Bundelkhand Me Chandelo Ka Rajya बुंदेलखंड मे चंदेलों का राज्य परमाल के समय

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Bundelkhand Me Chandelo Ka Rajya धसान नदी के पूर्व में और विंध्याचल पर्वत के उत्तर और पश्चिम में था । उत्तर में वह यमुना नदी तक और दक्षिण में केन नदी के उद्गम स्थान तक फ़ैला हुआ था। महोबा तथा खजुराहो इसके पश्चिम में और कालिंजर तथा अजयगढ़ इसके पूर्व में हैं।

बुंदेलखंड मे च॑देलों का राज्य परमाल के समय तक
Harshvardhan हर्षवर्धन के साम्राज्य के नष्ट होने के पश्चात्‌ बुंदेलखंड के उत्तरीय भाग में ब्राम्हण  राजवंश का राज्य बहुत दिनों तक रहा | इस राजवंश का पूरा वर्णन कहीं नहीं मिलता। बहुत दिनो के पश्चात्‌, जब कि चेदि देश मे कोकल्लदेव
( पहले ) का राज्य था, उत्तर बुंदेलखंड में चंदेलों का राज्य और मालवा मे परमारों का राज्य पाया जाता है। इस समय में नरबर ( ग्वालियर ) में कछवाहा राजपूत लोग और कन्नौज मे भो जदेव और  फिर उसके वंशजें का राज्य था।

चंदेलों के पहले बुंदेलखंड में पढ़िहार/परिहार लोगों का राज्य था। ये लोग  गुर्जर लोगों की एक शाखा थे और परमार लोग, जो मालवा में राज्य करते थे, गुर्जर लोगों की दूसरी शाखा के थे।जो देश चंदेल लोगों के अधिकार मे रहा वह धसान नदी के पूर्व में और विंध्याचल पर्वत के उत्तर और पश्चिम में था। उत्तर में वह यमुना नदी तक और दक्षिण में केन नदी के उद्गम स्थान तक फ़ैला हुआ था।

केन नदी इस देश के बीच में से बहती है और  महोबा तथा खजुराहो इसके पश्चिम में और कालिंजर तथा अजयगढ़ इसके पूर्व में हैं। इस प्रदेश में आज-कल के बाँदा और हमीरपुर जिले तथा चरखारी, छतरपुर, बिजावर, जैतपुर, अजयगढ़ और  पन्ना की रियासते हैं । चंदेल राजाओं ने अपनी उन्नति के दिनों में इस प्रांत की सीमा पश्चिम मे बेतवा नदी तक बढ़ा ली थी।

कहा जाता है कि चंदेल लोगों का वंश चंद्रमा से चला है। चंद्रमा ने काशी के गहरवार राजा के पुरोहित की कन्या हेमवती से एक पुत्र उत्पन्न किया जिसने महोबा मे अपना राज्य जमाया । इस चंद्रमा के पुत्र का नाम चंद्रवर्मा था। इस कथा की सत्यता जॉचने के लिये काई ऐतिहासिक साधन नही है। केवल राजा धंगदेव का एक शिलालेख मिला है। इस लेख में चंदेल वंश का चलाने वाला नन्नुक नाम का एक पुरुष बताया गया है।

कुछ कथानकों से चंदेल वंश के आदिपुरुष चंद्रात्रेय का भी उल्लेख आता है। चंदेलों के प्रांत का नाम जयशक्ति (जेजा) के नाम पर से जेजाभुक्ति या जेजाकभुक्ति पड़ा था । कुछ लोगों का यह भी कथन है कि वैदिक काल मे यजुर्वेदीय कर्मकांड का पहले पहल यहीं अभ्युदय होने के कारण यह प्रदेश यजुर्होति कहलाया जिससे बिगड़कर जाजशुक्ति बना।

पूर्व में इसे जुझौतिया जुझौती भी कहते थे। जेजा (जयशक्ति) वाकपति का ज्येष्ट पुत्र है। इसके छोटे भाई का नाम विजयशक्ति था। शिलालेखों मे चंदेल राजा नानुकदेव के पहले के राजाओं का कोई वर्णन नहीं मिलता।

नन्नुक, वाकपति और विजयशक्ति इन तीन राजाओं के समय का कोई विवरण नहीं मिलता, केवल नाम ही नाम मिलते हैं । नन्नुक के विषय में लिखा है कि इसने पड़िहारों को मऊ के युद्ध मे परास्त किया था, जिससे कुछ तो दशार्ण ( घसान ) नदी के पश्चिम की ओर चले गए और कुछ दक्षिण की ओर आए। जो लोग दक्षिण की ओर आए उन लोगों ने प्राचीन तेली राजा को परास्त कर अपना राज्य जमाया और उचेहरा राजधानी नियत की । इसी युद्ध से चंदेलों के राज्य की नींव पड़ी ।

