Bundelkhand Me Chedi Rajya बुंदेलखंड मे चेदि राज्य

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बुंदेलखंड मे आज तक जितने शिलालेख मिले हैं उनमें से अधिअकतर मे इस देश का नाम चेदि ही  लिखा है। Bundelkhand Me Chedi Rajya का प्रभाव काफी समय तक रहा । चेदि का राजवंश कलचुरि वंश के नाम से विख्यात है। कविवर चंद ने राजपूतों की 36 जातियॉँ लिखी हैं। उनमें से एक जाति का नाम कलचर भी है। संभव है कि कलचुरि कलचर का ही बदला हुआ रूप हो। कलचुरि संवत्‌ विक्रम संवत्‌ के ३०५ वर्ष बाद शुरू हुआ

Chedi kingdom in Bundelkhand

प्राचीन समय का बुंदेलखंड
प्राचीन समय में बुंदेलखंड के दक्षिण और पूर्व का प्रदेश यादववंशी राजाओं के अधिकार में था । इनकी राजधानी महिष्मती थी। यादव-वंशी प्रसिद्ध पराक्रमी राजा सहस्नार्जुन यहां राज्य करता था । यह वही सहस्नार्जुन है जिसने एक बार लंकाधिपति रावण को बॉध रखा था। सहस्नार्जुन की संतान आगे चलकर हैहय वंश के नाम से प्रसिद्ध हुए।

महाभारत के समय में हैहयों  का राज्य बहुत विस्तीणें हो गया था। उस समय महिष्मती में राजा नील राज्य करता था। यह नील कौरवों की ओर से युद्ध में लड़कर मारा गया | महाभारत काल का प्रसिद्ध राजा शिशुपाल भी हैहयवंशी था। वह चेदि देश का राजा था। जान पड़ता है यह चेदि नाम शिशुपाल के पितामह चिदि के नाम से हुआ है। चिदि का पुत्र दमघोष था। दमघोष के पीछे शिशुपाल सिंहासन पर बैठा जो अपने अयोग्य आचरण के कारण श्रीकृष्ण के हाथों मारा गया।

इन्हीं हैहयवंशी क्षत्रिय राजाओं ने नर्मदा के किनारे बसे डाहल मंडल, महाकौशल, कर्णाट आदि पर अपना अधिकार जमाया । इन देशों की राजधानी पहले त्रिपुर और तुमान रही । फिर मध्य प्रदेश के इन हैहयों की दो शाखाएँ हो गई। दूसरी शाखा ने नर्मदा के ही किनारे त्रिपुरा को अपनी राजधानी बनाया। यह शाखा इतिहास मे चेदि के कलचुरियों के नाम से प्रसिद्ध है।

कलचुरियों की यह शाखा कब बनी और ये लोग त्रिपुरी जाकर कब बस गए इसका कुछ निश्चित पता नहीं। परंतु तेवर मे जो सिक्के मिलते हैं वे कोई एक हजार वर्ष से अधिक पुराने हैं। तेवर जबलपुर से ६ मील दूर एक छोटा सा गाँव है। प्राचीन पौरंदरी समान त्रिपुरी थी। किंतु अब यहाँ के निवासी कलचुरियों का नाम भी नहीं जानते ।

आज तक जितने शिलालेख मिले हैं उनमें इस देश का नाम चेदि ही  लिखा है। चेदि का राजवंश कलचुरि वंश के नाम से विख्यात है। कविवर चंद ने राजपूतों की ३६ जातियॉँ लिखी हैं। उनमें से एक जाति का नाम कलचर भी है। संभव है कि कलचुरि कलचर का ही बदला हुआ रूप हो। कलचुरि संवत्‌ विक्रम संवत्‌ के 305 वर्ष बाद शुरू हुआ। लुइस राइस संगृहीत “मैसूर के शिलालेख” नाम की पुस्तक के 229 पृष्ठ में लिखा है कि कलचुरि राजा कृष्णराज ने कालिंजर पर अधिकार जमाकर कालिंजरपुरवराधीश्वर की उपाधि धारण की ।

राजा कृष्णराज कलिंजर के राजा को मार वहाँ का अधिकारी बन गया। पर कलचुरि राजवंश के राजाओं के शिलालेखों से इस राज्य का जमानेवाला महान राजा जान पड़ता है। चालुक्य-वंशी राजा मंगल ( मंगलीस ) के शिलालेख से दो कलचुरि राजाओं के बारे मे इतिहास मिलता है। यह शिलालेख वि० सं० 608 का जान पढ़ता है।

