Pandit Krishana Das Ki Rachanayen पंडित श्री कृष्ण दास की रचनाएं

Pandit Krishana Das कवि का नाम अगाध श्रद्धा से लिया जाता है। पंडित श्री कृष्ण दास का जन्म विक्रम संवत् 1964 माघ कृष्ण 13 तदनुसार 12 जनवरी सन् 1907 शुक्रवार को ग्राम वमनी (छतरपुर) में हुआ था।

राजाश्रय में रहकर भी अपनी सशक्त लेखनी से जनता के दुख दर्दों की राजा को लगातार सूचना देने वाले संवेदनशील जनोन्मुखी एवं निर्भीक कवियों की परम्परा में Pandit Krishana Das कवि का नाम अगाध श्रद्धा से लिया जाता है। पंडित श्री कृष्ण दास का जन्म विक्रम संवत् 1964 माघ कृष्ण 13 तदनुसार 12 जनवरी सन् 1907 शुक्रवार को ग्राम वमनी (छतरपुर) में हुआ था।

दंडक छंद

जाँचें हम वाकें, जिन मुनि की रखाई यज्ञ,
जाँचें

हम वाके जिन, मुनी नारि तारी है।

जाँचें हम उनें जिन, जनक प्रण पूर्ण कीन्हों,
जाँचें हम उनके करी सौरी शुभकारी हैं।।

जाँचें हम उनैं जिन भानु सुत भूप कियो,
कीन्हों पति लँक अति दीन भयहारी है।

कहै कवि ‘कृष्ण’ नर मूढन को जांचें कहा,
जाँचें हम बाकें जोन पालें सृष्टि सारी है।।

हम उनको परखें जिन्होंने मुनियों की यज्ञशाला की रक्षा की तथा गौतम मुनि की पत्नी का उद्धार किया है। हम उनको परखें जिन्होंने राजा जनक का प्रण पूर्ण किया एवं शबरी की कुटिया पहुँचकर शुभ कर्म किया। हम उनको परखें जिन्होंने सूर्यपुत्र को राजा बनाया तथा विभीषण जैसे निरीह को भयमुक्त कर लंकापति बनाया। कृष्ण कवि कहते हैं कि हम मूर्ख मनुष्यों को क्या परखें? हम तो उन्हीं को परखेंगे जो समस्त सृष्टि के पालनकर्ता हैं।

राजन के राजा महाराजन के महाराज,
साहन के शाह बात ऐन के लखैया हौ।

देवन के देव सर्व सेवन के महासेव,
धर्मिंन के धर्म कर्म, कर्म के रखैया हौ।।

कृष्ण कवि वीरन के वीर धीर धीरन के,
परम कृपालु दीन दास के सहैया हौ।

भानु कुल तिलक सुजान वरदायक हौ,
भानु कुल भानु सो हमारे रघुरैया हौ।।

तेरे राज्य रामचन्द्र पाइये अनेक सुख्ख,
तेरे राज्य रामचन्द्र आनन्द विसाहिये।

तेरे राज्य रामचन्द्र सिद्धि रिद्धि कोटि मिलै,
तेरे राज्य रामचन्द्र सर्व सुख दाहिये।।

आप राजाओं और महाराजाओं में श्रेष्ठ, शाहों के शाह आप अंतर्यामी हो सब कुछ देखते हैं। आप देव के भी देव, सेवितों के महासेव, सभी धर्म-कर्म की रक्षा करने वाले हैं। कृष्ण कवि कहते हैं कि आप वीरों के वीर, धीरों के धीर तथा गरीबों की सहायता करने वाले परम कृपालु हैं।

आप सूर्यकुलमणि, सद्गुणों से युक्त वर देने वाले, सूर्यवंश के सूर्य रामचन्द्र हो। हे रामचन्द्र जी! तुम्हारे राज्य में सुख व आनन्द सभी पाते हैं। तुम्हारे राज्य में सहस्त्र गुना समृद्धता है तथा तुम्हारा राज्य सभी सुखों से सम्पन्न है।

