Gupt Kalin Sanskriti  गुप्त कालीन संस्कृति

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भारतीय संस्कृति की प्रतिष्ठा और उन्नति को गौरवशाली पृष्ठभूमि गुप्तकाल के सांस्कृतिक उत्थान ने प्रदान की। गुप्त शासकों ने लगभग 275 ई से 550 ई तक शासन किया और Gupt Kalin Sanskriti  की स्थापना की । इस प्रकार गुप्त शासकों ने तृतीय शताब्दी ई से छठी शताब्दी ई तक शासन किया। चन्द्रगुप्त प्रथम समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य जैसे प्रतापी शासक गुप्त राजवंश में हुए।

गुप्तों ने देश में राजनैतिक एकता स्थापित की। जिससे चतुर्दिक प्रगति, नवचेतना और नवस्फूर्ति का संचार हुआ। गुप्तों के उदार सुशासन ने देश में सभी क्षेत्रों की प्रगति के द्वार खोल दिये थे। गुप्तों ने सभी धर्मो एवं समाजों के साथ समानता, समन्वय एवं सहिष्णुता का अद्भुत परिचय दिया था।

इसी कारण सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक क्षेत्र में प्रगति के नवीन सोपानों का निर्माण गुप्तकाल में हुआ। साहित्य एवं कला की सृजनशीलता तो गुप्त शासकों का आश्रय पाकर अपनी पराकाष्ठा तक पहुँच गयी थी। गुप्तकाल में सांस्कृतिक उत्थान की महान् उपलब्धियों ने गुप्तकाल को भारतीय इतिहास का ’स्वर्णकाल’ बना दिया है।

गुप्तकाल में सामाजिक स्थिति
गुप्तकाल सामाजिक परिवर्तन का काल था। शुंग-सातवाहन काल में जिस ’वर्णाश्रम धर्म’ का पुनरूत्थान हुआ था, वह गुप्तकाल में अपनी पराकाष्ठा को प्राप्त कर चुका था। गुप्तकालीन सामाजिक जीवन अपनी प्राचीनता के साथ-साथ नवीन सामाजिक विचारों और पद्धतियों के साथ विकसित हुआ। गुप्तकाल तक आते – आते वर्ण व्यवस्था जन्म पर आधारित हो गयी थी। ब्राह्मण वर्णाश्रम व्यवस्था में सकारात्मक परिवर्तन भी गुप्तकाल में दिखने को मिलते है।

गुप्तकाल में वर्ण व्यवस्था
गुप्तकाल के सामाजिक पटल पर विविध परिवर्तन देखने को मिलते हैं। वर्ण व्यवस्था जन्म पर आधारित हो चुकी थी। साथ ही, वर्ण व्यवस्था में लोचता के अधिक प्रमाण मिलते हैं। गुप्तकालीन गौरव ग्रंथों में राजा को ’वर्णाश्रम धर्म’ का संरक्षक कहा गया है और उससे आशा की गयी है कि, वह वर्णाश्रम धर्म की सीमाओं के उल्लंघन को रोके। समाज चार वर्णो में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र में विभाजित था।

गुप्तकाल में ब्राह्मणों के धर्म विहित वही कर्त्तव्य थे, जो परंपरागत चले आ रहे थे। अध्ययन – अध्यापन, धार्मिक – यज्ञानुष्ठान, दान लेना आदि थे। गुप्तकाल में अनेक ब्राह्मण उच्च प्रशासनिक पदों पर पदासीन थे। क्षत्रिय का कर्त्तव्य रक्षा – युद्ध, राजकाज से संबंधित था। वैश्य का कर्त्तव्य आर्थिक क्रियाकलापों कृषि, पशुपालन, व्यापार एवं वाणिज्य से संबंधित था।

शूद्र का कर्त्तव्य समाज की सेवा करना था। किन्तु यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि, गुप्तकालीन वर्णाश्रम व्यवस्था में शूद्रों के जीवन में भारी सकारात्मक परिवर्तन दिखने को मिलते है। फाह्यान से ज्ञात है कि, चारों वर्ण सामाजिक नियमों का पालन करते हुए अलग – अलग रहते थे।

