Singhalgadh Ki Ladai- Kathanak  सिंहलगढ़ की लड़ाई- कथानक

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लेखा पद्मिनी तीन  फेरे के बाद बोली मैं कोई चोरी-चोरी विवाह नहीं करना चाहती। शेष चार फेरे तब होंगे, जब सिंहल द्वीप में आओगे। युद्ध में मुझे जीत करके प्राप्त करोगे। पिता कन्यादान करेंगे।” ऐसा कहकर वह उड़नखटोले में बैठकर उड़ गई। इंदल Singhalgadh Ki Ladai की  कडाई जीत  कर लेखा पद्मिनी से शेष चार फेरे ले कर वापस आता  है

माना जाता है कि सिंहलगढ़ श्रीलंका का ही नाम है। इसको सिंहल द्वीप कहा गया है। श्रीलंका से निकट और कोई द्वीप नहीं है। उन दिनों वहाँ के राजा

सरहनाग की पुत्री लेखा पद्मिनी अतीव सुंदरी थी। तपस्या करके उसने आल्हा के पुत्र इंदल को वर रूप में प्राप्त करने का वरदान माँगा। ईश्वर सबकी इच्छा पूर्ण करते हैं। उसने पता लगाया कि इंदल का भवन कौन सा है, वह सोता कहाँ है?

एक दिन वह उड़नखटोले (हेलीकॉप्टर) पर चढ़कर इंदल के महल में पहुँच गई। उसे जगाया तो वह चकित हो गया। लेखा ने अपना परिचय दिया और विवाह की इच्छा जताई। इंदल विवश था। सामने बैठी सुंदरी को निराश नहीं करना चाहता था। उसने पासे खेलने को कहा। लेखा पद्मिनी ने कहा, “शर्त यह रहेगी कि जो तुम जीते तो मैं यहीं रह जाऊँगी और यदि मैं जीती तो तुम्हें अपने साथ ले जाऊँगी।”

इंदल ने शर्त स्वीकार कर ली। खेल रोज रात को चलता और सवेरे से पहले ही वह लौट जाती। रोज चौसर की बाजी जमती। लगातार कई दिन इंदल जीतता रहा। लेखा भाँवर लेने को राजी थी। तीन फेरे लेने पर वह बोली, “मैं कोई चोरी-चोरी विवाह नहीं करना चाहती। शेष चार फेरे तब होंगे, जब सिंहल द्वीप में आओगे। युद्ध में मुझे जीत करके प्राप्त करोगे। पिता कन्यादान करेंगे।” ऐसा कहकर वह उड़नखटोले में बैठकर उड़ गई।

सवेरे इंदल उठा ही नहीं। प्रातः न स्नान, न पूजा, न नाश्ता। माँ सुनवां, दादी दिवला और रानी मल्हना सभी ने पूछा, पर इंदल ने मन की बात नहीं बताई। सुनवां स्वयं आई और इंदल से प्रेमपूर्वक पूछा तो इंदल ने लेखा के साथ तीन फेरे की बात स्पष्ट कह दी। आल्हा से कहा तो उन्होंने इस बात को महत्त्व नहीं दिया। जब इंदल नहीं माना तो आल्हा ने उसे कैद कर लिया। हाथ-पाँव बाँध दिए तथा सात तालों के पीछे बंद कर दिया। उसने अन्न-पानी भी छोड़ दिया। दुर्गा माँ का ध्यान करने लगा। फिर एक पैर से खड़ा होकर तप करने लगा।

माता को भक्त का पता चला तो वे स्वयं उपस्थित हुईं। सारा परिवार तथा पहरेदार सब सो गए। माता के प्रताप से बंधन सब खुल गए। कार्य सिद्ध होगा। माता ने इंदल को बगिया में फुलवा मालिन को प्रातः से पूर्व नगर से बाहर निकलवाने की प्रार्थना की। फुलवा ने इंदल को जनाने वस्त्राभूषण पहनाए और डोले में बिठाकर नगर से बाहर करवा दिया।

इंदल बबुरी वन में गुरु अमरा के स्थान पर गया। उनका श्रद्धापूर्वक ध्यान किया। समस्या सुनकर गुरुदेव ने भी मना किया, पर इंदल ने बहुत हठ किया तो गुरुजी ने उसे जोगी बनने का आदेश दिया। इंदल ने भगवा चोला पहन लिया। माला ले ली और गुरु की दी हुई शिक्षा धारण कर ली। जोगी बनकर इंदल चाचा ऊदल के, मलखान के, अपनी दादी दिवला के, माता सुनवां के पास भिक्षाटन के लिए गया और किसी ने भी उसे नहीं पहचाना। फिर गुरु अमरा की दी हुई खड़ाऊँ के सहारे उड़कर वह सिंहल द्वीप चला गया।