तेरे राज्य रामचन्द्र, सकल सुतंत्र जीव,
कृष्ण कवि मुक्ति मुक्त युक्त शीस वाहिये।

भान कुल भान प्यारे अवध नृपाल राम,
उमर दराज महाराज तेरी चाहिये।।

हौं तौ मन्द पापी तुम पावन परम पूरि,
सन्मुख भये ते पाप पीनता कहाँ रही।

हौं तौ अति मूरख सु अज्ञनाथ बोध हीन,
तेरे गुण गाये फिर हीनता कहाँ रही।।

मंगल करन तुय सरन सु कृष्णदीन,
रावरे सरन में मलीनता कहाँ रही।

जाँच्यौ दीन बन्धु जगदीस ईस राम भद्र,
रावरो कहाय नाथ दीनता कहाँ रही।।

हे रामचन्द्र जी! तुम्हारे राज्य में समस्त जीव स्वतंत्र जीवन जीते हैं। कृष्ण कवि कहते हैं कि आपके राज्य में सभी युक्ति से भयमुक्त शीश झुकाते हैं। सूर्यकुल के रवि, अवधपति प्रियराम आपकी दीर्घायु की कामना करता हूँ। मैं तो अति मंद बुद्धि और पापी हूँ आप पवित्रता से युक्त हो अर्थात् आपके सामने आने से मेरे समस्त पाप खत्म हो जाते हैं।

मैं तो अत्यधिक मूर्ख, अज्ञानी बोधहीन हूँ किन्तु आपके गुण गाने से मेरी हीनता खत्म हो जाती है। आप जैसे शुभ करने वाले की शरण में दीन कृष्णकवि आ गया है तो मेरी मलीनता अब कहाँ रही? सारे सृष्टि के वन्दनीय, दीनों के भाई राम आपको मैंने परख लिया है आप हमारे नाथ और मैं सेवक तो अब दीनता कहाँ रहीं?

घनाक्षरी
जा दिन तें प्राण नाथ, बिछुरे हे महावीर,
ता दिन तें मैंने मुख अन्न जल दीन्हों नाँहि।

आय के सुरेश फल सुधा सो पवाय गये,
सोचो दिन रैन नैन नीर धार टूटे नांहि।।

कृष्ण कवि नैन ओट टूटो धौ सनेह हाय!
छाँड़ी सुधि मेरी तातें धीर उरो रहै नांहि।

भाग्यहीन दुखनी अनाथ जग मोसी कौन,
कौन अपराध प्रभु मोरी सुध लीनी नाँहि।।

जानकी हनुमन्त से अशोक वाटिका में कह रही है कि हे महावीर हनुमान! जिस दिन से प्राणों के स्वामी (राम) से विलग हुए हैं, उसी दिन से मैंने मुख में अन्न व जल नहीं दिया है। इन्द्र ने आकर के लगता है अमृत पिला दिया है जिससे जीवित हूँ। प्राणनाथ राम का सोच (विचार) करने से दिनरात नेत्रों से आँसुओं की धारा खत्म नहीं होती है।

कृष्ण कवि कहते हैं कि नेत्रों के ओझल होने से स्नेह और भी पक्का हुआ है, उन्होंने मेरी सुधि छोड़ दी लेकिन मेरा धैर्य डिगा नहीं। मुझसे ज्यादा अभागिन, दुखी व असहाय इस संसार में कौन होगा? जिसने प्रभु का साथ छोड़ा। प्रभु श्रीराम ने किस अपराध की सजा देकर मेरी सुधि (खबर) नहीं ली है। समस्या-संत न हौंहि जटान धरें, अबलान तजें नहिं साधु कहाये।

