Bundelkhand Me Chandelo Ka Rajya बुन्देलखंड मे चंदेलों का राज्य परमाल के बाद

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काव्य में अतिशयोक्ति बहुत ज़्यादा है। आल्हा के पराक्रम का खूब वर्णन किया गया है। Bundelkhand Me Chandelo Ka Rajya काफी समय तक रहा ऐसा  माना जाता है  कि  बुंन्देलखण्ड मे आल्हा के समय मे चदेल राजाओं के  आठ किलों के नाम दिए हैं। जो बारीगढ़ ( महोबा के पास ), कालिंजर, अजयगढ़, मनियागढ़, मड़फा, मैदहा, काल्‍पी और गढ़ जबलपुर के पास हैं ।

परमाल ( परमार्दिदेव ) के समय में आल्हा का युद्ध और पृथ्वीराज

चौहान का आक्रमण हुआ था। आल्हा के युद्ध का विस्तृत वर्णन आल्हा महाकाव्य में है। परमाल उस ग्रंथ में महोबे का राजा कहा गया है। खजुराहो का वर्णन इस ग्रंथ में नहीं आया । जान पड़ता है कि परमाल के समय में महोबे मे ही राजधानी थी। यह महोबे का राजा थे और महाराजा घिराज कहलाता थे।

बुन्देलखंड मे चंदेलों का राज्य  परमाल  के पश्चात
The Kingdom of Chandelas in Bundelkhand after Parmal

ऐतिहासिक घटनाओं से पूरे होने के कारण यहाँ पर आल्हा की प्रसिद्ध लडाई का सारांश देना ठीक जान पड़ता है। यह सारांश आल्हा काव्य से किया गया है। महोबे के राजा परमाल के यहां आल्हा नाम का एक योद्धा था। आल्हा बनाफर जाति के दक्षराज का पुत्र था। कहां जाता है कि आल्हा ने वाल्यावस्था मे पृथ्वीराज चौहान और अन्य राजाओं को सुल्तान महमूद के विरुद्ध सहायता देकर अपने पराक्रम का परिचय दिया था।

इस समय मे बंगाल प्रदेश मे सोलंकी राजपूत वंश का मानजू नाम का राजा राज्य करता था और  मिथिला देश के जनकपुर नामक स्थान मे ब्रह्मादेव नाम के पढ़िहार/परिहार राजा का राज्य था ।जब मानजू ने ब्रह्मादेव पर चढ़ाई की तब आल्हा ने ब्रम्हादेव को सहायता दी और  उसे हारने से बचाकर उसका मान  रख लिया।

आल्हा की पत्नी का नाम माछ्लादेवी, पुत्र का नाम ईंदल, भाई का नाम ऊदल और  मॉ का नाम देवलदेवी था। परमाल के साले का नाम माहिल था जो  राजा परमाल का मंत्री था। परमाल के राज- कवि का नाम जगनायक था।

माहिलदेव का किसी कारण से परमाल राजा से वैमनस्य हो गया, परंतु माहिलदेव आल्हा के कारण परमाल का कुछ न बिगाड़ सकता था। आल्हा सदा परमाल की सहायता के लिये तैयार रहता था। माहिलदेव चाहता था कि किसी कारण से आल्हा राजसभा से निकाल दिया जाय जिसमे वह फिर परमाल की सहायता न कर सके।

इसकी युक्ति माहिल ने ढूँढ़ निकाली और एक समय, जब आल्हा का लड़का ईंदल परमाल राजा के घोड़े पर बैठ गया तब, माहिल ने तुरंत इस बात की शिकायत परमाल राजा से करके आल्हा, ऊदल और ईंदल को राज्य से निकलवा दिया ।

उस समय के कन्नौज के राजा का नाम जयचंद्र था। जयचंद्र के सब सूबेदार जयचंद्र से नाराज हो गए थे और अपने प्रांत का कर जयचंद्र के पास नियमानुसार न भेजते थे। आल्हा और ऊंदल जब जयचंद्र के पास पहुँचे तब जयचढ्र ने उन्हें अपने सूबेदारों को अधिकार मे करने के लिये भेजा। आल्हा और ऊदल वीर थे ही।