विजय के बाद इस वंश मे राहिल नामक राजा हुआ। इसने रोहिला नाम का एक गाँव बसाया और वहाँ एक सुंदर मंदिर बनवाया ।  मंदिर ते टूट-फ़ूट गया है पर गॉव महोबा से दो  मील की दूरी पर अब तक बसा हुआ है |

हर्ष, राहिल का लड़का और उत्तराधिकारी था। इसके विषय में इतना पता लगता है कि इसने कन्नौज के तत्कालीन राजा क्षितिपाल (महिपाल) पर चढ़ाई की थी । पर जब उसने अधीनता स्वीकार कर ली तब यह वहाँ से वापस चला आया । इसके दे रानियाँ थीं, एक का नाम कनेशुका और दूसरी का कच्छपा था। इसके लड़के का नाम यशोवर्म्म देव था। यही हर्ष के पश्चात्‌ राजा हुआ ।

यशोवर्म्मदेव के दो विवाह हुए थे। इसकी एक रानी का नाम नर्म्मदेवी और दूसरी का नाम पुष्पा था। यह बड़ी द्वी सुलक्षणा और धर्मनिष्ठ थी। इसके पातिव्रत की ख्याति दूर दूर तक फैल गई थी । खजुराहो के शिलालेख में यशोवर्म्मदेव के राज्य का वर्णन इस प्रकार लिखा है कि इसने अपने बाहुबल से गौड़, खस, कौशल, काश्मीर, कन्नौज, मालवा, चेदि, कुरु, गुर्जर आदि देशों को जीत कालिंजर के कलचुरियों को परास्त किया और उनसे कालिंजर ले लिया। यह कन्नौज के राजा को परासत कर उसके यहाँ से विष्णु की प्रतिमा ले आया ।

यशोवर्म्मदेव के पश्चात्‌ उसका लड़का धंगदेव राजगद्दी पर बैठा। इसने शिवजी का एक बड़ा मंदिर बनवाया था। ऐसा कहते हैं कि यह 100  वर्ष तक जीता रहा और अंत समय मे इसने प्रयागराज में त्रिवेणी संगम पर प्राण छोड़े थे। खजुराहो के शिलालेख में इसकी इस मृत्यु का वृत्तांत है। यह लेख वि० सं० 1056 का है। इससे जान पढ़ता है कि यह इसी वर्ष परलोक सिधारा होगा।

एक ताम्रलेख भी इसी साल का इसके हाथ का मिला है। इससे यह सिद्ध होता है कि यह 1055 में जीवित था। चंदेलवंश का यह बड़ा प्रतापी राजा था। इसने आस-पास के प्रदेशों के राजाओं का जीतकर अपने अधिकार में कर लिया। इतना ही नहीं, वरन्‌ इसकी ख्याति दूर दूर तक फैल गई थी।

इसी से जब गजनी के मुसलमान बादशाह सुबुक्तगीन ने भटिंडा के राजा जयपाल पर चढ़ाई की तब उसने भारत के अनेक क्षत्रिय राजाओं का अपनी सहायता के लिये बुलवाया था। उस समय धंगदेव भी अपनी विशाल सेना लेकर सहायता के लिये पहुँचा था ।

खजुराहे के चर्भुभुज के मंदिर में एक और भी शिलालेख इसके समय का मिला है। यह वि०सं० 1011 में उत्कीर्ण हुआ था । इसमें चंदेल राजाओं की वंशावली नन्नुकदेव से दी हुई है। राजा धंगदेव के  समय चंदेलों के राज्य का विस्तार बहुत बढ़ गया था। इसकी उत्तरीय सीमा यमुना तक पहुँच गई थी। पूर्व में काशी, पश्चिम में बेतवा और दक्षिण सीमा केन नदी के उद्गम के पास थी ।

इस तरह से यह प्रदेश 120  मील  लम्बा और १०० मील चौड़ा हो गया था । यह राजा बढ़ा ही दानी, प्रतापी, विवेकी, कला-कौशल मे निपुण और बुद्धिमान था। इसने कई मंदिर बनवाए थे। उनमें से एक शिवमंदिर अब भी मौजूद है ।