राजा के बाग में सूखा पड़ा था। जोगी बने हुए इंदल ने उसी सूखे बाग में डेरा लगाया। गुरु अमरा की कृपा और इंदल की साधना से बाग हरा-भरा हो गया। बाग की हालत सँवर गई। माली-मालिन आए और जोगी के पाँव पकड़ लिये। गुरु की दी हुई वीणा थी, जिसमें से सब राग बजने लगते थे। गरु का दिया सोटा भी उसके पास था, जिसके वार से कोई बच ही नहीं सकता था। गुदड़ी ही ऐसी थी, जिसे पहनकर भूख-प्यास नहीं लगती थी। राजा-रानी, सारी प्रजा, सभी जोगी के दर्शन को आने लगे। राजकुमारी लेखा को भी पता चला, वह भी दर्शन करने आई। जोगाजित भाई घुड़सवारों के साथ आए। लेखा ने दासी को सुंदर वस्त्र पहनाकर भोजन लेकर जोगी के पास भेजा। जोगी नाराज हो गया, मुँह फेर लिया। तब लेखा समझ गई कि यह जोगी नहीं, राजकुमार इंदल ही है।

फिर तो सुलेखा अपनी सखियों के साथ बाग में जोगी के दर्शन करने के लिए जा पहुँची। पहले औरों को दर्शन करने हेतु भेजा। सबसे अंत में स्वयं लेखा जोगी के दर्शन को पहुँची। जोगी की परिक्रमा करके लेखा ने शीश झुकाकर प्रणाम किया। जैसे ही लेखा ने मुख उठाकर जोगी की ओर देखा तो जोगी की दृष्टि मिल गई। आँखें चार होते ही दोनों ने एक-दूसरे को पहचान लिया। लेखा बोली, “अब भय नहीं, आनंद से रहो। रोज रात को मैं आपसे मिलने आया करूँगी तथा आपको महलों में ले जाया करूँगी।”

इस प्रकार वादा करके लेखा अपने महल में वापस चली गई। महल में पहुँचकर भी उसकी प्रसन्नता हाव-भाव से झलकने लगी। इधर इंदल जोगी बनकर नगर की गली-गली में घूमे, सभी से मिले, घर-घर में श्रद्धालु उनका स्वागत करने लगे। दिन भर जोगी का नगर-भ्रमण रहता और रात्रि को लेखा के महल में पहुँचकर विश्राम करते। यह खेल रोज चलने लगा। मालिन लेखा को रोज फलों में तौला करती थी। उसे लगा कि लेखा का वजन बढ़ता जा रहा है। एक दिन मालिन ने यह रहस्य राजा को बता दिया कि लेखा का वजन बढ़ रहा है। लगता है, कोई महलों में आता है।

राजा ने कुटनी (जासूस) लगाई और छिपकर पता लगाया कि जोगी ने राजमहल की इज्जत लूट ली है। राजा ने 20 सिपाही भेजे, जोगाजित भी गया, परंतु जोगी ने सोटे की सहायता से सबको मार दिया। इसके बाद सैकड़ों सैनिक भेजे, परंतु जोगी के सोटे के सामने सब परास्त हो गए। जोगाजित और राजा में सलाह बनी कि जोगी पर ब्रह्मफाँस लगाकर बाँध लेना चाहिए। हुआ भी ऐसा ही। ब्रह्मफाँस से इंदल को बाँध लिया गया। राजा के सामने पेश किया गया। राजा ने कहा, “जोगी के वेश में भोगी तू कौन है, तूने यह छल क्यों किया?”

तब इंदल ने कहा, “राजन! मैं जोगी नहीं हूँ। मैं तो आल्हा का पुत्र इंदल हूँ। मैंने किसी परस्त्री को नहीं छुआ। तब उसने सारी घटना सुनाकर कहा कि आधी भाँवर तो पड़ चुकी हैं। अब शेष भाँवर भी डलवाकर पूरा विवाह करवा दीजिए।” मंत्री की सलाह पर राजा ने इंदल को गहरे तहखाने में डलवा दिया। राजा सरहनाग ने लोहागढ़ के गजराज सिंह को पत्र लिखकर लेखा के विवाह का प्रस्ताव दिया। गज राजा ने प्रसन्न होकर नेगी को नेग दिया। उसने वीर मलखान को अपनी सहायता के लिए आमंत्रित किया।