इन्होंने जयचंद्र के सूबेदारों का तुरंत हराकर उन्हे जयचंद्र के अधिकार में कर दिया। अब वे लोग जयचंद्र को नियमित कर देने लगे । जयचंद्र इस पर बहुत प्रसन्न हो गया और  उसने कन्नौज के समीप रायकोट नामक स्थान आल्हा और ऊदल को रहने के लिये दिया।

माहिलदेव ने आल्हा और ऊदल को राज्य से निकलवा कर चंदेलों के राज्य को नष्ट करने का प्रयत्न किया। उसने चंदेलों की सेना किसी बहाने से दक्षिण मे भेज दी और  दिल्ली के राजा पृथ्वीराज चौहान को परमाल के देश पर आक्रमण करने के लिये निमंत्रित किया |

पृथ्वीराज चौहान का सिरसागढ पर आक्रमण
Prithviraj Chauhan’s attack on Sirsagarh
पृथ्वीराज चौहान इस समय साँभर में था। जब उसे मालूम हुआ कि महोबे की सेना दक्षिण भेज दी गई है तब उसने चंदेल राज्य पर आक्रमण किया । वह पहले सिरसा ( या सिरसा गढ़ ) को रवाना हुआ । यह झांसी के उत्तर मे पहूज नदी के किनारे है। उस समय सिरसागढ के आसपास का प्रांत चंदेलों के राज्य मे था और चंदेल राजाओं की तरफ से उस प्रांत पर एक शासक नियुक्त रहता था। इस समय के शासक का नाम मलखान था। यह मलखान आल्हा की मैसी का लड़का था ।

जब मलखान ने देखा कि पृथ्वीराज चौहान अपनी बड़ी सेना लेकर राज्य पर चढ़ आया  तब उसने परमाल राजा को सहायता के लिये लिखा । परंतु माहिलदेव ने परमाल राजा से कहा कि सहायता की कोई आवश्यकता नहीं है। मलखान को अपने प्रांत का बचाव अपनी सेना के द्वारा स्वयं करना चाहिए।

मलखान को यह उत्तर पाकर बहुत आश्चय और खेद हुआ, परंतु वह हिम्मत नही हारा, अपनी सेना को एकत्र कर वह पृथ्वीराज चैहान की बड़ी सेना का सामना करने की तैयारी करने लगा ।  उसने अपने एक सरदार पूरन जाट को ग्वालियर के निकट की घाटी के पास पृथ्वीराज चौहान को रोकने के लिये भेज दिया और वह स्वयं अपनी सेना को लेकर पृथ्वीराज के आक्रमण की बाट देखने लगा ।

पृथ्वीराज चौहान के पास बड़े बड़े वीर सेनापति थे । ये सेनापति पृथ्वीराज के संबंधी ही थे। पृथ्वीराज अपनी सेना को लेकर सिरसागढ़ पर गया। साँभर से सिरसागढ़ तक पहुँचने में उसे १२ दिन लगे थे । सिरसागढ़ पर उसने मलखान की सेना पर तीन बार आक्रमण किए। तीनों बार मलखान ने उसे हरा दिया। अंतिम बार के युद्ध में पृथ्वीराज का सेनापति डिंभाराय मारा गया।

इसके पश्चात्‌ फिर एक बड़ा युद्ध हुआ । इस युद्ध के समय मलखान ने ही पृथ्वीराज की फौज पर धावा किया। लडाई रात तक होती रही और जब दो प्रहर रात रह गई थी तब मलखान वीरता से लड़ता हुआ मारा गया। मलखान के मरने पर मलखान को पत्नी सती हो गई। पृथ्वीराज ने फिर मलखान के भाई अलखान को उस प्रांत का शासक बना दिया। इस प्रकार सिरसागढ़ का इलाका पृथ्वीराज के अधिकार मे आ गया |

