Pragetihasik Lok Devta प्रागैतिहासिक लोक देवता

197
Lok Devta
Prehistoric folk deities

बुंदेलखंड ही नहीं अपितु सम्पूर्ण भारत में प्रागैतिहासिक लोक देवता Pragetihasik Lok Devta का आस्तित्व रहा है । बुंदेलखंड के आदिवासी पुलिंद, निषाद, शबर और गोंड़ ही लोकपूजा में प्रमुख रहे हैं। प्रारंभ में प्रकृतिपरक लोकदेव ही प्रधान रहे हैं, क्योंकि नग्न वन्यजातियों में फल देने वाले वृक्ष, जल देने वाली नदी और प्रकाश देने वाले सूर्य-चन्द्र उपयोगी सिद्ध हुए। फिर अनिष्टकारी देवों की पूजा शुरू हुई, ताकि सर्प, आँधी और मृत्यु से रक्षा हो सके। उसके बाद अन्य देवों का उदय हुआ।

आदिवासियों के देव 
आदिवासियों ने अपना प्रमुख देवता “बड़ा या बड़का देव” माना है, जो आगे जाकर ‘महादेव’ या ‘शिव’ हो गया है । इस अंचल के हर गाँव में ‘ठाकुर देव’ के चबूतरे थे। गोंड़ देवताओं का प्रभाव जनपदीय देवों पर इतना था कि उनके अवशेष आज भी मिलते हैं । ‘ठाकुर’ गोंड़ों का ग्राम देवता था, जो धीरे-धीरे सबका हो गया है । उनका स्थान गाँव के बाहर वृक्ष के नीचे रहता है और उनके प्रतीक स्वरूप वृक्ष पर श्वेत धुजा लगा दी जाती है । गाँव को आपत्तियों से बचाना और उसकी रक्षा करना इन देवता की जिम्मेदारी है ।

गोंड़ों के देव
गोंड़ों के देव हैं नरायन देव, घमसेन देव, नागेश्वर देव, दूल्हादेव और खूँटा देव तथा देवियाँ हैं खेरमाई, वनजारिन माई, गंगाइन माई, शारदा भाई और शीतला माई । चेचक की देवी हैं बुढ़ी माई और कसलाई माई तथा हैजा एवं प्लेग की देवी हैं मरई माता । आज भी इस जनपद में दूला देव, खूँटा देव, खेरमाई, गंगामाई, शारदा माई, शीतला माई, मरई माता लोकप्रचलित हैं । अंतर इतना है कि दूला देव रसोई का देवता न होकर विवाह का हो गया है, शीतला माई  चेचक की देवी हो गयी हैं । शबर भी दूल्हादेव और भवानी (देवी) की पूजा करते हैं । बूढ़ा देव की पूजा भी होती थी।  आदिवासी अपने अनुभवों से पूजा  का संधान करते-करते आज के बहुदेववाद के पुजारी बन गये हैं ।

कृषि युग में मातृपूजा को प्रधानता मिली। भूदेवी प्रमुख देवी बनीं, क्योंकि वे उपज देती थीं और लोक के लिए सबसे अधिक उपयोगी थीं । उनकी पूजा आज भी भुइयाँ रानी या भियाँरानी के रूप में होती है । काछियों (कछवारा करने वालों) में भियाँरानी ही पुरुष रूप में भियाँराने हो गये हैं । पशु से संबंधित देव भी इसी युग में स्थापित हुए थे, पर उनके नामरूपों का प्रमाण मिलना संभव नहीं है । संभव है कि खूँटा देव इसी समय के हों ।

रामायण-काल में वैदिक देवताओं का प्रवेश आर्यों की आश्रमी संस्कृति के प्रतिष्ठापक ऋषियों और मुनियों से हुआ था । विन्ध्यवासियों ने उनके प्रति श्रद्धा और प्रेम प्रदर्शित किया था, जबकि दक्षिण के राक्षसों या उनकी संस्कृति से उनका घोर विरोध था । कौन से वैदिक देवता यहाँ आकर लोकदेवता बन गये, यह कहना कठिन है, परंतु यह निश्चित है कि दोनों तरह के देवताओं का सम्मिलन इस युग में हुआ था।

संदर्भ-
बुंदेलखंड दर्शन- मोतीलाल त्रिपाठी ‘अशांत’
बुंदेलखंड की संस्कृति और साहित्य- रामचरण हरण ‘मित्र’
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास- नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली संस्कृति और साहित्य- नर्मदा प्रसाद गुप्त

लोक देवता