बुंदेली के रामपरक लोकगीत लोकजीवन का प्रमुख अंग है यहाँ जनमानस के Lok Jivan Men Ram रचे -बसे हैं जिसमें मानवीय संबंधों के ही नहीं पशुपक्षियों और प्रकृति के परिवेश से जुड़े जागतिक संबंधों के विविध रेखांकन देखे जाते है। उसमें बुंदेलखण्ड के भोजन-पेय, बस्त्राभरण, श्रृंगार-प्रसाधन, संस्कार, आचरण, लोकविश्वास, लोकमूल्य आदि लोकसंस्कृति के सभी चिन्ह अंकित हुए हैं।
लेकिन विशेषता यह है कि उन सबमें पारिवारिक आदर्शों के रंग अधिक चटख हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि रामपरक लोकगीतों के द्वारा मध्ययुग की विश्रृंखलित समाज में पारिवारिक एकता की जागृति का मंत्र दिया गया है। मायके और सासरे दोनों की चिन्ता है-
राजा जनक से बाबुल दइयो, रानी सुनैना सी माया दइयो
लछमीचन्द से भइया दइयो, सुभद्रा सी भौजाई दइयो
ऋद्धि सिद्धि सी बैनें दइयो, बालमुकुन्द भतीजे दइयो
इतनौ कुटुम मायके को दइयो, फिर कछू ससुरे को सुनियो
राजा दसरथ से ससुरा दइयो, रानी कौसिल्या सी सासो दइयो
भरत सत्रुघन से देवरा दइयो, देवरानी जिठानी झगड़बे खाँ दइयो
पाँच पुत्र की माता करियो, कन्या एक धरम खाँ दइयो…..
मध्ययुग में विदेशी संस्कृति के आक्रमण के खिलाफ लोकसंस्कृति का यह रक्षा-आंदोलन अनिवार्य था। इसीलिए माता-पिता के साथ सास-ससुर को गरिमा दी गयी थी-
’सास हमारी गंगा जो जमुना, ससुर हैं तीरथ पिराग‘।
इसी वजह से राम-सीता के संस्कारों में हर नर-नारी को ढालने की कोशिश की गयी थी। लोकसंस्कारों की पवित्रता पर जोर देना भी इसी योजना का अंग था- ’मड़वा भीतर बाबुल गंगा बहत है उतइँ हैं तीरथ पिराग‘। इतना ही नहीं, संस्कारों को एक प्रमुख शक्ति के रूप में मान्यता दी गयी थी-’कोट नबै परबत नबै सिर नबत नबाये, माथौ जनक जू कौ तब नबै जब साजन आये‘ अर्थात् समधी बड़े-बड़े किलों, पर्वतों और अन्य जबर शक्तियों की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली हैं।
लोकजीवन के यथार्थ चित्र भी रामपरक गीतों में मिलते हैं। संस्कारपरक गीतों में विविध संस्कारों के उत्सवपरक गीतों में रामनवमी, अकती, होली आदि के और तथा घटनापरक गीतों में जीवन की वास्तविकता के अनेक रूप बिम्बित हुए है। राम और सीतादि के प्रतीकों से शिकार, खेती आदि करने की झलक भी दिखाई देती है।
काये खाँ बाँधी लछमन धनइयाँ,
काये खाँ पाँचैं बान?
मिरगा बारी ऐसें चुनें,
जैसें अनाथ को खेत।
काये खाँ निरखी भौजी धनइयाँ,
काये खाँ पाँचऊ बान?