गंडदेव, धंगदेव का पुत्र और उत्तराधिकारी था। यह अपने पिता के मरने पर गद्दी पर वैठा। यह भी अपने पिता के समान पराक्रमी था। इसने कन्नौज पर इसलिये चढ़ाई की थी कि कन्नौज के राजा ने महमूद गजनवी की अघीनता स्वीकार कर ली थी। इसकी चढ़ाई वि० सं० 1077 में हुई थी । इस वार वह कन्नौज पर अधिकार कर वापस चला गया था। इस समय कन्नौज में राठौर वंशी राजा महेंद्रपाल राज्य करता था।

गंडदेव चंदेल ने कन्नौज पर चढ़ाई करके राजा महेंद्रपाल को अपने अधीन कर लिया। यह खबर सुनते ही महमूद गजनवी ने विक्रम संवत्‌ 1078 में  दुवारा चढ़ाई की,  इस बार  वह सीधा कालिंजर की ओर आया इस समय चंदेल राजा गंडदेव ने बढ़ी वीरता से उसका सामना किया । यह 36000  पैदल, 45000 घुड सवार और 640 हाथियों का हलका लेकर गननवी का आक्रमण रोकने के लिये आया था। इसके विरोध के कारण महमूद गजनवी आगे न बढ़ सका और  उसे लौट जाना पढ़ा।

कन्नौज की चढ़ाई और महसूद गजनवी का युद्ध चंदेल राज्य की शक्ति का परिचय देते हैं। इसने कन्नौज के तत्कालीन राजा महेंद्रपाल के पुत्र जयपाल पर चढ़ाई करने के लिये अपने पुत्र विद्याधर को भेजा था। इसके समय में कलचुरि राजा युवराज  माहत  के पुत्र और जयदेव के भाई कोकल्लदेव दूसरे ने चढ़ाई की थी।

खजुराहो मे विश्वनाथ के संदिर मे एक शिला लेख मिला है । यह लेख गंडदेव के राज-काल का है। इसमें मंदिर के निर्माण कर्ता धंगदेव का नाम और वि० सं० 1046 लिखा है। इसमें यह भी लिखा है कि गंडदेव गद्दी पर बैठा, जिससे यह निर्विवाद रूप से पाया जाता है कि धंगदेव के पश्चात्‌ ही वि० सं० 1056 में गंडदेव गद्दी पर बैठा था ।

गंडदेव के पश्चात्‌ विद्याधरदेव राजा हुआ। इससे और कन्नौज के तत्कालीन राजा त्रिलोचनपाल से बहुत दिनों तक युद्ध होता रहा। राजा भोजदेव भी समय समय पर इसकी प्रशंसा किया करता था । विद्याधर के पश्चात्‌ विजयपाल राजा हुआ। पर इसके विषय में कोई उल्लेखनीय जानकारी नहीं मिलती ।

विजयपाल का पुत्र देववर्म्मा था जे अपने पिता के पश्चात्‌ राजगद्दी पर बैठा। ननयौरा मे विक्रम संवत्‌ 1107  का एक ताम्रलेख मिला है । इसमें देवबर्म्मा का विरुद कालिजराधिपति लिखा है। इसमें इसकी माँ का नाम भुवनादेवी लिखा है। जिननाथ देव के एक जैन मंदिर मे जो देववर्ग्मा के प्रपितामह के समय में बना था देववर्म्मा के समय में एक शिलालेख लगाया गया था। इस लेख में देववर्म्मा और उसके पूर्वजों के नाम लिखे हैं। यह मंदिर खजुराहो में है ।

देववर्म्मा के पश्चात्‌ उसका भाई कीति वर्मा राजा हुआ। कौर्ति वर्मा का राज्य बहुत दिनों तक रहा । उसका एक लेख देव गढ़ मे विक्रम संवत्‌ ११४५४ का है। महोबा के पास का कीरत-सागर नामक तात्ाब इसी का बनवाया हुआ है। इसके नाम के सोने के सिक्‍के भी मिलते हैं जिन पर इसका नाम श्रीमत्‌ कीर्तिवर्म्म- देव लिखा है। देवगढ़# में इसका शिक्षालेख मित्नने से ज्ञात दोता है कि इसका राज्य देवगढ़ तक पहुँच गया था भार ललितपुर प्रौर सागर इसके राज्य में था।

