Jagdeesh Prasad Rawat ‘Jagdeeshwar’ जगदीश प्रसाद रावत ‘जगदीश्वर’

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Jagdeesh Prasad Rawat ‘Jagdeeshwar’ का  जन्म टीकमगढ़ जिले के ग्राम मालपीथा में श्री आशाराम रावत एवं  श्रीमती राजकुमारी रावत के घर 10 जुलाई 1957 कोहुआ। उनकी प्रारंभिक शिक्षा टीकमगढ़ जिले के ग्राम गोर में ही हुई।

श्री जगदीश प्रसाद रावत ‘जगदीश्वर’ के पिताजी उज्जैन में नौकरी करते थे जिससे साथ में यह भी चले गए और हायर सेकेन्ड्री परीक्षा उज्जैन से पास की। बी.एस.सी. (कृषि) की परीक्षा इन्दौर से तथा एम.एससी. की परीक्षा सीहोर से उत्तीर्ण की। बाद में मध्यप्रदेश शासन के वन विभाग में रेंजर के रूप में नौकरी की।

हिन्दी में रुचि होने के कारण सेवा में रहते स्वाध्यायी रूप से एम.ए. हिन्दी रीवा विश्वविद्यालय से उत्तीर्ण की। कक्षा पाँचवीं से ही कवितायें लिखना प्रारंभ किया। आठवीं में पढ़ते समय पहली कविता प्रकाशित हुई। 1982 में ‘गर्दिश के पैबंद’ नाम से काव्य संग्रह प्रकाशित हुआ।

अभी तक आधे दर्जन से अधिक काव्य कृतियाँ प्रकाशित हैं। अप्रकाशित रचना संग्रहों में ‘उरवतियाँ’, ‘बाँके बोल बुन्देली के’ तथा ‘बिछुआ ने डंक मारो’ है। इनकी रुचि काव्य रचना के अलावा फोटोग्राफी, पर्यावरण लेखन, फिल्म निर्माण तथा पत्रकारिता में भी है।

चौकड़ियाँ
बिन्नू तरसाबे खों आबें, अंग-आँचर फरकाबें।
हमें देख मूड़ कौ छोरा, ठेंके उठा-गिराबें।।

फेरें कोंचा, केसन ऊपर, आंख कभँउ झरकाबें।
‘जगदीश्वर’ जो मिलै पुराने यार, हमें टरकावें।।


प्रेयसी अपने प्राण प्रिय प्रेमी को अपने सुन्दर एवं कोमल अंगों तथा आंचल के पल्लू को गिराकर उड़ाती हुई रिझाती है। वस्तुतः वह इस प्रकार के उपक्रम करके उसे तड़फाती और तरसाती है। इतना ही नहीं वह सिर की ओढ़नी प्रियतम को देखकर जबर्दस्ती गिराती है।

वह विचित्र क्रिया-कलाप करती है जैसे कभी अपनी हथेली से सिर को बालों पर स्पर्श कर उन पर हाथ की उँगलियाँ घुमाती हैं। कभी-कभी आँखों को झपकाकर उन्हें घुमाती है। जगदीश्वर कहते हैं कि प्रियतम को रिझाने वाली इन्हीं आकर्षक क्रियाओं के बीच यदि भूले-भटके कोई पुराना प्रेमी मिल जाता है तो वह हमें अपने आस-पास से दूर भगा देती है।

करत-धरत जे कच्छू नैंया, सोन चाउत सुख की छैंया।
शेर चाउत कै कौरा आबै, बैठे-ठाले मो के मैंया।।

भुजबल पै विश्वास करें न, पकरैं फिरें गैर की बैंया।
‘जगदीश्वर’ नौनी है जोरू, पींदा बलम बिचारे सैंया।।

एक ग्राम्य-बाला का पति किसी प्रकार का कोई काम नहीं करता, जिससे उसके परिवार का उदर-पोषण हो सके, बावजूद इसके वह सुख की छाया में सोने की कामना करता है। जैसे जंगल का राजा शेर भी यदि चाहे कि बिना शिकार किए खाने का निवाला अपने आप उसके मुँह में प्रविष्ट हो जाये तो क्या यह संभव है?

उसके पति अपने बाहुबल पर विश्वास नहीं करते कि उनमें भी ताकत है और पराश्रित होकर किसी दूसरे की बाँह पकड़ते फिरते हैं जिससे कोई उसे जिजीविषा का अबलम्बन दें। जगदीश्वर कहते हैं कि ग्रामीण पति की पत्नि बहुत समझदार और अच्छी है लेकिन क्या करे? इस बेचारी के पति निकम्मे हैं।

पांखें पकर पेंड़ दो भीतर, करिया कठिन कबूतर।
सोन-चिरैया, हंस, आत्मा तन है अपनौ तीतर।।

लगत देखबे में एकइ से दोऊ चीता चीतर।
रंग-रूप खों छोड़ भजौ तुम मनमोहन ‘जगदीश्वर’।।


यह जो मनचला मन रूपी काले-स्याह रंग का कबूतर है वह स्वेच्छाचारी है। अतः उसके दोनों पंख पकड़कर इसे सदाचारी और आध्यात्म रूपी पिंजड़े में कैद कर दो, क्योंकि यह बहुत कठिन कबूतर है। मनुष्य की देह में सोन-चिरैया और हंस के समान आत्मा और तन रूपी तीतर-बटेर है। जैसे कि जंगल के प्राणी चीता और चीतल (हिरण) एक समान दिखते हैं। जगदीश्वर कवि कहते हैं कि हे मानव! तू रंग-रूप के धोखे में मत पड़ जाना। रूपायन के आकर्षण को त्यागकर तू मन को मोहित करने वाले प्रभु श्रीकृष्ण का भजन कर।

भरकें निगा हेर लो गुइयां, हिरा न जांय गुसइयां।
पैलां हतें चिनक बेर से, बड़ के बने बटँइयां।।

बटरा सें बन गए खता जब कमी दरद की नैंया।
पीर होत ‘जगदीश्वर’ छोड़ों, परूँ तुम्हारे पैंयां।।

एक सखी दूसरे से कहती है कि तुम अपने उरोज निगाह भर के देख लो कहीं वह विलुप्त न हो जावें। हालांकि वह पहले बेर के फल के आकार के बिल्कुल छोटे से थे फिर वे गोल पत्थर की मानिंद बढ़कर हो गए। वे दाल के आकर से बढ़कर गोल आकार के मांसल उरोज हो गये।
वह अक्षत यौवन के भ्रमर के कारण दर्द देने लगे हैं।
जगदीश्वर कहते हैं ऐसे में अगर कोई प्रियतम इन्हें स्पर्श करता है तो पहली अनुभूति के कारण पीड़ा होती है। नायिका कहती है कि मुझे तुम छोड़ दो, ऐसा न करो मैं तुम्हारे पांव पड़ती हूँ।

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बुन्देली झलक 

शोध एवं आलेख – डॉ.बहादुर सिंह परमार
महाराजा छत्रसाल बुंदेलखंड विश्वविद्यालय छतरपुर (म.प्र.)

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