पुरानी फाग Purani Fag कोई बुन्देलखंड फाग गायकी का विशिष्ट नामकरण नहीं है। लोकगीत रूप में बची उस फाग के लिए कहा है, जो फाग के आदिकाल में रही होगी। यह कई धुनों में मिल सकती है। वर्तमान में प्रचलित ऐसी पुरानी फागों में कौन आदिकाल की है और कौन मध्यकालीन, यह निर्णय करना सरल नहीं है।
राम लला दशरथ के लला,
जा होरी खेलें राम लला।
काहे की पिचकारी बनाई,
काहे के रंग घोरे लला। जा होरी….
चंदन की पिचकारी बनाई,
केसरिया रंग घोरे लला। जा होरी…
भर पिचकारी सन्मुख मारी,
भींज गई तन सारी लला। जा होरी…
कात जानकी सुनौ वीरा लछमन,
बइयाँ न छुओ हमारी लला। जा होरी…
फाग (दादरा ताल)
स्थायी
रे म म म ग रे ग रे सा सा सा रे
श ऽ म ल ला ऽ द श र थ के ल
रे नि सा रे रे रे नि सा रे रे सा रे
ला ऽ जा ऽ हो ऽ र ऽ खे ऽ लें ऽ
नि सा सा सा सा सा
अन्तरा
नि नि – नि – – सा – – नि सा सा
का ऽ ऽ हे ऽ ऽ की ऽ ऽ वि चा ऽ
रे रे ग रे सा सा रे नि नि सा – –
का ऽ ऽ री ऽ ब ना ऽ ऽ ई ऽ ऽ
म म म म ग रे ग रे सा सा सा रे
का ऽ हे ऽ के ऽ रं ग धो ऽ रे ल
रे नि सा रे रे रे नि सा रे रे सा रे
ला ऽ जा ऽ हो ऽ री ऽ खे ऽ ले ऽ
नि सा – सा – –
रा ऽ म ल ला ऽ
उपर्युक्त उदाहरण में पूर्वांग के स्वरों का सीधा-सादा प्रयोग है। इसमें न कोई कण हे, न खटका और न मींड। इस फाग-रूप में लोकगीत की सारी सहजता है, अभिधात्मक कथनमात्र। कहीं से कोई शास्त्रीयता की छुअन नहीं, किन्तु यदि सूक्ष्मता से देखा जाय, तो भावानुरूप शब्द-योजना, प्रश्नोत्तर शैली और अन्त में सांकेतिकता हे, जिससे गीत हृदय को सीधा स्पर्श करता है। इस तरह की दूसरी फागों में भी इसी तरह की निश्छल अभिव्यक्ति मिलती है।
संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल