Homeबुन्देलखण्ड का सहित्यMadhyakalin Dharmik Lokkavya मध्यकालीन बुन्देली धार्मिक लोककाव्य

Madhyakalin Dharmik Lokkavya मध्यकालीन बुन्देली धार्मिक लोककाव्य

बुन्देलखण्ड मे 14वीं शती में जैन और बौद्ध धर्म कुछ क्षेत्रों तक सीमित हो गए थे। शैव, वैष्णव और शाक्त सम्प्रदाय अलग-अलग भागों में प्रसार पा चुके थे। Madhyakalin Dharmik Lokkavya सभी धर्मो और सम्प्रदाय मे रचनात्मक स्वरूप मे स्थापित होने लगा था। ऐसी स्थिति में पुराना परम्परित सनातन धर्म सभी तरफ छा गया था।

बुन्देलखण्ड का मध्यकालीन धार्मिक लोककाव्य

धर्म का सनातनी स्वरूप और प्रवर्तन
बुन्देलखण्ड मे मध्यकालीन काल मे धर्म में प्राचीन वैदिक धर्म, शैव, वैष्णव, शाक्त आदि और पुराने छोटे-छोटे सम्प्रदायों के विशिष्ट तत्त्व समाहित थे। इस रूप में उसकी प्रमुख विशेषता समन्वयवादिता थी। इस समन्वय के बावजूद 14वीं शती के बाद भी शैव, वैष्णव और शाक्त सम्प्रदाय महत्त्वपूर्ण बने रहे। इतना अवश्य है कि मध्ययुग के सन्तों ने धार्मिक परिस्थिति परखकर धर्म का प्रवर्तन नई दिशा में किया था।

मध्ययुग के सन्त किसी विशिष्ट सम्प्रदाय के समर्थक थे और न उन्होंने कोई विशिष्ट सम्प्रदाय चलाया। वे केवल एक ईश्वर को मानते थे और उसकी भक्ति ही उनका साध्य थी। जाति और सम्प्रदाय-सम्बन्धी भेदभाव को नकारकर उन्होंने भक्ति की समुचित व्याख्या की थी। इस प्रकार धर्म के इतिहास में उन्होंने महत्त्वपूर्ण और स्थायी योगदान दिया है।

मध्यकालीन बुन्देलखंड का विशिष्ट धर्म और सम्प्रदाय
तोमर-काल में निर्मित जैन मूर्तियों से स्पष्ट है कि बुन्देलखंड के ग्वालियर क्षेत्र में जैन धर्म Jain Dharm का काफी प्रसार था। ग्वालियर राज्य के अभिलेखों से पता चलता है कि जैन आचार्यों का सम्मान किया जाता था। जैन रचनाकारों Yashkirti यशकीर्ति और Shrutikirti श्रुतिकीर्ति ने यहीं अपभ्रंश साहित्य को समृद्ध किया था। Sonagiri सोनागिरि, Narvar नरवर और Chanderi चन्देरी में जैन भट्टारकों के पट्ट पीठ थे। मध्ययुग में शैव, शाक्त और वैष्णव सम्प्रदायों का सामान्य रूप ही प्रचलित था।

तोमर-काल में नाथ-सम्प्रदाय के गुरुओं की परम्परा मिलती है। बुन्देले राजा अधिकतर वैष्णव थे। ओरछा-नरेश मधुकरशाह के तिलक की धाक अकबरी दरबार तक में थी। वीरसिंह देव प्रथम ने मथुरा का कृष्ण-मन्दिर और कई अन्य मन्दिरों का निर्माण करवाया था। ओरछा का चतुर्भुज मन्दिर (Chaturbhuj Temple Orchha) भी रामराजा सरकार की दिव्य मूर्ति के लिए बनवाया गया था। रियासतों के राज-परिवार अधिकतर वैष्णव रहे। वैसे सामान्य जनों में शिव और देवी की पूजा भी प्रचलित थी।

मुस्लिम शासकों की कट्टर नीति के कारण अयोध्या तीर्थस्थल सुरक्षित नहीं रह गया था और देशभर के रामभक्त चित्रकूट में निवास करने लगे थे। इस कारण चित्रकूट रामभक्ति का प्रमुख केन्द्र बन गया था। रामरसिक भक्त भी वहीं अपनी साधना-स्थली बना चुके थे।

