श्री पाण्डे जी Ghanshyam Prasad Pandey का जन्म मऊरानीपुर झांसी में सम्वत् 1943 हुआ था और मृत्यु संवत 2010 में हुई । इन्हीं के पुत्र नरोत्तम पाण्डे ओरहा स्टेट में राजकवि चुने गये। ये काली के अनन्य उपासक थे तथा सदैव साधनालीन बने रहते थे। ये फड़बाजी में दलनायक के रूप में प्रख्यात थे। कहा जाता है कि श्रावण पूर्णिमा को कजली मेला के अवसर पर जब स्त्रियां तालाब में कजलियां सिरा रही थी तभी पाण्डे जी के कंठ से कविता का स्वर फूट निकला था –
पहिरे पट रंग विरंगन के अति, अंग अनंग जगावती है।
दृग में कजरा सिर पै कजरी मुखसों कजरी धुन गावती हैं।
घनश्याम तला पै झला झला, खड़ी खोंटे भुजान हिलावती है।
दुनिया को डुबोइवो हाथन सों, दुनियां को मानो दिख रावती हैं।
घनश्याम पाण्डे ने गांधी गौरव, हरदौल चरित जैसी प्रमुख रचनाएं लिखी हैं। भगवत भजन माला में इनकी फागें संग्रहीत हैं। अन्य फाग कवियों ने जहां नेत्रों को तलवार या पिस्तौल के रूप में उपमित किया है वहां फागकार पाण्डे ने उनमें भक्ति भावना का रूप भर दिया है। उनकी फाग की ये पंक्तियां देखी जा सकती हैं-
अखियां अब ना रई तरवारें, ना पिस्तौल प्रहारे ।
हरि-हरि कह हम जग नारिन को, माता रूप निहारे ।
नेह भरे जननी हरि नैंना, मोपे इमरन ढारे ।
निरखत आप दृगन को हम तो, नजर पगन पै डारे ।
कवि घनश्याम मोक्ष दाता हरि, मोरे जनम सुधारे।
पाण्डे जी की फागों में भक्ति और आध्यात्मिक का पुट है। उनकी दृष्टि श्रंगार की गलियों में नहीं भटकी है। भाषा की मृदुता और लालित्य ने उनकी फागों को ह्रदय हारी बना दिया है।