इस लेख में लिखा है कि चालुक्य राजा मंगल ने शंकरगण के पुत्र बुद्धराज को हरा दिया। यह बुद्धराज शंकरगण का पुत्र चेदिराज वंश का ही होना चाहिए।  चालुक्य राजाओं के दो  लेख और भी मिले हैं। इनमें कलचुरि राजाओं से चेदि देश छीनने के विषय मे है।

कलचुरि राजाओं की तगातार वंशावली कोकल्लदेव राजा के समय से मिलती है। इन राजाओं के नाम के शिलालेख बिलहरी और बनारस मे मिलते हैं। बनारस के लेख से ज्ञात होता है कि कोकल्लदेव ने नंदादेवी चंदेल कन्या से विवाह किया। बनारस तथा बिलहरी दोनों शिलालेखों  मे कन्नौज के राजा भोजदेव के साथ के युद्ध का वर्णन है। इस समय कन्नौज में भोजदेव राजा राज्य करता था।

भोजदेव का राज्य-काल लगभग विक्रम संवत्‌ 518  से 960 तक रहा होगा, क्‍योंकि भोजदेव का सब से पहला शिलालेख देवगढ़ के किले पर खुदा है और  उसमें विक्रम संवत्‌ 919 दिया है। भोजदेव के और भी लेख  ग्वालियर और  पहेवा में मिले हैं। बनारस के ताम्न-लेख में भोजदेव के पुत्र महेंद्रपाल देव का भी नाम आया है। इन लेखों से कोकल्लदेव का राज्य-काल और उसके समकालीन राजाओं के बारे मे ज्ञात होता है।

बिलहरी के लेख में एक युद्ध का वर्णन और भी है। वह युद्ध कोकल्लदेव ने दक्षिण के कृष्णराज से किया था। यह कृष्णराज राष्ट्रकूट वंश का था। इसने कोकल्लदेव की लड़की महादेवी के साथ ब्याह किया था । इन सब राजाओं के वर्णन से जान पड़ता है कि कोकल्लदेव का राज्य-काल विक्रम संवत्‌ 919 से 960 तक रहा होगा।

कोकल्लदेव के राज्य का विस्तार भी बनारस तक चला  गया होगा, क्योंकि इसका एक शिलालेख वहाँ भी मिला है। इस राजवंश का सबसे बड़ा प्रतापी राजा यही था। कोकल्लदेव के पुत्र का नाम मुग्घतुंग था। कोकल्लदेव के पश्चात्‌ यह राजगद्दी पर बैठा । इसका नाम भी बिलहरी के शिलालेख में है।

उसमें लिखा है… जब वह दिग्विजय (विश्व विजय) को निकला तब वह कौन सा देश है जिसको उसने नहीं जीता ? उसके मन में मलय (केरल ) का विचार आया, क्योंकि समुद्र की तरंगें वहीं अपनी कला दिखलाती  हैं, वही केरल की युवतियाँ क्रीड़ा करती हैं, वहीं सर्प चंदन के वृक्षों की सुगंध लूटते हैं।

इसके समय में इसके राज्य का कुछ भाग कृष्ण परमार के हाथ में चला गया। इस समय मालवा में परमार ज्ञोगों का राज्य था। कृष्णराज इसी परमार वंश का था। भिलसा जिले में मिले हुए एक लेख से ज्ञात होता है कि राजा कृष्ण के मंत्री कोंडिन्य वाचस्पति ने दो नगर चेदिराज से जीत लिए। परमारवंश का राजा कृष्ण मुग्घतुंग के समय में ही था ।

मुग्घतुंग के पश्चात्‌ उसका पुत्र बालहर्ष राजा हुआ, किंतु वह शीघ्र मर गया। उसके बाद उसका भाई केयूरवर्ष सिंहांसन पर बैठा। इसका वर्णन भी बिलहरी के लेख में है। इसकी रानी का नाम नोहला था। यह चालुक्य वंश की थी। इस रानी ने शिव का एक मंदिर बनवाया था और उसके खर्च के लिये सात गाँव दिए थे। इन गाँवों में से पोंडी नामक गाँव अभी तक इस मंदिर के लिये लगा हुआ है ।

