Bhakti Aandolan Men Lek Devta भक्ति आंदोलन में लोक देवता

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Bhakti Aandolan Men Lek Devta

एक लोकप्रसिद्ध उक्ति है- भक्ति द्राविड़ ऊपजी लाये रामानंद, जिसका आशय यह है कि भक्ति का मूल द्रविड़ों में है । यह सिद्ध हो चुका है कि मूर्तिपूजा और अवतार की कल्पना द्रविड़ों से, वृक्षपूजा और बलि कोलों से तथा तंत्र-मंत्र किरातों से आये हैं। इस जनपद में भक्ति को स्त्रोत गोंड़ों द्वारा प्रवाहित किया गया था । Bhakti Aandolan Men Lek Devta बड़े देव महादेव के रूप में देवों के देव बन गये, ठाकुरदेव गाँव-भर के ठाकुर हो गये और खेरमाई गाँव भर की देवी बन गयीं ।

वस्तुतः लोकदेवत्व किसी एक जनपद की जंजीरों में नहीं जकड़ा जा सकता । जिस तरह लोकसंस्कृति आंचलिक होते हुए भी कई लोकसंस्कृतियों के समवायों (कल्चरल पैटर्न्स) से बनी है, उसी तरह लोकदेवत्व कई स्त्रोतों से आने वाली देवधाराओं का संगम रहा है । गोंड़ चंदा – सूरज, भूदेवी, अन्नदेवी, गंगामाई, शारदामाई, शीतलामाई, मरईमाता, रातमाई आदि की पूजा करते थे । यही देवत्व इस अंचल में कई वर्षों तक फिर छाया रहा । तात्पर्य यह है कि लोकभक्ति का प्रादुर्भाव यहाँ बहुत पहले हो चुका था ।

भक्ति आंदोलन की लहर तोमर-काल में ही इस अंचल पर प्रभावपूर्ण  होने लगी थी। कविवर विष्णुदास के ग्रंथों ठरामायणी कथा और महाभारत में रामकृष्ण का सम्प्रदायमुक्त भक्ति की प्रतिष्ठा हुई है । आगे चलकर जब व्रज में भक्ति का स्वरूप अनेक सम्प्रदायों में अलग-अलग हो गया और उनका प्रचार-प्रसार राजनीतिक भक्ति तथा अन्य माध्यमों से होने लगा, तब बुंदेलखंड का प्रभावित होना स्वाभाविक था ।

ओरछानरेश मधुकर शाह  जैसे भक्त नरेश पर एक तरफ मुगल बादशाह अकबर का और दूसरी तरफ गोस्वामी विट्ठल नाथ का दबाव पड़ा था, लेकिन वे किसी भी सम्प्रदाय से प्रतिबद्ध नहीं हुए। उन्होंने एक पद में अपनी स्वतंत्र भावना व्यक्त कर दी – ओरछौ बिन्द्राबन सौ गाँव

बुंदेलों के स्वतंत्र राज्यों अथवा मुगलों के आश्रित भूभागों से भक्ति के प्रसार में कोई अन्तर नहीं पड़ा । यह अवश्य है कि सम्प्रदायों ने राजाओं और सामन्तों का सहारा लिया, जबकि सम्प्रदायमुक्त लोक-भक्ति ने लोक को सर्वोपरि समझकर एक सहज मार्ग पकड़ा । लोक के लिए राम, कृष्ण, शिव, गणेश, लक्ष्मी आदि सभी पूज्य रहे, जिससे परस्पर टकराव नहीं हुआ । एक सामान्य व्यक्ति सबकी पूजा एक साथ कर सकता था । वैसे यह अंचल कृष्णपरक अधिक रहा, रामपरक कम । शिव तो सर्वोपरि थे । उनसे समझौता कर ही कोई आगे बढ़ सकता था ।

चंदेलों के समय शिव द्वारा कृष्ण को मान्यता दी जा चुकी थी और उन्हें विष्णु का अवतार स्वीकारा गया था । अतएव कृष्णभक्ति की जड़े बहुत पहले ही गहराई तक जम चुकी थीं । रामभक्ति का प्रसार तुलसी दास  की रामचरितमानस द्वारा हुआ । उसमें राम ने शिव की पूजा-अर्चा की थी । इस प्रकार कृष्ण और राम, दोनों लोकदेवता के रूप में मान्य बने रहे और आज भी उनकी लोकप्रियता कम नहीं है । यह बात अलग है कि कृष्ण-संबंधी लोकगीतों की संख्या अधिक है ।