ये जिले चंदेल राज्य में कब आए, इसका ठीक हाल नहीं माल्रम होता। कीतिवर्ग्मा का समकालीन मालवा का राजा भोज परमार था | इसके समय में गुजरात में भोमदेव और कन्नौज मे राठौर लोगों का राज्य था। चेदि देश में इस समय कलचुरि राजा कर्णदेव राज्य करता था। कलचुरि राजा कर्णदेव को कीत्तिवर्म्मा ने हरा दिया था | इस विजय से कीर्तिवर्म्मा को इतना आनंद हुआ कि उसने विजय के ऊपर एक नाठक प्रबोधचंद्रोदय नाम का बनवाया। यह नाटक वेदांत से भरा हुआ है, परंतु इसमे कर्ण की हार और कीतिवर्म्मा की जीत बताई गई है।

देवगढ़ ललितपुर के निकट बेतवा के किनारे है। यहाँ पर एक मंदिर के स्तंभ पर संवत्‌ 919  का लिखा राजा भोज के नाम का शिलालेख है। यह राजा भोज कन्नौज का राजा था। इससे जान पड़ता है कि संवत्‌ 919  मे देवगढ़ कन्नौज के राजाओं के अधिकार मे था। सागर और ललितपुर भो इस समय में कन्नौज के राज्य के भीतर रहे होंगे। यहाँ पर दूसरा लेख एक शिला  पर मिला है। यह लेख विक्रम संवत्‌ 1154  का लिखा कीर्तिवर्म्मा चंदेल के समय का है।

इस लेख  का लिखने वाला वत्सराज कीर्तिवर्म्मा का मंत्री था।  वत्सराज का नाम यहाँ पर महीधर लिखा है, पर॑तु मऊ के लेख में उसका नाम अनंत लिखा है। अनुमान किया जाता है कि उसका नाम  अनंत और विरुद महीधर था। खजुराहो मे लक्ष्मीनाथ के मंदिर का एक लेख, जिसमे विक्रम संवत्‌ 1161दिया है, कीर्तिवर्म्मा के ही समय का है। सागर और दमोह कीर्तिवम्मा के राज्य मे कन्नौज के राज्य से ही आए होंगे ।

कीर्तिवर्म्मा के समय का एक लेख महोबा में मिला  है। यह पीर मोहम्मद की दरगाह की दीवार में लगे हुए एक पत्थर पर था। अ्ब यह पत्थर इलाहाबाद के संग्रहालय मे है। इस लेख में चंदेल राजाओं की वंशावली धंगदेव से कीर्तिवर्म्मा तक दी हुई है । इसमें चेदि देश के कलचुरी राजा गांगेयदेव का नाम भी आया है।

इस लेख मे देश का नाम जेजाभुक्ति नहीं लिखा, बल्कि ऐसा लिखा है कि जिस प्रकार प्रथु से पृथ्वी कहलाती है उसी प्रकार जेजा से जेजाभुक्ति कहाई। जेजाभुक्ति नाम राजा प्रथ्वीराज चौहान ने अपने मदनपुर वाले वि० सं 1239 के शिलालेख में भी लिखवाया है। कीर्तिवर्म्मा का एक शिलालेख अजयगढ़ में भी मिला है। इसकी राजधानी खजुराहो मे थी।

कीर्तिवर्म्मा के पश्चात्‌ उसका लड़का हलक्षण राज्यगद्दी पर बैठा। हलक्षण को कहीं कहीं पर सलक्षण भी कहा है। इसके नाम के सोने और तॉबे के सिक्‍के मिले हैं जिन पर इसका नाम हलक्षण लिखा है। इसने अंतर्वेद मे एक बड़ा युद्ध किया था और उसमे विजय पाई थी। इस युद्ध का पूरा विवरण नहीं मिलता ।

जयवर्म्मदेव हलक्षण के पश्चात्‌ राजगद्दी पर बैठा । इसके नाम के तॉबे के सिक्के मिल्ले है। ये सिक्‍के इंगलेंड के संग्राहालतय में रखे हैं। जयवर्म्मदेव ने खजुराहो मे धंगदेव के बनवाए शिवमंदिर मे जे शिलालेख था उसे सुधरवाया। धंगदेव के समय का शिलालेख कीर्णाक्षरों मे था। इस लेख को जयवर्म्मा ने अपने मंत्री के द्वारा अच्छे अक्षरों में लिखवाया । जयवर्म्मा का मंत्री गौड़ कायस्थ था।

मंत्री की असीम विद्वत्ता का भी  वर्णन इस शिलालेख मे मिलता है। यह लेख विक्रम संबत्‌ 1173 का है। इससे और कन्नौज के पड़िहार राजा भीमपाल के बेटे शुक्रपाल से युद्ध हुआ था। इस युद्ध में शुक्रपाल की जीत हुई थी। अजयगढ़ के शिक्षालेख से ऐसा भी पता लगता है कि इससे और चेदि राजा यशकर्णदेव तथा ‘मालवाधिपति लक्ष्मणदेव से भी युद्ध हुआ, पर इनमे जीत जयवर्म्मा की ही हुई थी।