केयूरवर्ष भी बड़ा दानी राजा था । इसने एक मठ के लिये तीन लाख गाँव लगा दिए। यह मठ गोलकी मठ कहलाता है। तेवर के निकट नर्मदा के किनारे एक मठ है। पुरातत्त्वविद इसी को गोलकी मठ कहते हैं। केयूरवर्ष का राज्य विक्रम संवत्‌ 980 से 1000 तक रहा होगा। केयूरवर्ष का दूसरा नाम युवराज लिखा है। इसकी लड़की कंदका देवी का विवाह राष्ट्रकूट राजा अमोघवर्ष के साथ हुआ था ।

युवराज के पश्चात्‌ लक्ष्मणदेव नाम का राजा सिंहासन पर  बैठा । बिलहरी के लेख से जान पड़ता है कि लक्षमण  केयूरवर्ष का पुत्र था और वह केयूरवर्ष के बाद ही राजगद्दी पर बैठा। लक्ष्मणदेव ने कौशल राज्य को जीत लिया और उडीसा राज्य पर आक्रमण करके वहाँ से कालिया नाग लाकर शिवजी के  मंदिर सोमनाथ ( सौराष्ट्र ) में चढा  दिया। नोहला रानी के बनवाए मंदिर के प्रबंध के लिये इसने हृदयशिव नाम के एक पुजारी को नियुक्त किया ।

बिलहरी के निकट  एक तालाब लक्ष्मण सागर नाम का है जे इसी राजा का बनवाया कहा जाता है। चालुक्य देश के एक लेख से माल्नूम दाता है कि वहाँ के राजा विक्रमादित्य ने चेदि देश के राजा लक्ष्मण की पुत्री से विवाह किया था। आस-पास के समकालीन राजाओं का विचार करके अनुमान किया जाता है कि लक्ष्मणदेव का राज्य-काल विक्रम संवत्1000  से 1025 तक  रहा होगा ।

बनारस और  बिलहरी के लेखें से ज्ञात होता है कि लक्मण के दो  पुत्र थे। इनमें बड़े का नाम शंकरगण और छोटे का युवराज था । बिलहरी का लेख युवराज के समय का ही है। इसमें युवराज के समय तक का ही इतिहास मिलता है। यह लेख विल हरी के नोहला रानी के मंदिर से मिला है और इसमें म॑दिर के पुजारियों के बारे मे  दिया है। यह लेख अब नागपुर के संग्रहालय मे है।

बनारस के लेख से जान पड़ता है कि लक्ष्मण के पश्चात्‌ युवराज राजा हुआ।  मिलसा के समीप उदयपुर नामक स्थान में मालवा के परमार राजा भोज का एक शिलालेख मिला है । मालवा में परमार राजाओं का राज्य था। भोज परमार इसी कृष्ण परमार के वंश का था। भोज परमार के काका का नाम वाकूपति था। भोज के पहले भोज का काका वाकूपति परमार ( मुंज ) मालवा में राज्य करता था।

उदयपुर के शिक्षालेख में लिखा है कि वाकूपति ने युवराज को हराकर त्रिपुर ले लिया। इससे जान पड़ता है कि वाकूपति और युवराज समकालीन थे। त्रिपुर परमारों के पास नहीं गया, परंतु युद्ध अवश्य हुआ। युवराज का राज्यकाल विक्रम संवत्‌ 1025 से 1050 तक रहा। मुंज संवत्‌ 1031 में राजगद्दी पर बैठा था, ऐसा उज्जै न के शिलालेख से पता लगता है युवराज के मरने पर उसका पुत्र कोकल्लदेव ( दूसरा ) गद्दी पर वैठा। कोकल्लदेव बड़ा पराक्रमी था । इसने अपने राज्य को बढ़ाया था।

कोकल्लदेव ( दूसरे ) के पश्चात्‌ उसका पुत्र गांगेय देव अपने पिता की राजगद्दी पर बैठा।  यह बड़ा प्रभावशाली राजा था । इसके नाम का एक ताम्रलेख जबलपुर के निकट कुन्हीं नामक स्थान मे मिला है। उस ताम्नलेख में गांगेयदेव के विषय मे यह लिखा है कि गांगेयदेव प्रयाग के निकट अक्षयवट के नीचे मरे और उनके पश्चात्‌ उनकी 150  रानियाँ सती हो गई । इस राजा का युद्ध कन्नौज के राठौर राजाओं से हुआ था।