कैद में पड़ा इंदल भारी परेशान था, दूसरी ओर लेखा भी दिन-रात बेचैन थी। दोनों का कोई वश नहीं चल रहा था। तब पद्मावती लेखा ने अपने महल से तहखाने तक सुरंग बनाई और स्वयं जाकर इंदल से मिली। उधर लोहागढ़ की बरात सिंहल द्वीप पहुँच गई, साथ में वीर मलखान की फौज भी लड़ने पहुँची। सिंहल द्वीप की सेना भी तैयार कर ली गई और मुकाबले को तैयार हो गई। दोनों ओर से युद्ध होने लगा। पहली लड़ाई तोपों की हुई, दूसरी बंदूकों से हुई। फिर तमंचों से गोली चलीं। फिर सांग और भालों से युद्ध हुआ। इसके बाद तलवारें बजने लगीं। लोहा और जोगा दोनों आमने-सामने भिड़ गए।

जोगा पर लोहा वार करने ही वाला था तो मलखे ने रोक दिया, क्योंकि सगे साले को मारना उचित नहीं, अतः जोगा को बाँध लिया। दूसरी ओर मलखान ने गजपति सिंह को बाँध लिया। दोनों भाइयों के बँधते ही सेना भाग खड़ी हुई। कोई अपने शस्त्र छोड़ गया तो कोई अपने वस्त्र छोड़ गया। राजा सरह नाग को सूचना मिली कि दोनों पुत्र बंदी बना लिये, सेना ने हार मान ली। तब उसको एक उपाय सूझा। उसने सोचा, वह योगी बड़ा वीर है। उसे ही रण में भिड़ा देता हूँ। वे मरें या यह मरे, मेरा तो लाभ ही है।

तभी राजा ने योगी बने इंदल को बुलवाया और कहा कि मेरे दोनों बेटे बंदी हो चुके हैं। युद्ध में तुम लड़ो। जीत गए तो पुत्री का विवाह तुम्हारे साथ कर दूंगा। अंधा क्या चाहे, दो आँखें। इंदल को मनचाही मुराद मिल गई। नया घोड़ा और पाँचों हथियार लेकर मैदान में उतर पड़ा। ऐसी मार-काट मचाई कि शत्रु भी दाँतों तले अंगुली दबाने लगे। लोहा पर इंदल ने मंत्र पढ़कर वार किया। उसको हौदे में गिरते ही बाँध लिया। फिर मलखान ने वार किए, इंदल ने वे सब बचा लिये।

मलखान की ढाल काट दी तो मलखान बहुत हैरान हुआ। बावनगढ़ में उसकी तलवार को सहनेवाला कोई नहीं मिला था। यह जोगी कहाँ से आया है, इसका परिचय जानने की जिज्ञासा हुई तो मलखान ने पूछा, “जोगी, तुम कौन हो, किस क्षत्रिय के पुत्र हो?” तब इंदल ने परिचय दिया, “मैं बनाफरों का बेटा यहाँ अकेला फँसा हूँ। मैं महोबे का रहनेवाला हूँ, जहाँ के राजा परिमाल हैं। वीर आल्हा तथा सुनवां का पुत्र हूँ। ऊदल और वीर मलखान मेरे चाचा हैं, जिनके नाम से बच्चे भी रोना बंद कर देते हैं।”

ज्यों ही मलखे ने इंदल की बात सुनी, त्यों ही इंदल की बाँह पकड़कर छाती से लगा लिया, फिर इंदल ने अपने यहाँ आने की सब कहानी सुनाई। दोनों गले मिलकर रोए। उनके मिलन का आनंद उन्हें तो आ ही रहा था, देखनेवाले भी ऐसे प्रसन्न थे, जैसे गाय बछड़े के मिलन को देखकर सब प्रसन्न होते हैं। तब मलखान ने लोहा को समझाया कि अब तुम लौट जाओ। यह लड़की तो अधब्याही है। साढ़े तीन फेरे इंदल के साथ ले चुकी है। अब इसका ब्याह इंदल से ही होगा। लोहा गुजरात को लौट गया।

उधर इंदल के गायब हो जाने से महोबा में हाहाकार मच गया था। माँ-दादी सब रोने लगीं। ऊदल सोचते हुए निराश होकर गुरु अमरा के पास पहुँचे। गुरु ने इंदल की सारी हकीकत बताई। ऊदल ने आल्हा को आकर इंदल के सिंहल द्वीप जाने की कथा सुनाई। फिर तो आल्हा, ऊदल, ताला, सुलिखे सब सिंहल द्वीप को चल पड़े। उधर से मलखान और इंदल लौट रहे थे। राह में ही दोनों की भेंट हो गई। इंदल का विवाह तो मलखे करवा ही लाए थे। सब महोबे वापस आ गए। मलखान फिर सिरसा पहुँचे। उनकी पत्नी ने जब यह कथा सुनी तो वह खुश कम हुई, दुःखी ज्यादा; क्योंकि उसके भाई को बिना ब्याहे लौटना पड़ा, जिससे उनके बघेल परिवार की जग-हँसाई हुई।

 

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