रियासतों के राजा अधिकतर कृष्ण के उपासक थे, तो रानियाँ राम कीं। इस जनपद में भक्ति-जनपद में भक्ति-आन्दोलन की लहर मथुरा से आई थी, जब बिट्ठलनाथ जी मधुकरशाह को दीक्षित करने ओरछा आए थे। 16वीं शती की इस घटना के पूर्व ग्वालियर के कवि विष्णुदास ने 15वीं शती में रामायण कथा की रचना की थी, जो हिन्दी की रामकाव्य की परम्परा का पहला प्रबन्ध है।

मध्यकालीन बुन्देलखंड का लोकधर्म
लोकधर्म सभी धार्मिक सम्प्रदायों के विश्वासों के समन्वय से संघटित होता है। वैष्णव, शाक्त, शैव आदि सभी अपनी साम्प्रदायिकता छोड़कर एकजुट हो जाते हैं और उनसे परम्परित मानव-धर्म के उद्भव का पता चल जाता है। मध्ययुग में लोग बहुदेववाद में विश्वास करते थे।

देवियों और देवों के लक्ष्मी से खेरमाता तक और महादेव से मंगतदेव तक विविध रूप हैं और वे सब लोक की आस्था के प्रतीक हैं। कुछ व्यक्ति अपने विशिष्ट गुणों के कारण देव-कोटि में स्थापित हो गए हैं, जैसे हरदौल, मंगतदेव, अजैपाल, कारसदेव आदि। गौंड देव की पूजा उच्चवर्ण के लोग भी करते हैं। बहुत से देव भय के कारण पूजे जाते हैं, जैसे घटोइया, भिड़ोइया, नागदेव, फैंरिया बाबा, मसान, नट आदि।

बुन्देलखंड के व्रत-उपवास, पूजा-अनुष्ठान, उत्सव-त्योहार आदि मध्ययुगीन समाज के प्रमुख अंग थे। उनके द्वारा ही संघर्षों के बीच जीवन का रंजन होता था। कुतूहल, चमत्कार और प्रदर्शन की वृत्ति प्रमुख हो गई थी। व्यक्ति के सिरे देवता या देवी का आना, आग पर चलना, साँग छेदना, मंत्रा पढ़ना आदि प्रत्येक उत्सव में जुड़ गए थे।

आदिम जातियों का भूत-प्रेत, तन्त्र-मन्त्र और जादू-टोना में अधिक विश्वास था। त्योहार मनाना, तीर्थ-यात्रा, धार्मिक मेला में सम्मिलित होना धार्मिक कर्तव्य समझा जाता था। धार्मिक क्रियाएँ सामाजिक जीवन से संघटित थीं, मुस्लिम तथा अंग्रेजों के आक्रमण उसे बदल नहीं सके।

लीलापरक लोकनाट्य, नृत्य, संगीत आदि धर्म से सम्बद्ध थे और उनका प्रदर्शन देवालयों में किया जाता था। शासन की धर्मविरोधी नीति के कारण ललित कलाएँ राज्याश्रित होने लगी थीं, परन्तु लोककलाएँ लोकधर्म और लोकजीवन से हमेशा जुड़ी रहीं। अंग्रेजों के शासन में भी उनमें अन्तर नहीं आया। इस प्रकार संस्कार, उत्सव और लोककलाएँ, सभी लोकधर्म से मिलकर फूलती-फलती रहीं।

मध्यकालीन बुन्देलखंड की धार्मिक स्थिति और लोकसाहित्य
मध्ययुग में शैव, शाक्त और वैष्णव सम्प्रदायों का परिवर्तित उदार रूप लोक के आकर्षण का केन्द्र रहा, जिससे भक्तिपरक साहित्य में रामकाव्य, कृष्णकाव्य, शिवकाव्य, हनुमान काव्य आदि की धाराएँ यहाँ की मानसिक भूमि का सिंचन करती रहीं। असल में, सबसे पहले राम-कृष्णपरक लोकगीतों का जन्म हुआ, फिर उन्हीं से प्रेरणा पाकर परिनिष्ठित राम-कृष्ण-काव्य रचा गया।

भक्ति-आन्दोलन के प्रभाव के पूर्व ही बुन्देलखंड में राम-कृष्णपरक लोककाव्य की रचना होने लगी थी, लेकिन उसमें धर्म की कट्टरता के लिए कोई स्थान नहीं था। तात्पर्य यह है कि लोककाव्य धार्मिक होते हुए भी पन्थी या साम्प्रदायिक अर्थात् किसी विशिष्ट पंथ या सम्प्रदाय में सीमित नहीं रहा।

बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)

संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल

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