परों मिरगा खाँ मारन चलों,
मोये जसरथ की आन।
इनमें सीता लक्ष्मण को व्यंग्य करती हैं कि उन्होंने धनुष-बाण क्यों बाँध रखे हैं जबकि मृग खेत ऐसे चर रहे हैं जैसे वह अनाथ (बिना स्वामी) का हो। इस पर लक्ष्मण उत्तर देते हैं कि भौजी धनुष-वाण क्यों देखती हो और अपने पिता की आन रखकर प्रतिज्ञा करते हैं कि वे परसों मृग का शिकार करेंगे। इसी प्रकार राम, सीतादि को माध्यम बनाकर लोकजीवन के चित्र लिखे गये हैं।
रामपरक गीतों का शिल्प
शिल्प की दृष्टि से रामपरक गीतों में कोई खास विशेषता नहीं है। वे सरल, सहज, प्रकृत और स्वच्छंद आदिवासी बालकों की तरह खेलते-कूदते विचरण करते रहते हैं। उन्हें न तो सँवरने की चिन्ता है और न प्रदर्शन की रूचि। अपनी ही लय में हिलते-डुलते और बतयाते वे सबकुछ स्वयं कह देते हैं। इतना अवश्य है कि नये नये उपमान जैसे मोरपंख उन्हें मिल जाते हैं, तो वे अपने सिरों में खोंसकर एक नयी धज बना लेते हैं। राम अपनी माता के पूछने पर कहते हैं-
हँस हँस पूछें माय कौसिल्या, बेटा, कैसी बनी ससुरार।
सासो हमारी गंगा जो जमुना, ससुर हैं तीरथ पिराग।
सासें हमारीं अधिक पियारीं देती हैं दूद बियारीं,
सारे हमारे घुड़ला फिराबैं साराजें तपैं रसोई।
जैसी मढ़ भीतर लिखी पुतरिया वैसी ही बहू तुमार।
उक्त पंक्तियों में गंगा-यमुना, तीर्थराज प्रयाग और मढ़ में लिखी पुतरिया के उपमान साथर्क बन पड़े हैं। भात (चावल) के लिए बेला की कलियाँ, राम के मुख के लिए अरसी का फूल, माँग के लिए गंगा की धार आदि प्रकृति से ग्रहण किये गये हैं जो लोक के जाने-पहचाने और प्रिय हैं।
कहीं-कहीं राम, सीता दशरथ, जनक आदि पात्र उपमान बनकर अपने सम्पूर्ण व्यक्तित्व का बोध कराते हैं और आदर्श का मूर्त रूप खड़ा कर देते हैं जो अपनी नवीनता और मौलिकता में अद्वितीय ठहरता है। इस तरह उपमानों का संयोजन अपने-आप हो जाता है और गीत का सौन्दर्य निखर उठता है।
रामपरक गीतों में अधिकांश वर्णन, विवरण और आख्यान-प्रधान हैं। उनका सौष्ठव कथ्य की शैली पर निर्भर है। प्रश्नोत्तर, संवादात्मक, आत्मकथनात्मक, व्यंग्यात्मक, दृश्यात्मक जैसी शैलियाँ गीतों में सहज रमणीयता भर देती हैं।
साँची बता देव मोरे लाला लखन जू,, अब की अबन कबै होय मोरे लाल।
जबसें तुम हमरे घर आये, हमनें कामदन्द बिसराये, तुमसें नेहा खीब लगाये,
नैना तुमारे रतनारे लखन जू, अब की अबन कबै होय मोरे लाल।
जो न होबै धनुस कौ टोरबो, कठिन कंकन गाँठ छोरबो।
तुमनें जनकपुरी पग धारे, तुमनें छत्रिन के मद मारे,
तुमसें परसराम लड़ हारे, सो तुम पर गये फंद हमारे,
इतै चलहै न नैना मरोरबो, कठिन कंकन गाँठ छोरबो।
दोनों अंशों में जनकपुरी की ललनाएँ लक्ष्मण और राम से संवाद की शैली में कहती हैं, परन्तु पहले में उत्कण्ठामयी जिज्ञासा है तो दूसरे में विनोदमयी चुनौती। दोनों की कथनभंगियाँ अलग-अलग हैं, इसीलिए दोनों की लोकप्रियता के आधार भी वही भिन्न भंगिमाएँ हैं। विनोद की मनुहारों में छिपी प्रेमभरी ललक ही दोनों गीतों की मधुरिमा की कुंजी है।
पुनरावृत्ति की कथन-भंगी कहीं-कहीं ऐसी महसूस होती है कि उसे बार-बार भावना देकर प्रभावशाली बनाया जा रहा हो। उदाहरण के लिए निम्न गीत देखें-
भर आये दोई नैन, हमनें राम ना देखे।
देखे ताल बिच देखे ताल बिच देखे, धोबिन तोरी ओट हमनें राम ना देखे।
देखे बाग बिच देखे बाग बिच देखे, मालिन तोरी ओट हमनें राम ना देखे।
देखे भौन बिच देखे भौन बिच देखे, रनियाँ तोरी ओट हमनें राम ना देखे।
देखे कुंजन बिच देखे कुंजन बिच देखे, सखियाँ तोरी ओट हमनें राम ना देखे।
भर आये दोई नैन, हमनें राम न देखे।।
किसी विशेष रस की भावना जब बार-बार दी जाती है, तब ओषधि की शक्ति बढ़ जाती है। उक्त गीत में देखने की क्रिया बार-बार होती है और बार-बार दोनों नेत्र भर-भर आते हैं क्योंकि दर्शन की तृप्ति नहीं हो पाती। इस तरह राम के दर्शन की अतृप्ति का संकेत किया गया है।
इन उदाहरणों से रामपरक लोकगीतों के शिल्प का आभास हो जाता है। लोककाव्य का अपना काव्यशास्त्र होता है और उसमें शिल्प-सौष्ठव के अपने आधार होते हैं। उन्हीं में से कुछ प्रतिमान लेकर परीक्षण किया गया है जिससे हम इस निर्णय पर पहुँचे हैं कि रामपरक लोकगीत शिल्प की दृष्टि से उतने महत्व के नहीं हैं जितने कि विषयवस्तु की दृष्टि से।