किटी घाट से चार-पाँच किलोमीटर नीचे, याने पश्चिम की ओर नर्मदा पर एक प्रपात है । सुन्दर प्रपात | इसे पढ़े-लिखे लोग ‘किटी फाल’ कहते हैं। लोक इसे ‘मन्धार’ Mandhar कहता है । नर्मदा तट पर जो बोर्ड लगा है, उसमें भी मन्धार ही लिखा है। घाट पर ही छोटा-सा वन ग्राम है। पशुपालन और थोड़ी बहुत खेती पर आधारित जीवन, प्रकृति की गोद में आधुनिकता से बेखबर है।
खण्डवा जिले में नर्मदा पर जहाँ नर्मदा सागर बाँध बन रहा है, वहाँ से नर्मदा को पार कर उसके उत्तर में सघन वन से गुजरते हुए देवास जिले के क्षेत्र में प्रवेश करते आगे बढ़ें तो धासड़- पोखर गाँव है । पोखर गाँव से तीन किलोमीटर दक्षिण पूर्व में घनघोर वन प्रांत में नर्मदा के किनारे छोटा सा वन ग्राम है। जिसका नाम है ‘किटी’।
‘किटी’ गाँव नर्मदा के किनारे है । दूर- दूर तक ऊँचे सागौन के पेड़ हैं। नर्मदा के किनारे विशाल कद्दू के पेड़ हैं। इक्के-दुक्के पशु चरते दिखाई देते हैं। पेड़ों पर वन – पक्षियों की किलोल नर्मदा की धारा की आवाज से मिलकर दिन की चुप्पी को तोड़ती हैं । यह गाँव उत्तर तट पर है। उस पार दक्षिण तट पर निमाड़ जिले का बहुमूल्य वन है। पेड़ से पेड़ सटकर खड़ा है। सागौन के पेड़ जहाँ एक दूसरे से बातें कर पृथ्वी के बिगड़ते पर्यावरण पर कुछ सार्थक सोचते हुए से लगते हैं। वे अपने हिस्से की सारी हरियाली धरती के आँचल और आकाश के खींचे में डाल रहे हैं।
नर्मदा बह रही है। पत्थरों, झाऊ की झाड़ियों और जंगली जामुन के पौधों के झुरमुटों में से रेवा अनवरत, अविराम गतिमान है। किटी में नर्मदा तट पर पक्का घाट नहीं है । विशाल और आकर्षक चट्टानों से पूरा घाट पटा है । चट्टानें नर्मदा की धारा के बीच में भी हैं। उन चट्टानों की संधियों और धरती की ममता के मुलायम हिस्से में छोटे-छोटे पेड़ नुमा पौधे लहलहा रहे हैं। उन्हीं चट्टानों की गलियों में से रेवा सहस्रों धाराओं में बहती है।
पौधों पर गर्मी की तपन का कोई असर नहीं है। वैशाख – जेठ की तेज गर्मी में इनका हरापन और चटक हो जाता है । यदि जड़ों में पानी हो, तो बाहर का मौसम कुछ बिगाड़ नहीं सकता । सुनसान प्रांत में, जहाँ अभी भी आदमी की आवाजाही कम है, नर्मदा ने प्रकृति के सौन्दर्य को बचाए रखा है । किटी घाट में प्रकृति नर्मदा को प्रबोधती है । उसे संघर्ष करते हुए गन्तव्य तक जाने की ताकत देती है। नर्मदा यहाँ बिरमती है। झुरमुटों से सुख-दुख की बात करती है । और आगे बढ़ जाती है।
नर्मदा की चपलता विन्ध्याचल के प्रान्तर में विमुग्ध करने वाली बन जाती है । नर्मदा के अमृत सरीखे शीतल और चपल जल को पीकर व्यक्ति के भीतर एक मंथर गहराई जन्म लेने लगती है । किटी घाट पर नर्मदा में स्नान का सुख माँ के संरक्षण में जाने जैसा है। कमर-कमर, छाती – छाती पानी में धँसकर स्नान करना, तन से अधिक मन का मैल धोना और फिर शांकरि की ममतालु छवि पर बच्चे की तरह मुग्ध हो जाना, धीरे-धीरे मनुष्य होने की ओर अग्रसर होना है।
बाहर-भीतर एक-सा होने की कोशिश करना है । धरती को नदियों का उपहार मिला, यह सृष्टि रचयिता की करूणा और कृपा की धारा का तरल रूप में बह निकलना है। नर्मदा तो शांकरि है। शिव की विराट आर्द्रता का जीवंत प्रवाह है। विन्ध्याचल की साधना के कमण्डल का जल प्रवाह है। उस जल में स्नान करना स्वयं को बार-बार शुचितर बनाने की कोशिश करना है । यही कोशिश व्यक्ति को नदी में खड़ा कर नदी बना देने का भीतरी अनुष्ठान रचती है। यह अनुष्ठान किटी घाट के विजन प्रांत में, नर्मदा जल में जल सरीखा बनकर पूरा करने में अमित तोष पैदा करता है ।