सिरसागढ परविजय के बाद पृथ्वीराज चौहान का महोबा के लिये प्रस्थान इसके पश्चात पृथ्वीराज महोबा की ओर चला । उस समय महोबा मे परमाल की सेना न थी। सारी’ सेना जबलपुर के पास मसराही नामक स्थान मे बेतवा के किनारे थी।  पृथ्वीराज चौहान महोबा के पास आकर ठहरा और माहिलदेव ने परमाल राजा को खबर दी कि पृथ्वीराज परमाल से पारस और दिव्य अश्व  हिरनागर चाहता है।

परमाल ने अपने बचाव का प्रयल्न किया। उसने अपने दोनों लड़के ब्रम्हजीत और  रणजीत को कालिंजर के किले मे भेज दिया। वह अपनी पत्नी के साथ मनियादेवी की शरण में चला  गया और आल्हा को सहायता के लिये बुलवाया। इस काम के लिये राजकवि जगनिक / जगनायक भाट हिरनागर अश्व पर कन्नौज भेजा गया। माहिलदेव ने इन सब बातों का पता पृथ्वीराज को दे दिया।

पृथ्वीराज हिरनागर अश्व को लेना चाहता था और उसने जगनिक/जगनायक से घोड़ा जबरदस्ती ले लेने के लिये सेना भेजी। जगनायक उस समय कालपी जा रहा था और वह बसवारी नामक स्थान पर, जो ‘महोबे के उत्तर में’ है, रोक लिया गया। परंतु हिरनागर रोकने वालों को बचाके जगनायक को कोरहठ तक ले गया । जगनायक वहाँ कोरहट के राजा का अतिथि होकर ठहरा। राजा ने जगनायक के घोड़े की जीन ले ली  जिससे जगनायक को बहुत बुरा लगा  ।

फिर जगनायक कन्नौज पहुँचा और वहाँ पर आल्हा और ऊदल ने उसका सत्कारपूर्वक स्वागत किया। जगनायक भाट ने आल्हा और ऊदल को परमाल और  परमाल की रानी का सँदेशा सुनाया। आल्हा पहले सहायता देने को राजी न हुआ, क्योंकि परमाल ने उसे बिना कारण देश-निकाला दे दिया था और जयचंद्र की नौकरी के कारण आल्हा सहायता करने नही जा सकता था।

परंतु फिर जगनिक ने उसे जोश दिलाया। जगनिक ने कहा कि आल्हा के पिता दक्षराज का बनवाया शहिल्य ताल पृथ्वीराज ने फोड़ दिया है और पृथ्वीराज आल्हा के अखाड़े में कसरत करता है। यह हाल सुनने पर आल्हा को बड़ा क्रोध आया। आल्हा की मां ने भी आल्हा को लड़ने के लिये उत्साहित किया। तब आल्हा ने पृथ्वीराज से लड़ाई करने का निश्चय कर लिया और वह कन्नौज के राजा जयचंद्र से अनुमति माँगने गया।

जयचंद्र ने पहले अनुमति न दी पर इससे आल्हा को क्रोध आया और उसने जयचंद्र के सामने बिना जयचंद्र की आज्ञा के चले  जाने का निश्चय कर लिया । इस पर जयचंद्र राजी है गया और उसने आल्हा को सहायता के लिये अपनी कुछ सेनों भी दी। आल्हा की सेना के नायकों में से जयचंद्र के भतीजे रानालाखन और राना गुलाब भी थे। नखर का रावराजा भी एक सेनानायक था। कुल ३२ सेनानायक आल्हा की सेना मे जयचंद्र की ओर से थे ।

जगनायक भाट ने मार्ग में कोरहट के राजा का दुर्व्यवहार आल्हा को सुनाया। आल्हा ने उस राजा को हराकर उससे जीन छुड़ा ली और वह राजा भी आल्हा की सेना के साथ हो  गया। आल्हा ने मार्ग में संघा नाम के एक परमार राजा को हराकर उसे भी अपने साथ कर लिया ।

इसी बीच मे पृथ्वीराज और परमाल राजा में सुलह हो गई थी। परंतु जब पृथ्वीराज की सेना ने आल्हा के आने का हाल सुना तब धाँधूराय नाम का पृथ्वीराज का एक सेनापति अपनी , सेना लेकर बेतवा के किनारे आकर अड़ गया। आल्हा की सेना ने कालपी के समीप यमुना को पार किया और गारागढ़ और हमीरपुर ले जिया। फिर वे सब कानाखेरा घाट के पास कारण ठहर गए।