राग तजें भव द्वैष तजें नहिं, अंगन अंग विभूति रमाये।।
त्यों कबि कृष्ण भये वकता, सकती नहीं आवत अंग तपाये
रंगनिरंजन त्यों मन हैं बस, वैष्णव होत-कवाव के खाये।।1।।

सिर पर लम्बे बालों को धारण कर लेने से कोई संत नहीं बन जाता, केवल नारी को त्यागने से कोई साधु नहीं कहलाता। संसार में राग और द्वेष को मात्र त्यागने से अथवा शरीर के सभी अंगों में राख लिपटा लेने से कोई साधु नहीं बनता। कृष्ण कवि कहते हैं कि केवल हठ योग से शरीर के अंगों को कसने से शक्ति नहीं आती। सतरंगी मन को वश में रखकर कबाब (पक्षी मांस से बना व्यंजन) के खाने वाले भी वैष्णव होते हैं।

पूर्ति -काम कबूतर तामस तीतर, ज्ञान गुलेलिन मार गिराये।
सत्य छुरी दमनीर में धोय सो, प्रेम के पात्र में जाये चढ़ाये।।

त्यों कबि कृष्ण सनेह कौ घीव, सुयोग की अग्नि जराय बनाये।
थाल परोस धरे बिसवास कौ, बैष्णव होत कवाव के खाये।।2।।

कृष्ण कवि कहते हैं कि कामभाव रूपी कबूतर एवं क्रोध रूपी तीतर (एक पक्षी) को ज्ञान रूपी गुलेल (पक्षी मारने का स्थानीय अस्त्र) से मारकर उसे सत्य रूपी धुरी से काटकर संकल्प रूपी नीर में धोकर, प्रेम रूपी बर्तन में स्नेह रूपी घी डालकर योग की अग्नि में जलाकर पकाते हैं। विश्वास रूपी थाली में परोस कर ऐसे कबाब को खाने वाले ही वैष्णव कहलाते हैं।