वाराहमिहिर ने ’वृहत्संहिता’ में चारों वर्णो की अलग – अलग बस्तियों का विधान दिया है। दण्ड विधान में भी विभेद के प्रमाण मिलते हैं। ब्राह्मण की परीक्षा तुला से क्षत्रिय की अग्नि से वैश्य की जल से एवं शूद्र की विष से लिये जाने की सलाह दी गयी है। नारद स्मृति की सलाह है कि, चोरी करने पर ब्राह्मण का अपराध सर्वाधिक तथा शूद्र का सबसे कम माना जाएगा।

गुप्तकाल में शूद्रों को दण्ड विधान में भारी छूट मिली। उन्हें उच्च वर्णो की अपेक्षा सबसे कम दण्ड मिलता था। गुप्तकालीन दण्ड विधान का शूद्रों के लिए यह अभूतपूर्व परिवर्तन था। गुप्तकाल में शूद्रों के सम्पत्ति अधिकारों में भी वृद्धि हुई। शूद्रक ने मृच्छकटिक में लिखा है कि, ब्राह्मण और शूद्र एक ही कुएं से पानी भरते थे।

गुप्तकाल में जहाँ राजा को वर्णाश्रम धर्म की सीमाओं की सुरक्षा का दायित्व दिया गया था, वहीं सर्वाधिक वर्णाश्रम धर्म के उल्लंघन के प्रमाण गुप्तकाल में ही मिलते हैं। सर्वप्रथम तो गुप्त शासक ही संभवतः वैश्य थे। साथ ही, गुप्तकाल में ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य एवं शूद्र राजाओं का उल्लेख मिलता है। ब्राह्मण मयूरशर्मन एवं विंध्यशक्ति ने क्रमशः कदम्ब एवं वाकाटक राजवंशों की स्थापना की।

सौराष्ट्र, अवन्ति, मालवा के ’शूद्र’ राजाओं का उल्लेख मिलता है। इस प्रकार गुप्तकाल में शूद्र प्रशासन एवं सैन्य व्यवस्था में क्रियाशील थे। वस्तुतः शूद्रों के जीवन में यह परिवर्तन उनकी सामाजिक स्वीकृति एवं उच्चता प्राप्ति का प्रतीक है। गुप्तकालीन ग्रंथों अमरकोष, याज्ञवल्क्य स्मृति, नृसिंह पुराण, वृहस्पति स्मृति आदि से पता चलता है कि, शूद्र केवल उच्च वर्णो की सेवक नहीं थे, अपितु शूद्र, कृषक, व्यापारी, शिल्पी, कामगारों आदि का कार्य करते थे।

पुराणों ने भी शूद्रों को व्यापार एवं वाणिज्य की अनुमति दी है। गुप्तकाल में आर्थिक प्रगति होने से श्रमिकों की मजदूरी दुगनी होने के भी प्रमाण मिलते हैं। गुप्तकाल में शूद्रों के धार्मिक अधिकारों में भी वृद्धि हुई। गुप्तकालीन ग्रंथों में दान-पुण्य, भक्ति और यज्ञादि करते शूद्रों का उल्लेख है। मार्कण्डेय पुराण शूद्रों को दान देने और यज्ञ करने की अनुमति देते हुए इसे शूद्रों का कर्तव्य बताता है।

मत्स्य पुराण भक्ति में मग्न, शुद्धाचरण युक्त शूद्र को ’मोक्ष’ का भागी बताता है। याज्ञवल्क्य शूद्रों को ’पंचमहायज्ञ’ करने की अनुमति देता है। इससे स्पष्ट है कि, शूद्र धर्म-कर्म में लीन रहते हांेगे और धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन भी करते होगें। अतः ऐसा प्रतीत होता है कि, खानपान छुआ-छूत आदि की भावना गुप्तकाल में नहीं रही होगी। गुप्तकाल में शूद्रों का सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक एवं धार्मिक विकास हुआ और इससे उनका निश्चित रूप से सांस्कृतिक उत्थान हुआ होगा।