गर्मी में घाट से नर्मदा की धारा दूर चली जाती है । जल पत्थरों के बीच सिमटकर बहता है । गाँव से जलधारा तक जाने के लिए रेत पर पगडंडी है। उसके बाद पगडंडी समाप्त हो जाती है । और शुरू होती है – पत्थरों पर चलते चले जाने की यात्रा । ऊँचे नीचे, गोल- लम्बे, विशाल – छोटे पत्थरों से नर्मदा की देह पटी है। रेत नहीं है । यहाँ केवल पत्थर हैं ।
रंग-बिरंगे और कोटि स्वरूपों वाले पत्थर । उन पर पाँव रखते चले जाने में यात्रा का अपूर्व सुख मिलता है। ये पत्थर चुभते नहीं हैं । पगथलियों को सहलाते हैं । आँखों को बाँध लेते हैं। जीवन को सख्त किन्तु सुन्दर बनने की प्रेरणा देते हैं । जैसे- जैसे पत्थरों की ओट दर ओट आगे बढ़ते हैं, नर्मदा का शोर तेज होता जाता है । एक गंभीर स्वर पास आता जाता है।
‘मन्धार’ में नर्मदा खूबसूरत अचरज रचती हैं। लगभग पचास फीट ऊपर से नर्मदा गिरती हैं । नर्मदा का सारा जल दो-तीन धाराओं में सिमटकर नीचे गिरता है। लगता है नर्मदा का सौन्दर्य ही झर रहा है। जबलपुर के पास भेड़ाघाट में नर्मदा अधिक ऊँचाई से नीचे गिरती हैं। यहाँ अपेक्षाकृत कम ऊँचाई से गिरकर सौन्दर्य सर्जन करती है । परन्तु सौन्दर्य की बुनावट में कहीं अन्तर नहीं है। अनवरत गिरता जल गति को लय और संगीत दोनों ही देता है। जल-धार कुण्ड में गिरकर दूध बन जाती है । अनेक छोटी-छोटी पतली धाराएँ चट्टानों की संधियों के सहारे मुख्य धारा और कुंड में आकर मिलती है।
पास की चट्टानों की संधियों के सहारे मुख्य नर्मदा के इस निम्नगामी सौन्दर्य को देखना अच्छा लगता है। चट्टानों पर घण्टों बैठकर धारा के साथ जीवन की सरिता का संगीत सुनना अच्छा लगता है । निरभ्र वन प्रांत में जल का संघर्ष और पत्थर-काराओं को तोड़कर आगे बढ़ने की विजयशीलता का अभियान देखते रहना भला लगता है। समय के क्षणों को बूँद-बूँद के रोमिल स्पर्श में भींगते हुए अनुभव करना सुखद लगता है। जल की निरन्तरता में दृष्टि अटक जाती है एक सम्मोहन मन के भीतर प्रकृति भरने लगती है ।
हम धारा की कोर को छूते हुए बैठे हैं, पर धारा के साथ निरन्तर बहते रहने की जीवंतता के बीच गुम हो जाते हैं, प्रकृति के साथ प्रकृति होने पर शायद ऐसा होता है। नर्मदा अमित, तोष देने वाली नदी है I
दुर्गम पहुँच और नितान्त वन प्रदेश के कारण यह जल प्रपात अधिक प्रसिद्धि न पा सका। घनघोर वन ने इसके सौन्दर्य को प्राकृतिक बनाये रखा है । आमदरफ्त कम होने से पर्यटन स्थलों पर आधुनिकता जनित गन्दगी यहाँ नहीं पहुँची है। प्लास्टिक की पन्नियाँ और पिकनिक के बाद छोड़ा जाने वाला कूड़ा करकट यहाँ नहीं है। नर्मदा यहाँ स्वयं को अधिक प्रकृति सन्दर्भित सौन्दर्य से मंडित कर सकी हैं। स्वयं को एकान्त और शान्त स्थिति में पाकर आगे बढ़ने की शक्ति अर्जित करती है ।
प्रपात के पास बड़ा-सा कुण्ड बन गया है । जिसमें गिरता हुआ जल दूध-सा फेनिल होकर ऊपर से नीचे, नीचे से ऊपर आता रहता है । आगे बढ़ता है। नर्मदा जहाँ कुण्ड गिरती है, वहाँ लगभग एक किलोमीटर तक वह पचास-साठ फीट गहराई में ही बहती चली जाती है। दोनों तरफ पत्थर की दीवारें और सकरी- सी गली में नर्मदा का शान्त जल प्रवाह प्रपात में गिरकर नर्मदा आगे जाकर एकदम मंथर हो जाती है । थककर विराम करती – सी प्रतीत होती है । या फिर अपने पर्यावरण को बिगड़ता देख गिरती जल – धारा के माध्यम से जमाने पर क्रोधित होकर शांत हो जाती है। दोनों ओर पत्थर की कटान प्राकृतिक नहर बना देती है। कठोर के बीच नर्मदा की कोमलता सृष्टि के दो रूप प्रस्तुत करती है ।