अब तौ भारत भूमि में, भो स्वतंत्र सब साज,
मन-मन के राजा सबै, साजत साज कुसाज।

साजत साज कुसाज, लक्ष पैसन पै सब कौ,
भे स्वारथ के मीत, बिगोयो सत पथ सब कौ।।

अनाचार पथ भ्रष्ट रहिव, नहिं कतहूँ तब तौ,
झीकां झपटी करत भयऊ, नर हिंसक अब तौ।

दिन दुपरे डांके परत, लूटत प्रजन तमाम,
नीचे तैं ऊपर तलक, करता बढ़े गुलाम।।

करता बढ़े गुलाम, हाय अब कैसो कीजे,
जेई प्रहरी तिहि चोर, बिनय कित हाय करीजे।

जात लाज कवि ‘कृष्ण’, दीन जन कैसे उबरे,
धन दारादिक छीन, देत डांके दिन दुपरे।।

जग आजादी हेत भै, दुस्साहस सब काज,
भारत वीर अनेक भे, बल अनेक सिरताज।

बल अनेक सिरताज, ब्रिटिश शासन ठुकरायो,
प्राणदान दै धन्य, आपनों देस बचायो।।

बांध एकता सूत्र शान्ति पथ, सब बिधि सादी,
समझौ भारत वीर मिलि, केहि बिधि आजादी।

आजादी के मिलत ही, संस्था भयीं अनेक,
गुटबंदी घर-घर भयीं, फूट छूट अविवेक।।

फूट छूट अविवेक, भयो सब सासन गुन्डा,
करत लूट दिन रैन, जहां तहं हिंसक गुंडा।

धरिव ताक में न्याय, ‘कृष्ण’ कवि पहरी खादी,
लंपट चुगल चटोर, चलाकिन हित आजादी।।

सतधारी पीछे किये, आगें आये कूर,
मर्यादा प्राचीन हन, करी सभ्यता चूर।।

करी सभ्यता चूर, बिकट व्यभिचार बढ़ायौ,
जन किये बिहाल, जाल चहुँ ओर बिछायौ।

हा! को राखे लाज, ‘कृष्ण’ कवि बिन गिरधारी,
नेता राकस बढ़े, किये पीछे सतधारी।।

अब भारत भूमि में सब कुछ स्वतंत्र हो गया है, सभी अपने-अपने मन के राजा हो गलत मार्गों पर चल रहे हैं। सभी लोगों का लक्ष्य अब पैसा हो गया है। सत्य पथ से भ्रष्ट हो सभी स्वार्थी हो गए हैं। अत्याचार का बोलबाला हो सभी मार्ग भटककर हिंसक हो आपसी नोच-घसोट में संलग्न है।

अब भरी दुपहरी में डकैती पड़ती है, प्रजा को विविध रूपों से लूटा जा रहा है। निचले स्तर से उच्च स्तर तक गुलामों (चाटुकारों) की संख्या बढ़ गई है। जो रखवाले हैं, वे ही चोर बनकर लूट रहे हैं। अतः ऐसी स्थिति में क्या किया जाये? किसके पास जाकर अपनी विनय सुनाई जाए।

कवि कृष्ण कहते हैं कि सभी निर्लज्ज हो गए हैं। दीनों की कौन मदद करे? उनका धन और स्त्रियाँ आदि छीनकर अब दिन में ही डकैती पड़ रही है। संसार में आजादी के लिये अनेक दुस्साहसी कार्य किये गये। भारत में अनेक वीरों का जन्म हुआ और वे संसार में शिरोमणि रहे। उन्होंने ब्रिटिश शासन से मुकाबला किया और अपने प्राणों को न्यौछावर करके अपने देश को बचाया। वे धन्य हैं उन्होंने देश को एकता के सूत्र में बाँध शांति पथ पर सरल ढंग से चलाने का प्रयत्न किया।

भारत के नौजवानों इस तथ्य को समझिए कि हमें स्वतंत्रता आसानी से नहीं, बल्कि लम्बे संघर्ष से मिली है। स्वतंत्रता के प्राप्त होते ही इस देश में विभिन्न संस्थाओं का जन्म हो गया, घर-घर में गुट बन गए और हम अविवेकी रूप से टुकड़ों में विभाजित हो गए। इस अविवेकी फूट के कारण ही शासनतंत्र पर गुण्डा (अपराध) हावी होकर दिन-रात हिंसक हो प्रजा को लूट रहे हैं।

कृष्ण कवि कहते हैं कि न्याय को ताक में रखकर चालाक व गुण्डों ने खादी पहन ली है। अर्थात् आजादी का लाभ चुगलखोरों, चोरों और चालाकों को ही मिल रहा है। सत्य के मार्ग पर चलने वालों को पीछे धकेल कर क्रूर (दुष्ट) आगे आकर सभ्यता को विनष्ट कर सारी मर्यादाओं को ध्वस्त कर रहे हैं। अत्यधिक व्यभिचार बढ़ाकर आम नागरिकों को परेशान कर रखा है। इन्होंने अपने जाल, समाज में सभी ओर बिछा दिये हैं। कृष्ण कवि कहते हैं कि हे गिरधारी! अब इस देश की लाज कौन रखेगा? नेता रूपी राक्षस बढ़ गए हैं और सत्यधारी पीछे हो गए हैं।

प्रार्थना 

कहैं प्रीति नहिं घटत हिये की, अधिकहिं परिव अंदेसौ।
पाती लिखत बनत ना कैसऊँ, कहत न बनत संदेसौ।।

हृदय हेर हारिस सब विध सौं, पन्थ न रँचक सूझै।
थाक्यौ इन्द्रिन कौ बल सिंगरौ, बात न कोऊ बूझै।।

श्रीमान् गुणनिधि सब जांनहुँ, यथा वेदना छाई।
मो कँह उचित कहा कीवो अब, दीजे पन्थ गहाई।।