गुप्तकाल के सामाजिक पटल पर कायस्थ नामक एक नवीन वर्ग प्रगट हुआ। जिसकी उत्पत्ति भूमि संबंधी राजस्व क्रियाकलापों से हुई। कायस्थों का प्रमुख कार्य लेखन, लेखाकरण, गणना, आय-व्यय, भूमिकर संग्रहण आदि थे। कायस्थ प्रमुखतः शासन की सेवा में रहते थे। याज्ञवल्क्य स्मृति में सर्वप्रथम ’कायस्थ वर्ग’ का उल्लेख हुआ है। कालान्तर में गुप्तकाल के बाद की ’ओशनम् स्मृति’ में कायस्थों का एक जाति के रूप में उल्लेख मिलता है।

गुप्तकालीन समाज में वर्ण संकर जातियों का भी उल्लेख मिलता है। अमरकोष, याज्ञवल्क्य स्मृति, गौतम स्मृति आदि गुप्तकालीन ग्रंथों में मिश्रित जातियों एवं वर्णसंकर जातियों का उल्लेख मिलता है। इनका उदय अनुलोम-प्रतिलोम विवाहों और सामाजिक एवं धार्मिक नियमों के उल्लंघन से हुआ था। गुप्तकाल में चाण्डालों का उल्लेख अस्पृश्य जाति के रूप में हुआ है। फाह्यान ने चाण्डालों के अधम कार्यो में संलग्न रहने और ग्रामों से बाहर पृथक बस्ती में  रहने का विवरण दिया है।

गुप्तकाल में स्त्रियों की स्थिति
गुप्तकालीन साहित्य व कला में स्त्रियों की आदर्शमय स्थिति का चित्रण मिलता है। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि, स्त्रियों की स्थिति संतोषजनक रही होगी। गुप्त युग में रानी के रुप में नारी की प्रधान स्थिति थी, वह कई स्थानों पर शासन संचालिका तथा प्रांतीय शासिका रही एवं उच्च वर्गो की लड़कियां उदार शिक्षा पाती थीं और उस युग के सांस्कृतिक कार्यो में खूब दिलचस्पी लेती थी।

कुमारसंभव में कन्या को कुल का ’प्राण’ कहा गया है। रघुवंश को ’स्त्री रत्न’ एवं मालविकाग्निमित्र में ’वीरप्रसगिनी’ कहा गया है। ‘रघुवंश’ एवं ‘स्वप्नवासवदत्ताम्  में नायक अपनी पत्नी को प्रिये, सखी, सचिव, शिष्या कहता हैं, राजशेखर ने ‘काव्यमीमांसा’ में लिखा है कि, स्त्रियाँ भी कवयित्री होती थी। ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम’ में अनुसूया को ‘इतिहास’ का ज्ञाता कहा गया है।

भवभूति, ‘मालती-माधव’ में माधवी को चित्र अंकित करते एवं संस्कृत समझने योग्य बताता है। अमरकोष स्त्रियों को शिक्षिका होना बताता है। कालीदास नारी साज सज्जा एवं प्रसाधनों पर विशेष जानकारी मिलती है। अजंता के भित्ति चित्रों से नारी केश सज्जा की विविध कलाओं का ज्ञान होता है। गुप्तकालीन समाज में गणिकाओं और देवदासियों के भी उल्लेख मिलते है।

इस काल में ’सती प्रथा’ के स्पष्ट उल्लेख मिलते है। कालीदास एवं वात्स्यायन ने ’सती प्रथा’ का उल्लेख किया है। गुप्तकालीन स्मृतिकारों वृहस्पति स्मृति एवं विष्णुस्मृति में सती होने की अनुमति दी गयी है। इस काल में सती प्रथा का प्रथम अभिलेखीय स्पष्ट उल्लेख मिलता है। 510 ई. के भानुगुप्त के एरण अभिलेख में गोपराज की पत्नी के सती होने का उल्लेख मिलता है।

गुप्तकालीन समाज में पुनर्विवाह, पर्दा प्रथा, बाल-विवाह, अंतर-जातीय, अनुलोम-प्रतिलोम विवाह प्रचलित थे। समाज में एक पत्नी विवाह आदर्श माना जाता था। हालाँकि शासक वर्ग में बहुपत्नी प्रथा प्रचलित थी। गुप्तकालीन समाज में विधवा-विवाह प्रचलित था। नारद एवं पराशर स्मृति में विधवा-विवाह के समर्थन में उल्लेख मिलता है।

चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने अपने बड़े भाई रामगुप्त की विधवा पत्नी धु्रवदेवी से विवाह किया था। अंतर-जातीय एवं अनुलोम-प्रतिलोम विवाह के उल्लेख राजवंशों के आपसी विवाहों में मिलते है। चन्द्रगुप्त ने अपनी पुत्री प्रभावती गुप्त की शादी ब्राह्मण वंशीय वाकाटक राजवंश के राजकुमार रूद्रसेन द्वितीय से किया था। चन्द्रगुप्त का विवाह नागवंशीय कुबेरनागा से हुआ था। ब्राह्मण वंशीय कंदम्ब राजवंश ने गुप्त राजकुमार से अपनी पुत्री का विवाह किया था। अतः स्पष्ट है कि, स्त्रियां शिक्षित होती थी तथा उनकी स्थिति अच्छी थी।

गुप्तकाल में मनोरंजन के साधन
गुप्तकालीन समाज में दैनिक जीवन को आनंदित एवं प्रफुल्लित रखने के लिए मनोरंजन के अनेक साधन विद्यमान थे। नृत्य – संगीत, नाटक, मल्ल युद्ध, घुड़दौड़, रथदौड़, साँड युद्ध, शिकार खेलना आदि का मनोरंजन के साधन के रूप में विवरण मिलता है। गुप्तकाल में द्युत क्रीड़ा एवं चौपड़ का खेल मनोरंजन का प्रमुख साधन था।

पानगोष्ठियों में सामूहिक सुरापान करने के उल्लेख मिलते हैं। जल क्रीड़ा एवं नौका विहार, पशु-पक्षियों का युद्ध आदि मनोरंजन के साधन थे। राज्य शासन के ओर वार्षिक महोत्सवों ’शरद पूर्णिमा’ को ’कौमुदी महोत्सव’ तथा चैत्र की पूर्णिमा को ’वसंतोत्सव’ मनाया जाता था। गुप्तकाल में नाटकों का मंचन भी मनोरंजन का साधन था। फाह्यान पाटलिपुत्र में वार्षिक ’रथयात्रा’ उत्सव का उल्लेख करता है।

गुप्तकाल में दास प्रथा
दास प्रथा, प्राचीन भारतीय समाज की वास्तविकता थी। गुप्तकाल में भी दास प्रथा विद्यमान थी, हालांकि गुप्तकाल में दास प्रथा में सकारात्मक परिवर्तन आया। गुप्तकालीन स्मृति ग्रंथों से दास प्रथा के बारे में व्यापक सूचना मिलती है। कात्यायन, नारद, याज्ञवल्क्य स्मृति में नीचे की जाति का दास होना बताया गया है, अर्थात् स्वामी उच्च जाति का होना चाहिए। हालांकि, दास किसी को भी बनाया जा सकता था।

गुप्तकाल में दास एवं दासियों के विदेशों से आयात करने के भी प्रमाण मिलते है। दासों को कृषि कार्यों, घरेलू कार्यों एवं अधम कार्यों में लगाया जाता था। स्त्री दासियों के भी प्रमाण गुप्तकाल में मिलते है। स्त्री दासियों को घरेलू कार्यों के साथ ही, भोग-विलास में संलग्न रखा जाता था। यदि कोई दासी अपने स्वामी के पुत्र को जन्म देती थी, तो उसे दासता से मुक्ति मिल जाती थी।

गुप्तकालीन स्मृतिकार नारद ने 15 प्रकार के दासों का उल्लेख किया है। सर्वप्रथम गुप्तकालीन स्मृतिकार नारद ने ही दासता से मुक्ति के अनुष्ठान का विधान दिया है। गुप्तकाल में दास प्रथा कमजोर पड़ी। 

गुप्तकाल में आर्थिक स्थिति
गुप्तकाल का आर्थिक जन जीवन उन्नतिशील एवं समृद्ध था। गुप्तकालीन राजनैतिक स्थिरता एवं प्रशासनिक सुव्यवस्था ने आर्थिक प्रणालियों के विकास के मार्ग प्रशस्त किये। कृषि, पशुपालन, लघु उद्योग, विविध व्यवसायों, व्यापार एवं वाणिज्य आदि सभी आर्थिक क्षेत्रों में प्रगति होने से तत्कालीन आर्थिक जन जीवन समृद्धि के नवीन क्षितिजों को स्पर्श कर रहा था।