राजस्थान की भूमि को निसर्ग ने जितने प्रकार के प्रस्तर-सौन्दर्य दिये, अन्यत्र नहीं। पर यह कहा जा सकता है कि ‘मन्धार’ में जो प्रस्तर-खण्ड हैं, उनकी मौलिकता तथा परूष आकर्षकता भी अन्यत्र दुर्लभ है। भेड़ाघाट में सफेद पत्थर है। संगमरमर है । नवनीत – सा धवल और आँख में अँज जाने वाली शिलाखण्डों का स्निग्ध संसार है । ‘मन्धार’ का पत्थर काला है। लाल है । हरा है। भूरा है। छोटा नहीं है । ये रेत में पड़े और लुढ़के हुए नहीं है । यहाँ पत्थरों का पटाव है । नर्मदा प्रपात तक है और प्रपात से नीचे एक किलोमीटर की परिधि में है ।
पत्थरों की इस बिछात पर चलना और थककर या हुलसकर बैठ जाना प्रीतिकर लगता है । हम बच्चे हो जाते हैं। माँ के द्वारा लिपे – पुते आँगन में मासूमियत को बटोरने लगते हैं। बाहर से प्रस्तरों की तरह से संघर्ष में अडिग और भीतर से नर्मदा जल की तरह तरल, पारदर्शी और गतिमय होने की उमंग से भर जाते हैं । पत्थर कहीं सपाट हैं, कहीं नुकीले, कहीं परतदार, कहीं ऊबड़-खाबड़ और कहीं बेडौल – सुडौल । इन्हें देखकर लगता है अनगढ़त का भी एक सौन्दर्य होता है । पत्थरों की आपसदारी की भी एक उष्मा होती है। एक आत्मीय पुकार होती है।
नर्मदा का यह प्रपात नर्मदा सागर बाँध बनने के बाद समाप्त हो जायेगा। बाँध के कारण विशाल झील में तब्दील होती नर्मदा का यह निसर्ग सौन्दर्य जल समाधि ले लेगा । वह जल के भीतर अतीत की वस्तु बनकर पत्थर सौन्दर्य भर होकर डूबा रहेगा । यह बात मन को रह-रहकर सालती है।
नर्मदा जल के संगीत और पाषाण शिलाओं की पुकार को अपने संग लिये हम चल पड़ते हैं। नर्मदा पीछे छूट जाती है पर फिर भी वह हमारी आँखों में दृश्यमय बनी रहती है। जंगल से गुजरते हुए एक सूखे नाले की रेत में हमारी जीप धँस जाती है। ज्यों-ज्यों जीप जोर लगाकर बाहर आने का प्रयास करे, त्यों-त्यों चके रेत में और गहरे धँसते चले जाते हैं।
मैं वापस नर्मदा तट के उसी गाँव में आता हूँ । गाँव वालों से मुसीबत कहता हूँ। वे फावड़ा, कुल्हाड़ी लेकर मेरे साथ हो लेते हैं । फावड़े से रेत को खींचकर और चकों के नीचे रेत के ऊपर पलाश की डालियाँ काटकर बिछाते हैं। जीप को एक साथ उठाकर धकाते हैं। जीप रेत के दरिया से बाहर हो जाती है। मुझे लगता है विशुद्ध ग्रामवासियों ने ही समय-समय पर सहज भाव से मानव को संकट से उबारा है । वनवासियों ने भूले को राह दिखाई है।
‘मन्धार’ या किटी फाल में स्नान पर्व नहीं होता हो । लोग भले ही न जुटते हों। मेला न लगता हो । पर यहाँ नर्मदा का एकान्त उत्सव अहर्निश चलता रहता है। जल का नीचे गिरना भी मुग्धकारी और लोक कल्याणकारी होता है, यह निसर्ग द्वारा ही संभव है। रेवा का यह नैसर्गिक उत्सव यदि नर्मदा सागर बाँध बना तो समाप्त हो जायेगा । जल के गर्भ में यह उत्सव बिला जायेगा यहाँ नर्मदा नदी झील में परिवर्तित हो जायेगी । यह सुन्दर जल प्रपात इतिहास की वस्तु हो जाएगा।
आने वाली पीढ़ियों को पता भी नहीं रहेगा कि यहाँ नर्मदा शिलाखण्डों पर बिछल-बिछलकर गिरते हुए गति को परिभाषा देती थी। किनारे का गाँव डूब जाएगा । लोग और कहीं चले जायेंगे । किनारे के पेड़ डूब जायेंगे या काट दिए जायेंगे । बहुत कुछ बदलेगा । कुछ नया होगा। जल के तरह-तरह के उपयोग होंगे। सब कुछ और बहुत कुछ होगा। हम न होंगे। नर्मदा द्वारा करोड़ों वर्षों की मेहनत से बनाया गया मंधार जैसा नैसर्गिक प्रपात नहीं होगा ।
शोध एवं आलेख -डॉ. श्रीराम परिहार