हे भगवन्! कह देने से हृदय की प्रीति नहीं घटती है बल्कि बढ़ती ही है। मैं अनेक शंकाओं से ग्रस्त हूँ। न पत्र किसी प्रकार लिखते बन रहा है। और न संदेश कहते बन रहा है। मेरा हृदय सब तरह से बाट देखकर हार गया है, मुझे कोई तनिक भी रास्ता नहीं सूझ रहा है।

मेरी समस्त इन्द्रियाँ शिथिल हो गई हैं जिससे कोई बात समझ नहीं आती है। आप गुणों के भण्डार हो और अंतर्यामी हो सब जानते हो कि मुझे कितनी वेदना है? मेरे लिए अब उचित क्या है? मैं अब क्या करूँ? आप सही मार्ग पर चलने हेतु प्रेरित कीजिए।

दोहा-
सठ सेवक-राजा कृपण, दुष्ट तीय अज्ञखान।
कपटी मीतिहिं छाड़िये, चारहुं सूल समान।।

चारहुं सूल समान, काल के यहै संगाती।
निरउपाय दुख दीह, रैन दिन जारत छाती।।

रहहु सजग कवि ‘कृष्ण’, करत यह सदा अकाजा।
सब सूलन के मूल, तजिय सठ कृपणी राजा।।

होत छनक में तुष्ट पुनि, रुष्ट छनक में होय।
रुष्ट तुष्ट गति एक सी, मति पांहन जिम जोय।।

मति पांहन जिम जोय, तजो सेवा इनकेरी,
इनते बचत सुजान, जानिये सब बिधि बैरी।।

अकल हीन बुध हीन, ‘कृष्ण’ कवि रोस तनक में,
स्वान वृत्ति डुलत, घरन-घर छनक छनक में।।

मूर्ख नौकर, कंजूस राजा, अज्ञान की भंडार दुष्टा नारी तथा कपटी मित्र इन चारों को तत्काल कष्टकारी समझकर छोड़ देना चाहिए। इन चारों के रहने से मृत्यु पास रहती है तथा बिना कारण दुख के कारक बनकर दिवस-रात्रि मन (हृदय) को जलाते (बेचैन करते) रहते हैं। कवि कृष्ण कहते हैं कि अकर्मी मूर्ख तथा कंजूस राजा को भी त्याग देना चाहिए क्योंकि यह सभी कष्टों की जड़ होता है।

एक क्षण में प्रसन्न व एक क्षण में क्रोधित हो इनकी गति एक समान रहती है। इनकी बुद्धि पत्थर समान होती है। इनकी (राजा) सेवा तत्काल त्याग देना चाहिये इनसे चतुर व्यक्ति सदा बचते रहते हैं इन्हें सब तरह से शत्रु मानना चाहिए। कृष्ण कवि कहते हैं कि प्रज्ञा व बुद्धिहीन ये लोग कुत्ते के स्वभाव समान हों क्षण-क्षण में अनेक घरों में घूमते हैं।

पटवारी दशक
मण्डलीक मणि भूपति, चक्रवर्ती सिरताज।
तिलतिल धरती के नृपति पटवारी महाराज।।

पटवारी महाराज भूमि के भूप लुटेरे।
ऊपर मालिक राम, नीचे पटवारी हेरे।।

जगत सतावन यही, सही जम के अवतारी।
जिअन मरन इन हाथ, भूम राजा पटवारी।।

मण्डलीकों में श्रेष्ठ चक्रवर्ती राजाओं में शिरोमणि और थोड़ी सी भी जगह के तुम स्वामी हो। तुम भूमि को लूटने वाले तुम राज लुटेरे हो। स्वर्ग में भगवान और धरती पर पटवारी ही प्रभावी है। संसार को कष्ट देने वाले यह यमदूत के अवतार हैं। धरती राजा पटवारी के हाथों व्यक्ति का जीवन-मरण है।