गुप्तकाल में कृषि
कृषि गुप्तकालीन अर्थव्यवस्था की रीढ़ थी। अधिकांश जनता कृषि पर निर्भर थी। गुप्तकाल में जौ, गेहूँ, चावल, दाले, तिल, सरसों, अदरक, सब्जियाँ, गन्ना आदि का उल्लेख गुप्तकालीन ग्रंथों में मिलता है। वाराहमिहिर ने वृहत्संहिता में रबी, खरीफ एवं तीसरी साधारण फसल के उत्पन्न होने का उल्लेख मिलता है। वाराहमिहिर ने वृहत्संहिता में आम, केला, नारियल, कटहल आदि अनेक फलों की खेती का विवरण दिया है।

गुप्तकालीन ग्रंथों से काली मिर्च, इलायची लौंग, चंदन, कपूर आदि कृषि का उल्लेख भी मिलता है। कृषि बैलों और हल से की जाती थी। कृषि के पशुपालन भी गुप्तकाल के कृषक की आजीविका का प्रमुख साधन था। गुप्तकाल में कृषि की अवस्था अच्छी थी। कृषि उत्पादन मांग से अधिक उत्पन्न होता था। गुप्तकाल में राजा भूमि का स्वामी होता था।

कृषि उत्पादन का 1/6 से लेकर 1/4 भाग तक कर लिया जाता था। कृषि उत्पादन कर को ’भाग’ कहा जाता था। भाग, भोग, उद्रंग, उपरिकर आदि कृषिकरों का उल्लेख मिलता है। कृषक, नगद एवं अन्न दोनों रूपों में कर देने के लिए स्वतंत्र थे। गुप्तकाल में कर प्रशासन का ठोस ढाँचा स्थापित था। ’धु्रवाधिकरण’ भूमिकर संग्रह करता था तथा ’महाक्षपटलिक’ एवं ’करणिक’ नामक पदाधिकारी भूमि अभिलेखों को सुरक्षित रखते थे।

भूमि संबंधी विवादों को सुलझाने के लिए ’न्यायाधिकरण’ नामक पदाधिकारी की नियुक्ति की गयी थी। गुप्तकाल में भूमि माप से संबंधित निवर्तन, पाटक, नड़, कुल्यावाप, द्रोणवाप, आढ़वाप आदि ईकाईयों का उल्लेख मिलता है। राज्य कृषि सिंचाई की ओर ध्यान देता था। स्कंदगुप्त के जूनागढ़ अभिलेख से सुदर्शन झील के जीर्णोद्वार का उल्लेख मिलता है। यह सिंचाई की ओर राज्य की प्रतिबद्धता का प्रमाण हैं। गुप्तकालीन ग्रंथों में सिंचाई के साधनों के रूप में अरघट्ट (रहट) का उल्लेख मिलता है। वाराहमिहिर की वृहत्संहिता में मौसम एवं वर्षा की भविष्यवाणियों का उल्लेख मिलता है। सिंचाई वर्षा, तालाब, कुंआ, नदियों, झीलों आदि से होती थी।

गुप्तकाल में उद्योग-धंधे, व्यापार एवं वाणिज्य
गुप्तकाल में उद्योग धंधे, व्यापार एवं वाणिज्य उन्नत अवस्था थी। सुदृढ़ प्रशासनिक व्यवस्था एवं विकसित मुद्रा प्रणाली ने आर्थिक प्रगति को आधारभूत पृष्ठभूमि प्रदान की। गुप्तकालीन प्रशासन ने सुसंगठित व्यापारिक संघो एवं श्रेणियों की स्थापना को अपना प्रगतिशील समर्थन एवं सहयोग दिया। गुप्तकाल में प्रमुख व्यापारिक नगरों को सड़कों से जोड़ दिया गया था तथा उनकी सुरक्षा का पूरा प्रबंध किया गया था। इससे आंतरिक एवं बाह्म व्यापार को सुदृढ़ता मिली।