जयवर्म्मा के पश्चात्‌ उसका छोटा भाई हलक्षण दूसरा राजा हुआ। इसने लगभग दो वर्ष ही राज्य किया। इसके राज्य मे कोई उल्लेख योग्य घटना नहीं हुई । हलक्षण दूसरे के पश्चात पृथ्वीवर्म्मदेव राजा हुआ । इसके समय के कुछ तॉबे के सिक्के भी मिले हैं। इसने कन्नौज के परिहार राजाओं से मैत्री कर ली थी। इसके पश्चात्‌ मदनवर्म्मा राजा हुआ ।

मदनवर्म्मा का राज्य बहुत दिनों तक रहा। इसके समय के बहुत से शिलालेख मिले हैं। सबसे पहला लेख बि० सं० 1186 का है और सबसे बाद का वि० सं० 1220 का है। महोबा के निकट जो  सुंदर तालाव मदनसागर नाम का है वह इसी का बनवाया हुआ है। तालाब के किनारे दो  मंदिर भी इसी ने बनवाए थे जो अब तक मैजूद हैं ।

 इसी के समय में चंदेल राज्य अपनी उन्नति के शिखर पर फिर से पहुँचा था। इसने गुर्जर प्रांत के राजा को भी हरा दिया था। यह इसके समय के लेखों से ज्ञात होता है। मदनवर्स्मा के बसाए हुए नगर का नाम मदनपुर है, जे सागर जिले मे है।

मदनवर्म्मा का एक शिलालेख कालिंजर में मिला है। कालिंजर बहुत प्राचीन नगर है। पांडवों ने भी इसे देखा था । उस समय यह एक तीर्थस्थान समझता जाता था। पद्मपुराण मे भी इसका नाम आया है। कालिंजर की पहाड़ी का प्राचीन नाम कालंजराद्रि है जो शिव ( काल ) के नाम से पड़ा है। कहा जाता है कि कालिंजर का किला चंदेलों के पूर्व॑ज चंद्रवस्ता का बनवाया हुआ है। मैसूर के वि० सं० 1107 के शिलालेख से भी, जो हरिहर मे मिला है, यही जान पड़ता है कि कलचुरि राजाओं ने कालिंजर का अपने अधिकार  मे कर लिया था।

महमूद गजनवी जब गंडदेव से लड़ने आया तब उसरे कालिंजर के किले को देखा और उसकी बड़ी प्रशसा की। कालिंजर में जो शिलालेख हैं वे अधिकतर मदनवर्म्मा और परमर्दिदेव के राज्य के समय के हैं। मदनवर्म्मा का पहला लेख कालिंजर के नीलकंठ के मंदिर के बाहर की एक शिला पर मिला है। यह लेख विक्रम संवत्‌ 1186 का है। मदनवर्म्मा के समय मे’ कालिंजर एक प्रधान नगर रहा होगा। परंतु राजधानी बहुत करके खजुराहो में ही रही होगी, जैसा कि मदनवर्म्मा के पूर्वजों के समय में था।

इसके समीप नृसिंह के मंदिर के निकट भी एक शिलालेख है। इसके सिवाय कई लेख  नीलकंठ के मंदिर के निकट मिले हैं। महोबा के नेमीनाथ के मंदिर मे भी मदनवर्म्मा के नाम का विक्रम- संवत्‌ 1211 का एक लेख है। खजुराहो के जैनमंदिर में विक्रम- संवत्‌ 1215  का एक लेख मदनवर्म्मा के नाम का है।

मदनवर्म्मा के पश्चात्‌ कीर्तिवर्म्मा नाम का एक राजा हुआ। उसके पश्चात्‌ परमर्दिदेव था परमाल नाम का एक राजा हुआ। कीर्तिवर्म्मा का राज्य शायद एक वर्ष भी नहीं रह पाया और परमाल का राज्य आरंभ हो गया। इसके समय के शिलालेख मदनपुर, अजयगढ़, खजुराहो और महोबा में मिलते हैं। काल्लिंजर के नीलकंठ के मंदिर मे भी परमदिदेव के नाम का एक शिलालेख है ।

ओरछा – अंग्रेजों से संधि 

संदर्भ -आधार 
बुन्देलखण्ड का संक्षिप्त इतिहास – गोरेलाल तिवारी

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