राजन के संग चलत हैं सेन सुभट हथयार।
पटवारी के बगल में कागज कलम तयार।।

कागज कलम तयार, कोटगढ़ छिन में टोरे।
नकसा करें तयार, छोट बड़ सबै निहोरें।।

जगत नचावत नाच, बने सीधे सरकारी।
भू अति क्रमण दिखाय, प्रजा लूटत पटवारी।।

 

राजाओं के साथ जिस तरह सेनापति अस्त्र-शस्त्र लेकर चलते हैं उसी तरह पटवारी के पास कलम और कागज तैयार रहता है। इन कागज-कलम से किलों-परकोटों का क्षण भर में तोड़ देते हैं और नकसा तैयार करके छोटे-बड़े सबको देख लेते हैं। सीधो-सादे सरकारी कर्मचारी के रूप में ये संसार को नाच नचाते हैं। भू-अतिक्रमण दर्शाकर कभी भी प्रजा को लूटना उनके हाथ में रहता है।

विधना हू जानत नहीं, इनकी चाल कराल।
कागज कखयायें फिरत, चतुर चोर के लाल।।

चतुर चोर के लाल, बड़े गलकट्टा सोई।
बापहि छोड़त नहिं, बेल हिंसा की बोई।।

गन मसीन बम बिषम, खतौनी खसरा भारी।
चूसत जनता रुधिर, ताल दै दै पटवारी।।

इनके क्रियाकलापों को ब्रह्मा भी नहीं जानता, ये चोर पुत्र कागज-पत्र बगल में दबाये घूमते गला काटने में निपुण हैं। ये अपने पिता को भी नहीं छोड़ते। इनकी क्रियायें हिंसा को जन्म देती हैं। इनके खसरा-खतौनी मसीन-गन और कठिन बंब की तरह विषम प्रभावी है। पटवारी चुनौती के साथ जनता का खून चूसता है।

पुराचीन तें आज लग, मारीची कौ साज।
दुख्ख मूल यह भूमि में, पटवारी कौ राज।।

पटवारी कौ राज, ढाल बस्ता कखयावैं।।
नोंकदार ले कलम मर्मथल काट खसावैं।।

गांव खेत अरु गैल, सु तिल-तिल छिड़िया बारी।
तित अतिक्रमण दिखाय, डसत पग पग पटवारी।।

प्राचीन काल से आज तक पटवारी का राज्य धोखेबाजी और दुख की जड़ है। ये बगल में बस्ता दबाये घूमते हैं और नोंकदार कलम से महत्वपूर्ण जमीन के भाग को काटकर कागज में खिसका देते हैं। गाँव, खेत, मार्ग, गली आदि स्थलों पर अतिक्रमण दिखाना और जनता को काटना पटवारी के स्वभाव में है।

दे चछमां जब मेंड़ पर, हेरत चारों ओर।
लख किसान थर थर कपत, यह बंसी की डोर।।

यह बंसी की डोर, नीर की मीन निकारैं।
व्याकुल विकल किसान, फिरत शासन के द्वारैं।

जेते राजा रंक, दीन जनता युग चारी।
नवग्रह दसा पिसाच, प्रजह चूसत पटवारी।।

आँखों में चस्मा लगाकर पटवारी जब खेत की मेंड़ पर खड़े होकर चारों तरफ देखकर निरीक्षण करता है तो किसान ऐसे काँप जाता है जैसे वंशी डालकर मछली पकड़ने वाले से मछली डरती है। पटवारी से परेशान होकर किसान शासन के द्वार पर (कोट-कचहरी) घूमता-फिरता है। नवग्रहों की दशा से जैसे लोग परेशान होते हैं उसी प्रकार सामर्थवान से लेकर गरीब व्यक्ति का शोषण भी पटवारी चारों युगों में करता है।