देवी-संबंधी लोकगीतों से स्पष्ट है कि मध्ययुग में शक्ति की महत्ता बढ़ गयी थी । पुष्टि के लिए कुछ साक्ष्य प्रस्तुत हैं और उनसे कुछ समस्याएँ भी सुलझ जाती हैं । बुंदेलखंड में माई के मायले नामक लोकगीत शक्ति के उपासकों में प्रचलित हैं । निम्न पंक्तियों में गणोशजी को शक्ति का सहायक बताया गया है-

बड़े-बड़े पैर गनपत राजा सोहें, सकती माई के खम्मा बनहैं हो स्वामी,
बड़े-बड़े कान गनपत राजा सोहें, सकती माई के पंखा बनहैं हो स्वामी,
छोटे-छोटे नैनवा गनपत राजा सौहैं, सकती माई के दियला बनहैं हो स्वामी ।

मध्ययुग में भक्ति के दो रूप मिलते हैं – एक तो उसका वीर रसात्मक ओजमय रूप और दूसरा रसिक या माधुर्यपरक रूप । इस अंचल में भी विशुद्ध लोकभक्ति के साथ ये दोनों रूप विद्यमान थे । प्रथम रूप के नायक प्रमुखतः राम, हनुमान, दुर्गा जैसे लोकदेव रहे हैं, जबकि दूसरे रूप के कृष्ण, लाँगुरिया जैसे ।

लाँगुरिया या लँगुरा, देवी का परम भक्त है और उसी की कृपा से देवी प्रसन्न होती हैं, उसे खुश रखने से ही देवी का वरदान मिलता है । इसी कारण लोक ने उसे लोकदेवता मान लिया है, लेकिन वह ऐसा देवता है कि रसिक भक्ति की साधना ही पसंद करता है । रसिकता या माधुर्यभाव का प्रेमी लँगुरा मध्ययुगीन रसिकता की देन है । उसे संबोधित लोकगीत लाँगुरिया कहे जाते हैं और उनमें श्रृंगार की प्रधानता रहती है ।

रामरसिक और कृष्ण उपासना के समानान्तर शिवशक्ति के भाव से प्रेरित लाँगुरिया अचानक प्रकट नहीं हुई वरन् परम्परा का जाना समझा अंग है ।गाँव भर का एक लोकदेवता ।  वैदिक देवताओं की विशेषता यह है कि वे किसी एक गाँव के नहीं होते। लोकदेवता छोटे क्षेत्र में भी अनोखे उदाहरण पेश करते हैं । गाँव भर का एक लोकदेवता होता है । भले ही वह नट बाबा या गोंड बाबा हो। उसमें कोई भेदभाव नहीं होता ।

झाँसी जिले में चिरगाँव और मोंठ के बीच बरल गाँव के पास सड़क पर स्थापित नट बाबा ( कुचबंधिया बाबा  की इतनी मान्यता है कि कई गाँवों के लोग उन्हें पूजते हैं । महाराज छत्रसाल के गाँव महेवा (जिला  छतरपुर) में गोंड़ बाबा गाँव भर के देवता हैं । मध्ययुग की विषम परिस्थितियों में एकता की यह मिसाल युग चेतना की साक्षी है । मध्ययुग की लोककथाओं में खेरमाता की पूजा के उल्लेख हैं । गोस्वामी तुलसी दास ने ग्रामदेवी, ग्रामदेवता और गाँव में स्थापित नागदेव की पूजा की स्पष्ट संकेत किया है-
पूजीं गार्म देवि सुर नागा । कहेउ बहोरि देन बलि भागा ।।

राम की माता कौशिल्या ने ग्रामदेवी – देवताओं की पूजा की और उनका मनौती मानी कि यथोचित बलि चढ़ाएँगी । लोकदेवता किसी न किसी समूह के देवता थे । कारसदेव गाय की रक्षा करने वाले देवता थे, इसलिए गूजर, अहीर आदि उनकी पूजा करते हैं । विशिष्ट समूह के देवता होने के बावजूद उनकी मान्यता गाँवभर करता है और उनके दरबार में हर जातिधर्म का व्यक्ति जाता है । कारसदेव की गोट की दो पंक्तियाँ देखें-

कै भये कनैया, कै कारस भये
जिननें गइयन की राखी लाज ।

संदर्भ-
बुंदेलखंड दर्शन- मोतीलाल त्रिपाठी ‘अशांत’
बुंदेलखंड की संस्कृति और साहित्य- रामचरण हरण ‘मित्र’
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास- नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली संस्कृति और साहित्य- नर्मदा प्रसाद गुप्त

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