कि थोड़ा सा मठा खाना था। वह सुनकर बहू चुप रह गई । वह जानती थी कि मठे की मटकी में तो पोतनी का गोला पड़ा है, जिसके कारण मठा तो खराब हो ही गया होगा। अब मैं वह मठा खाने के लिए कैसे दूँ। यह सोचकर वह सुनी-अनसुनी करती रही, किन्तु उसका पति मठा की जिद कर रहा था और वह उसकी बात पर ध्यान नही दे रही थी।

यह देखकर उसकी सास अधीर हो उठी और गुस्सा होकर बोली कि मेरा लड़का एक घंटे से मठा माँग रहा हैं और तू कुछ भी ध्यान नहीं दे रही है। सास से नहीं रहा गया और वह मटकी से मठा भरने के लिए चली गई । मटकी का मठा तो पूर्ण साफ और निर्मल था, किन्तु सास को उस मटकी में एक बड़ा सा सोने का गोला पड़ा हुआ दिखाई दिया। दसारानी की कृपा से वह पूजा का पोतनी का गोला सोने का बन गया था । गोला देखकर सास तो चकित हो गई और बहू से पूछा कि इस मठे की मटकी में ये सोने का गोला कहाँ से आ गया है?

वह सुनकर चकित हो गई, किन्तु समझ तो सब गई कि ये सब दसारानी की कृपा से ही हुआ है। सास के बार-बार पूछने पर बहू ने अपनी गुप्त पूजा की सारी कहानी अपनी सास को सुना दी। सास ने सोचा कि ये दसारानी का व्रत तो बहुत अच्छा है । इस पूजा को करने से सोने का गोला मिलता है। अब मैं भी दसारानी की पूजा करुँगी। अपनी बहू से पूजा का विधि-विधान पूछ लिया और वह पूजा करने के लिए तैयार हो गई ।

उसने पूजा विस्तारी, कहानी सुनी, पोतनी का गोला बनाकर मटकी में डाला। रोटी परसी और फिर मठे के लिए मटकी में हाथ डाला तो देखा कि वह पोतनी का गोला मठे में घुल चुका था । मटकी में सास को कुछ नहीं मिला। वह शीश पकड़कर रह गई । बहू से बोली कि अरे! मुझे तो कुछ भी नहीं मिला । बहू ने हँसकर कहा कि माताजी भगवान की पूजा भक्ति भाव से की जाती है। पूजा में व्यर्थ के आडंबर और दिखावे की जरूरत नहीं होती।

भगवान तो केवल भाव के ही भूखे होते हैं । वे प्रदर्शन से तो कोसों दूर रहते हैं । ‘भाव – भक्ति से पूजा करने से ही सिद्धि प्राप्त होती है । मनवांछित फल मिलते हैं, अतः हर पूजा-अर्चना भाव- भक्ति से करना ही उचित है ।

लाला हरदौल – बुन्देलखण्ड के लोक देवता 

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