मारीची विद्या सकल, इन्द्रजीत कौ जाल।
जे मारें जानें न कोऊ, इनकी कला कराल।।

इनकी कला कराल, यथा खाटन खटकीरा।
चूसत रुधिर परात, खाट कौ पकरत सीरा।।

चुगल चटोर चलाक, सूझ इनकी अनयारी।
देखत भूली करत, छली ग्रामी पटवारी।।

जिस प्रकार संपूर्ण राक्षसी विद्या तथा इंद्रजाल द्वारा मारे जाने पर कोई इनकी कला को नहीं समझ पाता अर्थात् इन दोनों के द्वारा बड़ी ही कुशलता से मारा जाता है, इसी प्रकार जिस तरह खाट में छिपे खटमल चालाकी के साथ व्यक्ति का ढेर सारा रक्त चूसकर पुनः खाट की ओट में छिप जाते हैं वैसे ही पटवारी भी लोगों को नुकसान पहुँचाकर इतनी चालाकी से अलग हो जाता है कि कोई उसकी चाल को नहीं समझ पाता है। ये पटवारी अत्यंत ही चालाक, लोभी व चुगलखोर प्रवृत्ति के होते हैं इनकी बुद्धि अत्यंत पैनी होती है और ये जानबूझकर भूल करते हुए ग्रामवासियों के साथ छल करते हैं।

मसक डसे तें होत है, जग मलेरिया रोग।
भूम रोग इनतें बढ़त, भोगत घर घर लोग।।

भोगत घर घर लोग, अहै यह कलम कसाई।
इनतै बचवौ कठिन, यही सासन के साई।।

सब करतालें आड़, खतौनी मांगत न्यारी।
नहिं बूझत कोउ बात, जगत करता पटवारी।।

जिस प्रकार मच्छर के काटने से सारा संसार मलेरिया रोग से ग्रस्त हो जाता है वैसे ही पटवारी के द्वारा नुकसान पहुँचाने से भूमि संबंधी परेशानी का भयंकर रोग हो जाता है। जिसे घर-घर के लोग सहते हैं और ये कलम रूपी तलवार के कसाई है।

जिनसे बचना अत्यंत कठिन है। यह साम्राज्य के लिए कसाई के समान है जो लगातार उसे नुकसान पहुँचाते रहते हैं। ये विभिन्न हथकंडों के माध्यम से खतौनी मांगते रहते हैं और कोई उनसे कुछ पूछता भी नहीं जिससे ये अपनी मनमानी करते रहते हैं।

राज रोग ग्रह की दशा, सर्प डसें बच जाय
पटवारी की कलम से, बचत न रंच दिखाय।।

बचत न रंच दिखाय, होय चह भूप भिखारी।
ऐसी ओझल चोट, परिया की अनयारी।।

रोम रोम बिंध जात, विकल विलखत नरनारी।
इनतें बचवौ कठिन, महां घातक पटवारी।।

विभिन्न प्रकार के बड़े-बड़े रोगों, ग्रहों की दशाओं, यहाँ तक कि सर्प के डसने पर भी व्यक्ति की जान बच सकती है किन्तु पटवारी की कलम के द्वारा किए गए अप्रत्यक्ष वार से बचने की नाम मात्र की गुंजाइश नहीं रहती। वह निकृष्ट ऐसी अदृश्य व तीखी चोट करता है कि व्यक्ति का रोम-रोम बिंध जाता है और स्त्री-पुरुष विकल होकर बिलखते हैं किन्तु इन पटवारियों से बचना अत्यंत कठिन है, ये अत्यंत घातक होते हैं।

