Harshvardhan Ka Rajya Aur Kachhvahe हर्षवर्धन का राज्य और कछवाहे  

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यशोवर्धन के राज्य के पश्चात्‌ पंजाब के राजाओं की  शक्ति बढ़ने लगी थी । यहाँ का पहला राजा शिलादित्य था । इसके पश्चात्‌ हर्षवर्धन हुआ। इसकी राजधानी थानेश्वर थी । Harshvardhan Ka Rajya Aur Kachhvahe भी कहीं-कही राजा थे। सारा बुंदेलखंड हर्षवर्धन के राज्य में थापश्चिमी बुंदेलखंड पर कछवाहों का अधिकार था।

The kingdom of Harshvardhan and the Kachhwahes

यशोवर्धन के राज्य के पश्चात्‌ पंजाब के राजाओं की  शक्ति बढ़ने लगी थी । यहाँ का पहला राजा शिलादित्य था । इसके पश्चात्‌ हर्षवर्धन हुआ। इसकी राजधानी थानेश्वर थी । प्रभाकर वर्धन का युद्ध मालवा के शासक से हुआ परंतु प्रभाकर वर्धन हार गया। इसके पश्चात्‌ इसका लड़का राज्यवर्धन थानेश्वर की गद्दी पर बैठा। राज्यवर्धन ने फिर भी मालवा के राजा से युद्ध किया परन्तु इसे बंगाल के राजा नरेंद्रगुप्त ने हरा दिया। पीछे से इसे राजा ने विश्वासघात से मार  भी डाला।

राज्यवर्धन के पश्चात्‌ इसका भाई हर्षवर्धन गद्दी पर बैठा। इसे शिलादित्य भी कहते थे। हर्षवर्धन जेठ बदि १२ रविवार वि० सं० ६४७ मे उषाकाल् के समय पैदा हुआ था पर १६ वर्ष की अवस्था में वि० सें० ६६३ मे राज- गद्दी पर बैठा। हर्षबर्धन ने मालवा अपने अधिकार मे कर लिया। हिंदुस्तान का सारा उत्तरीय भाग भी उसके अधिकार में हो गया था। वह बड़ा प्रतापी राजा था। उसके पास बहुत बढ़ी शिक्षित सेना थी। उसने सारा राज्य अपने बाहुबल से ही बढ़ाया था।

हर्षबर्धन की बहिन का नाम राज्यश्नी था। यह कन्नौज के मौखरी राजा गृहवर्म्मा को व्याही गई थी। जब मालवा के राजा देवगुप्त ने कन्नौज पर चढ़ाई करके गृहवर्म्मा को युद्ध मे परास्त कर उसे मार डाला तब राज्यवर्धन ने इसका बदला लेने के लिये मालवा पर चढ़ाई की थी। चढ़ाई मे हर्षवर्धन की विजय हुई, पर राज्यश्री हर्षवर्धन के आने के पूर्व ही वहाँ से चली गई थी ।

पता लगाने पर हर्षवर्धन को एक जंगल में मिली थी। ग्रहवर्मां को कोई संतान तो थी नहीं,  इससे हर्षवर्धन थानेश्वर और कन्नौज दोनों का राजा हो गया और उसने कन्नौज मे अपनी राजधानी बनाई।हर्षवर्धन ने गद्दी पर बैठने पर अपने नाम का संवत्‌ भी चलाया था। उसके नाम का एक ताम्रपत्र भी मिला है। उसमें हृषंवर्धन की वंशावली दी है। हृषवर्धन के पिता तो शैव थे पर उन्होने बैद्धधर्म की दीक्षा ली थी। उसने जीव-हिंसा करना छोड़ दिया था।

वह न तो मांस खाता था, न औरों को खाने देता था। यदि कोई खाता तो  उसे प्राणदंड की सजा दी जाती थी। वह अपने राज्य का प्रबंध स्वत: दौरा करके करता था । उसके राज्य में बेगार नहीं ली जाती थी । जो आदमी राजा के काम में लगाए जाते थे उन्हें पूरा पूरा पैसा मिलता था ।  शिक्षा की ओर भी उसका पूरा ध्यान था।