गुप्तकालीन गौरव ग्रंथों में अनेक प्रकार के व्यवसायों का उल्लेख मिलता है। वस्त्र व्यवसाय, वस्त्र रंगने का व्यवसाय, हाथी दांत से बनी वस्तुओं के व्यवसाय, शिक्षण एवं सैन्य व्यवसाय, उद्यान कार्य, शिकार, नृत्य एवं गायन व्यवसाय, विविध धातुओं का व्यवसाय, पाषाण कला व्यवसाय, विविध शिल्प कार्यों के व्यवसाय, मूर्तिकारी एवं चित्रकारी, काष्ठकला, जहाज निर्माण, समुद्र से मोती निकालना आदि अनेक प्रकार के उद्योग धंधे एवं व्यवसाय गुप्तकालीन आर्थिक जीवन को समृंद्ध बना रहे थे।

गुप्तकाल में आभूषण निर्माण कला बहुत विकसित अवस्था में थी। बृहत्संहिता में चौबीस प्रकार के आभूषणों का उल्लेख मिलता है। गुप्तकाल में ’रत्नपरीक्षा’ विज्ञान का जन्म हुआ। जिससे जौहरी विविध रत्नों के परीक्षण में निपुण हो गये थे।

गुप्तकाल में व्यापार एवं वाणिज्य जल-थल दोनों मार्गो से होता था। गुप्तकाल में जहाज निर्माण उद्योग ने अभूतपूर्व प्रगति की थी। गुप्तकालीन व्यापार एवं वाणिज्य के विशेष क्षेत्र में समुद्री तटवर्ती पाँच ’वणिक या विपणि नगरों’ (डंतामज ज्वूदे) एवं बंदरगाहों का उल्लेख मालावार क्षेत्र से मिलता है। पूर्वी समुद्रतट पर ताम्रलिपि को गोद आदि बंदरगाहों से व्यापार होता था। विदेशी व्यापार चीन, लंका, कंबोडिया, जावा, वर्मा, सुमात्रा, बोर्नियों रोमन, साम्राज्य अरब एवं फारस आदि देशों के साथ होता था।

गुप्तकालीन व्यापार के बारे में प्रसिद्ध इतिहासविद् आनन्द कुमारस्वामी ने लिखा है कि, भारतवासियों ने पेगु, कंबोडिया, जावा, सुमात्रा, बोर्नियों आदि अनेक देशों में उपनिवेशों की स्थापना की थी तथा चीन, अरब और फोरस में व्यापारिक संस्थानों की स्थापना कर महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर लिया था। गुप्तकाल में सिंहल द्वीप बिचौलिए का कार्य करता था।

गुप्तकाल में केसर, चंदन, सुगंधित लकडियाँ, चंदन की मूर्तियाँ, कस्तूरी, हाथी दाँत की वस्तुऐं, विविध मसलों, सुगंधित द्रव्य, नारियल, नील, आयुर्वेदिक औषधियाँ, विविध प्रकार के वस्त्र, बहुमूल्य पत्थर आदि अनेक प्रकार की वस्तुओं का निर्यात किया जाता था। विदेशों से रेशम एवं रेशमी वस्त्र, हाथी दाँत, घोड़े, विविध प्रकार की शराब, टिन, शीशा, मूंगा, कांच सिंदूर, चाँदी के बर्तन, दास एवं दासियाँ आदि का आयात किया जाता था।

गुप्तकाल में श्रेणी
गुप्तकालीन अर्थव्यवस्था के आर्थिक प्रबंधन में व्यावसायिक संगठनों के ’रूप में श्रेणियों ’ की महत्वपूर्ण भूमिका थी। श्रेणियाँ एक ही व्यवसाय या विविध प्रकार के व्यवसाय करने वालों का व्यावसायिक या व्यापारिक संगठन होता था। प्राचीन साहित्य में व्यावसायिक संगठनों या व्यापारियों की संस्थाओं को कुल, पूग, निकाय, जाति, व्रात, संघ समुदय, समूह, संभूय-समुत्थान, परिषत्, वर्ग, गण, सार्थ, निगम, श्रेणी आदि कहा गया है।