कहा जाता है कि कन्नौज के राठौर राजाओं ने गांगेयंदेव को प्रयाग में वंदी बना दिया था और यहीं उनका देहांत हुआ। परंतु यह बात ठीक नहीं जान पड़ती। इसका कोई विश्वसनीय प्रमाण भी नहीं मिलता है। गांगेयदेव ने सोने, चाँदी और तॉबे के सिक्के चलाए थे जिन पर एक ओर दुर्गादेवी की मूर्ति और दूसरी ओर श्रीमान गांगेयदेव का नाम है। इससे परमार राजा भोज से युद्ध हुआ था जिसमें भोज की जीत हुई थी ।

गांगेय देव के पश्चात उसका बेटा कर्णदेव गद्दी पर बैठा। कर्णदेव अपने वाप से भी अधिक प्रतापी निकला | प्रसिद्ध पुरातत्वज्ञ काशीप्रसाद जायसवाल उसे भारतीय नेपोलियन कहते हैं। उसमे भारत के सभी राज्यों पर आक्रमण किया और उन्हें अपने अधिकार में कर लिया। पॉड्य, थोड़, पुरल, कीर, कुंग, बेग कलिंग, गुर्जर, हूता आदि सभी ने कर्ण के सामने अपना माथा नवाया।

रासमाला में लिखा है कि 136  राजा उसके चरणकमल की पूजा करते थे। कर्ण ने राज्य पाते ही दस बारह वर्ष के भीतर पूरे भारत में अपना राज्य कायम कर लिया था । वह राजा इतना प्रतापी हो  गया है कि कर्ण डहरिया अर्थात्‌ डाहल का कर्ण! के नाम से अब कहावतों में प्रसिद्ध है।

डाहल मंडक कर्ण का पैतृक देश था। इसके समय में त्रिपुरी समस्त भारतीय शक्ति का केंद्र बन गई थी और  कलचुरि वंश की कीर्ति सर्वोच्च शिखर पर पहुँच गई थी। इसके समय का एक ताम्रलेख बनारस में मिला है।

कर्ण देव के समय में मालवा में भोज  परमार और चालुक्य देश में भीम राज का राज्य था। कर्ण ने भोज परमार को हराया था झौर उसके राज्य पर चढ़ाई की थी। जबलपुर के ताम्रलेख से माना जाता है कि कर्णदेव ने आंध्र के राजा भीमेश्वर को हराया। भीमेश्वर चालुक्य देश का भीम राजा ही है। कुन्हीं के ताम्रलेख से ज्ञात होता है कि कर्णदेव ने कर्णावती नामक नगर बसाया था। यह कर्णावती आजकल का कारीतलाई रथान है या करनबेल, इसमें मतभेद है। कारीतलाई में कई मंदिर हैं और उसके स्थान को कर्णपुर कहते हैं।

यहाँ के मंदिर राजा कर्ण के बनवाए कहे जाते हैं। कर्ण का युद्ध चंदेलराज कीर्तिवर्मा से हुआ था। इस युद्ध में चंदेलराज कीर्तिवर्मा ने कर्णदेव को हरा दिया था। उसका उल्लेख कीर्तिवर्मा के समय में रचित प्रवोधचंद्रोदय नाटक में है। कार्लिजर के शिलालेख से यह ज्ञात होता है कि चंदेल राजा ने कर्णदेव को हराकर दक्षिण का प्रदेश जीता था।

मऊ के  एक लेख में इस कीर्तिवर्मा की विजय के बारे मे  लिखा कर्ण का कितना प्रदेश कीर्तिवर्मा ने ले लिया था यह निश्चय रूप से नही  कह सकते ।  कर्णदेव का राज्य काल  विक्रम संवत्‌ 1100 से 1125 तक रहा होगा। ऐसा भी पता लगता है कि इसने गुजरात के चालुक्य राजा भीम की सहायता से धार के परमार राजा भोज के साथ युद्ध किया था और उसकी मृत्यु के पश्चात्‌ इन दोनों ने दुबारा घार नगरी पर आक्रमण किया था ।