वह अच्छा कवि और नाटक कार भी था। बौद्ध नाटिका प्रियदर्शिका, नागानंद और रत्नावली नाटिका उसी के बनाए हुए कहे जाते हैं। संभव है कि रत्नावली  की रचना में बाण ने कुछ सहायता दी हो। बाण इसी के दरबार का कबि था। इसके प्रसिद्ध ग्रंथ कादंबरी और हर्षचरित्र हैं। हर्ष ने लोगों के उपकार के लिये शहर और बाहर भी धर्मशालायें बनाई थीं और इनमें एक एक वैद्य भी रहता था। ये वैद्य वीमारों  को बिनामूल्य औषधि देते थे। सारा बुंदेलखंड हर्षवर्धन के राज्य में था। यह विक्रम सं० ७०३ में मरा ।

चीनी यात्री हुएनशियांग हर्षवर्धन के समय में ही भारत- भ्रमण करने के लिये आया था। इसने अपनी यात्रा के वर्णन में जुझौति ( बुंदेलखंड ) महेश्वरपुरा और उज्जैन में ब्राह्मण राजाओ का राज्य बताया है। इस समय जुझौति की राजधानी कहाँ थी, इसका तो पता नही  लगा पर लोगों का ऐसा अनुमान है कि एरन ही राजधानी रही होगी, क्योंकि यह प्राचीन राजधानी थी। यहां पर बौद्धधर्म-चक्रांकित कई सिक्के और गुप्तकालीन शिलालेख भी मिलते हैं।

इसी समय में पड़िहार भो बढ़े थे। ये कन्नौज के महाराजा हर्षवर्धन के मांडलिक थे। जान पड़ता है कि पढ़िहारों का राज्य दक्षिणी बुंदेलखंड में था। दमोह जिले के दक्षिण भाग मे सिंगारगढ़ का किला पड़िहारों का बनवाया हुआ है। पड़िहार लोग राजपूत थे। इनकी राजधानी पहले मऊ मे थी पर पीछे से उच्छकल्प ( उचेहरा ) में हुईं। यहाँ के राजाओं के पास प्राचीन वंशावली नहीं है। इससे उचेहरा राजधानी का समय निश्चित करना असंभव है |

हर्षवर्धन के कोई संतान न थी। उसकी मृत्यु के पश्चात्‌ सारे साम्राज्य मे अराजकता सी फैल गई। इस समय में धार के राज्य की शक्ति बहुत बढ़ी। बुंदेलखंड के पश्चिमी भाग पर भी धार के राजा का अधिकार हो गया था। परंतु किस भाग तक धार के राज्य का अधिकार हो गया था यह कहना कठिन है। इस वंश के प्रथम राजा का नाम उपपेंद्र था। पर कोई इसे कृष्ण और कोई भोज भी कहते हैं । इसका राज्य काल  वि० सं० ८७५ से ८८२ के बीच में माना जाता है।

धार के प्रसिद्ध राजा का नाम भोज था। ऐतपुर के शिलालेख से मालूम होता है कि यह राजा भोज गुहादित्य का पुत्र था।  इसी राजा भोज के वंश में नवीं पीढ़ी में वह राजा भोज हुआ है जिसके लिखे हुए कई ग्रंथ प्रचलित हैं। धार के राजा भोज प्रथम के पुत्रों के बारे मे जानकारी नही मिलती । धार का राज्य कब तक बुंदेलखंड मे रहा इसका कहना कठिन है।

विक्रम संवत्‌ के आरंभ से लगभग 950 वर्षों के पश्चात्‌ तक कछवाहों के राज्य की जानकारी नही मिलती। वास्तव मे यह राजवंश बहुत पुराना है । कछवाहे लोग अपनी उत्पत्ति महाराज रामचंद्र के पुत्र कुश से बतलाते हैं। इसी वंश के सूरजसेन नामक राजा का राज्य कुंतलपुरी ( कुटवार ) नामक ग्राम के आस-पास था।

इस राजा ने संवत्‌ ३३२ में ग्वालियर का किला बनवाया। सूरजसेन कोढ़ी था। इसका कोढ़ ग्वालियर के  निकट एक सिद्ध ने अच्छा कर दिया था। इसी सिद्ध के कहने से सूरजसेन ने ग्वालियर का किला बनवाया और  इसी सिद्ध के आदेशानुसार अपना नाम सूरजपाल रख लिया। फिर सूरजपाल के वंशजों ने भी अपने नाम के आगे पाल  शब्द लगाया। तेजकर्ण के कुछ वर्षों पश्चात्‌ बज्रदामा नामक राजा के विषय मे पता चलता है। इसने कन्नौज के पढ़िहार राजा से ग्वालियर छीन लिया और  उस पर अपना अधिकार कर लिया। किंतु यह राजा तत्कालीन चंदेल राजा के अधीन रहा होगा ।