गुप्तकाल में श्रेणियों  के अपने विशिष्ठ चिन्ह्न, मुद्रायें और ध्वज भी होते थे। वस्तुतः गुप्तकाल में श्रेणियों ने आर्थिक प्रबंधन में अभूतपूर्व योगदान प्रदान किया था। गुप्तकाल में श्रेणियाँ अपनी मुद्राएँ चलाती, बैंक के रुप में काम करती, ऋण देते एवं समाज में अन्य सभी आर्थिक गतिविधियों का संचालन करती थी। तक्षशिला, वाराणसी, सारनाथ, नालन्दा, कौशाम्बी, वैशाली आदि अनेक स्थानों से श्रेणियों की मुद्राएँ मिली हैं।

इससे स्पष्ट है कि श्रेणियों ने मुद्रा अर्थव्यवस्था के विकास में महत्वपूर्ण योगदान प्रदान किया था। प्रत्येक श्रेणि के पास अपनी अलग मुहर होती थी। वैशाली से एक संयुक्त श्रेणि की 274 मुद्राएँ मिली है। इन श्रेणियों के पास सामान्य जन अपनी बहुमूल्य वस्तुओं को निक्षेप के रुप में जमा करते थे, यहां तक कि स्वयं राजा और राजपुरुष भी अपनी संपत्ति  को धरोहर के रुप में रखने में संकोच नहीं करते थे।

गढ़वा अभिलेख में उल्लेखित हैं कि, गुप्त सम्राट चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने श्रेणियों के पास धर्म कार्य के लिए धन जमा करवाया था। राज्य ने श्रेणियों को आवश्यक कानूनी संरक्षण भी प्रदान किया हुआ था। श्रेणियों के साथ किसी भी धोखा-धड़ी पर कठोर दण्ड़ का प्रावधान राज्य ने किया था। याज्ञवल्क्य स्मृति एवं विष्णु पुराण में श्रेणियों के साथ बेईमानी करने वालों को कठोर दण्ड़ देने की व्यवस्था मिलती हैं।

श्रेणियों को वैधानिक एवं न्यायिक अधिकार प्राप्त थे, जिन्हें शासन से मान्यता प्राप्त थी। श्रेणी, सदस्यों के व्यवहार को न्यायाधिकरण के माध्यम से नियंत्रित करता था। गौतम ने भी श्रेणियों के आचार-विचार और रीति-रिवाजों पर उनके विधान का समर्थन किया हैं।

वृहस्पति एवं याज्ञवल्क्य ने भी श्रेणियों की सैन्य शक्ति का वर्णन किया हैं। मंदसौर अभिलेख में रेशम बुननेवाली श्रेणी के लोगों का धनुर्विद्या में पारंगत अच्छे योद्धा के रुप में वर्णन हैं। श्रेणियों ने समाज में अनेक जनकल्याणकारी कार्य करके अपने सामाजिक दायित्वों का निर्वहन भी किया। विश्रामगृह, पंथशाला, सभागृह आदि विभिन्न प्रकार के जन-कल्याणकारी कार्य श्रेणी संगठनों द्वारा देश के विभिन्न स्थानों पर संपन्न कराए जाते थे।

गुप्तकाल में मुद्रा
गुप्त साम्राज्य के समय ठोस मुद्रा प्रणाली स्थापित थी। इस विकसित मुद्रा प्रणाली ने आर्थिक प्रगति को आधारभूत पृष्ठभूमि प्रदान की थी। मुद्रा व्यवस्था को साम्राज्य में सुचारू रूप से संचालित होते रहने के लिए मुद्रा एवं टकसाल विभाग के साथ ही, सक्षम प्रशासनिक अधिकारियों की व्यवस्था रही होगी। गुप्त साम्राज्य में सोने, चाँदी एवं ताँबे की मुद्राएँ चलती थी।

गुप्त साम्राज्य की स्वर्ण मुद्रा ’दीनार’ कहलाती थी। भारतीय इतिहास में सर्वाधिक स्वर्ण मुद्राएँ गुप्त शासकों ने ही जारी करवायी। चाँदी की मुद्राओं को ’रूप्यरूप या रूपक’ कहा जाता था। गुप्त सम्राट चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने सर्वप्रथम शकों पर विजय के उपलक्ष्य में चाँदी की मुद्राएँ जारी करवायी थी। गुप्तकाल में सामान्य लेनदेन ’कौड़ियों’ में होता था। यह संभवतः मुद्रा की कोई छोटी ईकाई रही होगी।

शुंग कालीन संस्कृति 

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