को उबरिब यह जाल तें, सासक समुझित नांय।
लेत सहारौ कलम कौ, हाकिम पर पर जांय।।

हाकिम पर पर जांय, सकें नहिं आँख उघारी।
हे प्रभु दीन दयाल, बचावहु कष्ट अपारी।।

कहत ‘कृष्णकवि’ सत्य, सुनों सिगरे नर नारी।
इनकी लीला अगम, भूमि मालिक पटवारी।।

पटवारी के जाल से कौन बच सकता है, इसे शासक ही जानते हैं वह कलम का आश्रय लेकर अधिकारी को भी झुका लेता है। अधिकारी झुक जाता है और आँख भी नहीं खोलता अर्थात् सत्य को देखने का प्रयास भी नहीं करता। हे परमपिता परमात्मा! दीनों पर दया करने वाले, मुझे इस कष्ट से बचा लीजिये। कृष्ण कवि कहते हैं कि सभी नर-नारी यह बात सुन लो कि भूमि का स्वामी पटवारी है और उसकी लीला अपरंपार है।

काल परै हुलकी परै, मरा परै बच जाय।
पटवारी की कलम तें, बचत न कोऊ दिखाय।।

बचत न कौऊ दिखाय, बाप के सगे न होई।
भर भादों की गाज, परै इनपै प्रभु सोई।

करिया मुख हो जाय, अंत में होत खुबारी।
सबही तें छल करत, बनें फिरत पटवारी।।

यम की मार से अथवा महामारी के प्रकोप से व्यक्ति मरकर भी भले जीवित हो जाय किन्तु पटवारी की कलम से कोई नहीं बचता दिखाई देता है। पटवारी अपने सगे पिता को भी नहीं छोड़ता। हे प्रभु! भाद्रपद के माह में इन पर बिजली गिर जाय तो अच्छा। हे ईश्वर! इसे यहाँ से भगा दें, इसका अन्त निश्चित ही खराब है। यह पटवारी सदैव सबसे कपट का व्यवहार करता है।

जसोदा हरी पालने झुलावै।
मन झूलत लख लाल मधुर छबि, निरख निरख बल जावै।

को झूलत अरु कौन झुलावत, महामोद सरसावै।।
इकटक चकित चित्त, चित झूलत मन मोदित सुख पावै।

श्याम रूप सुचि रुचिर कसौटी, चित कंचनहिं कसावैं।
मधुर हास लालन कौ लख कर, भूल अपुन पौ जावैं।

ठग सी रही ‘कृष्णकवि’ जसुदा, परा प्रेम दरसावै।।
(उपर्युक्त सभी छंद सौजन्य से : आनन्द शर्मा)

यशोदा जी भगवान श्रीकृष्ण को पालने में लिटाकर झुला रहीं है। अपने पुत्र की कोमल कान्ति को देखकर उनका मन भी झूलने लगता है। वह बार-बार निहारते हुए अपने लाल पर बलिहारी होती है। झूले में कौन झूल रहा है? (ब्रह्म का भाव) और कौन झुला रहा? यह सोचते ही यशोदा जी का मन अखंड आनंद के सरस भाव में आवेशित हो जाता है।

विस्मित मन से अपलक श्रीकृष्ण को देख रही हैं, उनका अन्तःकरण झूल रहा है, प्रसन्न मन से वह सुख का आनंद ले रही हैं। श्रीकृष्ण का सांवला रूप पवित्र सुन्दर कषपट्टी (सोना परखने का काला पत्थर) है जिससे वह अपने मन रूपी सोने को परख रही हैं। अपने लाल (श्रीकृष्ण) की मधुर मुस्कान को देखकर वह अपने आपको भी भूल जाती हैं। कृष्ण कवि कहते हैं कि यशोदा जी चकित (भौचक्की) दिखाई दे रही हैं, वह ब्रह्माण्ड में मग्न दिख रही हैं।

पंडित श्री कृष्ण दास का जीवन परिचय 

शोध एवं आलेख- डॉ. बहादुर सिंह परमार
महाराजा छत्रसाल बुंदेलखंड विश्वविद्यालय छतरपुर (मध्य प्रदेश)

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