अल्वबरूनी का यह कहना कि उस समय चंदेल राज्य मे ग्वालियर और कालिंजर दो मुख्य गढ़ थे । बज्रदामा के पिता का नाम लक्ष्मण था। इस समय कछवाहा राजवंश की दो  शाखाएँ थीं। एक शाखा का राज्य जयपुर की ओर  था और दूसरी शांखा यह थी जिसका राज्य नरवर के आस-पास था।

बज्रदामा का पिता लक्ष्मण जैन था परंतु बज्रदामा वैष्णव था। बज्रदामा के राज्यकाल का आरंभ अनु मान से विक्रम संवत्‌ १००७ या १०३४ से होता है। बज्रदामा के पश्चात्‌ मंगलराज श्रौर मंगलराज के पश्चात्‌ कीर्तिराज का राज्य हुआ | कीर्तिराज के राज्य काल  का आरंभ विक्रम संवत्‌ १०४७ के लगभग होगा। कीर्तिराज बड़ा प्रतापी राजा था।

इसने मालवा के राजा को परास्त करके उस देश पर अपना अधिकार जमा लिया । पश्चिमी बुंदेलखंड पर भी कछवाहों का अधिकार था । कीर्तिराज के समय में महमूद गजनवी ने ग्वालियर पर चढ़ाई की थी । कीर्तिराज ने उसकी अधीनता स्वीकार करके अपने राज्य की रक्षा की थी । कीर्ति राज के पश्चात्‌ भुवनपाल राजा हुआ। इसे कोई कोई त्रिलोकपाल और   भुवनपाल भी कहते हैं।

भुवनपाल बढ़ा दानी भौर धनुर्विद्या-विशारद था। भुवनपाल के पश्चात्‌ देवपाल उपनाम अपराजित और देवपाल के पश्चात्‌ उसका पुत्र पद्मपाल राजा हुआ। पद्मपाल बड़ा घार्मिक और भक्त राजा था । पद्मपाल के पश्चात उसका भतीजा महिपाल राजा हुआ। महिपाल बढ़ा दानी राजा था। शिलालेखें से जान पड़ता है कि महिपाल ने जैन और वैष्णव मंदिरों को बहुत सा दान दिया था।

वह संवत्‌ 1150 मे जीवित था। ग्वालियर के सास-बहू मंदिर में इसके सास का संबत्‌ ११५० का एक शिलाशेख है। इनकुंड के जैन मंदिर मे भी कछवाहों के शिक्षालेख मिलते हैं। ग्वालियर का सास-बहू का मंदिर वैष्यव मदिर है। इससे जान पड़ता है कि इस राजा के समय से कछवाहे वैष्णव हो गए थे । महिपाल के पश्चात्‌ त्रिभुवनपाल (उपनाम मनोरथ) राजा हुआ। मनोरथ मथुरा में रहना पसंद करता था और कायस्थों को बहुत चाहता था।

ग्वालियर गजट में इस मनोरथ को मधुसूदन लिखा है। इसने संवत्‌ ११६१ में ग्वालियर में महादेव का एक मंदिर बनवाया था। मनोरथ के पश्चात्‌ उसका पुत्र विजयपाल सिंहासन पर बैठा। इसके राज-काल  का संवत्‌ ११८० है। विजयपाल के पश्चात सूरपाल और उसके पश्चात्‌ अनंगपाल का नाम मिलता है।

इसका उत्तराघिकारी सोलेखपाल था, जिसे संवत्‌ 1253 में शहाबुद्दीन ने ग्वालियर के किले में घेर लिया था किंतु ग्वालियर गज़ेटियर में लिखा है कि संवत्‌ 1186 में पड़िहारों ने यह किला कछवाहों से छीन लिया था। इससे प्रकट होता है कि सोलेखपाल पडिहार होगा ।

अंत में कुतुबुद्दीन ने इस किले पर अपना अधिकार कर लिया ।  किंतु यह किला पुनः पढ़िहारों के हाथ में आ गया और फिर अल्तमश के अधिकार में चला गया। कछवाहों की एक शाखा इनकुंड में बहुत दिनों तक राज्य करती रही। इनके दो शिलालेख मिलते हैं, जिनमें युवराज अभिमन्यु , विजयपाल, विक्रमसिंह राजाओं  का उल्लेख है।

ओरछा -अंग्रेजों से संधि 

संदर्भ-आधार
बुन्देलखण्ड का संक्षिप्त इतिहास – गोरेलाल तिवारी

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