इस समय भोज का उत्तराधिकारी जयसिंह था। वह  इस युद्ध में सारा गया। पीछे से संधि हो  गई। इसका विवाह चेदि राजवंश में हुआ था। कर्णदेव के पश्चात उसका पुत्र यश:कर्ण राजा हुआ। इसके समय से कलचुरी वंश खत्म होने लगा । इसके नाम का कोई लेख चेदि देश में नहीं मिलता । पर इसका नाम राठौर वंश के एक ताम्रपत्र मे आया है। इसमे लिखा है कि यशःकर्ण ने रुद्रशिव को एक ग्राम दिया था।

यह गॉव रुद्रशिव ने कन्नौज के राजा गोविंद चंद्र के सामने एक दूसरे व्यक्ति को दे दिया था। इससे इसके राज्यकाल का पता लगता है। अनुमान से इसका राज-काल विक्रम संवत्‌ 1125 से 1150 तक जान पड़ता है। इससे और परमार राजा उदयादित्य के ज्येष्ठ पुत्र लक्ष्मणदेव से युद्ध हुआ था। इसके छोटे भाई का नाम नरवर्म्मा था।

यशःकर्ण का पुत्र गयाकर्ण था जो यशःकर्ण के बाद  राजगद्दी पर बैठा । इसके राज-काल मे इसका पुत्र नरसिंहदेव युवराज था। जबलपुर के ताम्नलेख में इसका नाम आया है। गयाकर्ण का विवाह मालवा के राजा उदयादित्य की नातिन अलहन देवी से हुआ था। इसकी माता का नाम श्यामला देवी था। यह मेवाड़ के गुहिल राजा विजयसिंह की कन्या थी |

गयाकर्ण के पश्चात्‌ उसका बेटा नरसिंहदेव गद्दी पर बैठा। इसके राज्यकाल मे इसका छेटा भाई जयसिंहदेव राज्य का बहुत सा कार्य किया करता था। कुन्हीं के ताम्नपत्र मे जयसिंह देव के अभिषेक का वर्णन है जिससे जान पड़ता है कि नरसिंहदेव के पश्चात्‌ उसका भाई जयसिंहदेव गद्दी पर बैठा था।

जयसिंह का पुत्र विजयसिंह था जो जयसिंह के बाद राजा हुआ। इसकी पत्नी का नाम गोशलदेवी था, जैसा कि एक शिलालेख से जान पड़ता है। इसका एक शिलालेख चेदि संवत 932 वका मिला है। इसके बेटे का नाम अजयसिंह था, यह भी शिलालेखों मे आया है । चेदि संवत्‌ 932 ( विक्रम संवत्‌ 1238 ) के पश्चात्‌ कोई लेख इन राजाओं के नहीं मिलते ।

मालवा के राजाओं के आक्रमण चेदि देश पर बहुत पहले से ही भरारंभ हो गए थे। उत्तर भे भी चंदेलों की शक्ति बढ़ गई थी और खजुराहो तथा कालिंजर पर इनका अधिकार हो गया था। अंत  में इन लोगों ने कलचुरि राजवंश का नाश करके अपना आाधिपत्य सारे बुंदेलखंड पर जमा लिया। पूर्व में बघेले आगे बढ़े और  उन्होंने चेदि देश का शेष भाग अपने अधिकार मे का लिया। अब केवल हैहयवंशी राजपूत रह गए हैं जिनके वंशज जबलपुर और  नरसिंहपुर जिले मे पाए जाते हैं।

किस प्रकार चेदि देश का भाग धीरे-धीरे चंदेलों के हाथ मे आया , परंतु यहाँ पर इतना कह देना आवश्यक है कि कलचुरियों का राज्य दमोह के पश्चिम और कालिंजर के उत्तर को नहीं बढ़ा। सागर जिले में कलचुरियों का राज्य नहीं रहा। यह पहले मालवा प्रांत का भाग समझा जाता था। धार के परमार राजाओं के अधिकार में सागर बहुत दिनों तक रहा। राहतगढ़ धार के राजाओं के समय में एक मुख्य स्थान था। धार के राज्य में यह विक्रम संवत्‌ की चौदहवीं शताब्दी तक रहा

संदर्भ – आधार 
बुन्देलखण्ड का संक्षिप्त इतिहास – गोरेलाल तिवारी

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