धाँधूराय अपनी सेना को लेकर दूसरी ओर ठहरा था। जब आल्हा की फौज नदी का पानी कम होने के लिये ठहरी थी उसी समय धॉधूराय अचानक नदी पार करके लाखन राना को सेना पर आ टूटा लाखन राना की फौज घबरा गई और  भाग गई। लाखन अकेला रह गया, परंतु वह भी घेर लिया गया।

बाकी सब सेना भी भागने लगी , परंतु आल्हा की मा देवलदेवी ने इन सबको भागने से रोका और लडने को उत्साहित किया। आल्हा और मीर तालन वापस आ गए। मीर तालन एक मुसलमान था परंतु बह आल्हा का बड़ा मित्र था। आल्हा और मीर तालन इन दोनों ने धाँधूराय को भगा दिया। फिर सब सेना को महोबा आ जाना पड़ा। यहाँ पर पृथ्वीराज और  परमाल के बीच संधि होने से युद्ध बंद हो गया।

यह संधि केवल एक वर्ष के लिये ही हुई थी । पृथ्वीराज दिल्ली चला गया और संधि के  पश्चात् युद्ध करने के लिये उरई के निकट का मैदान नियत कर लिया गया । नियत समय पर उरई के मैदान में सेनाएँ इकठ्ठी हुई । बेतवा के समीप मोहानी नामक गाँव के पास परमाल की सेना एकत्र हुईं। परमाल ने जब दोनों ओर की सजी हुई सेना देखी तब वह घबरा गया और आल्हा से कहने लगा कि मुझे क़ालिंजर ले चलो।

आल्हा ने बहुत कहा, किंतु परमाल ने नही  सुना।  अंत में आल्हा परमाल को लेकर कालिंजर गया। आल्हा कालिंजर से लौटकर आ नही  पाया था कि लड़ाई होने लगी और आल्हा के आने के पहले ही परमाल की सारी सेना हारकर भाग गई ।

कहा जाता है कि इस पर आल्हा को बड़ा क्रोध आया और उसने पृथ्वीराज की सारी सेना काट डालने के  लिये तलवार खींची, पर मैहर की देवी शारदा ने आल्हा का हाथ पकड़ लिया और  देवी के कहने से पृथ्वीराज ने आल्हा को मना लिया । तब से आल्हा का पता नहीं है। आल्हा को मना लेने की बात विश्वास करने योग्य नहीं जान पड़ती ।

काव्य में अतिशयोक्ति बहुत है। आल्हा के पराक्रम का खूब वर्णन किया गया है। संभव है कि आल्हा की मृत्यु इसी युद्ध में हुई हो  आल्हा के समय के चदेल राजाओं के  आठ किलों के नाम दिए हैं। बारीगढ़ ( महोबा के पास ), कालिंजर, अजयगढ़, मनियागढ़, मड़फा, मैदहा, काल्‍पी और गढ़ (जबलपुर के पास )

वि० सं० 1238 में हुये इस युद्ध मे परमर्दिदेव की हार हुई और धसान के पश्चिम का भाग राजा पृथ्वीराज चौहान के अधिकार मे चला  गया। वि० सं० 1260 मे कुतबुद्दीन ऐेबक की चढ़ाई चंदेल राज्य पर हुई। इसने चंदेल राजा परमर्दिदेव को कालिंजर के किले मे आ घेरा। वह किला छोड़ने पर राजी हो गया, पर मंत्री ने ऐसा करने से मना किया।

जब वह न माना तब परमदिदेव के मंत्री ने ही उसे मार डाला। इसके पश्चात्‌ किला कुतबुद्दीन ने ले लिया, पर पीछे से मुसलमानों ने मंत्री के भी मरवा डाला और मंदिरों को गिरवाकर उनके स्थान पर मसजिदे बनवाई ।  ऐसा जान पड़ता है कि किले को शीघ्र ही चंदेलों ने फिर से अपने अधिकार में कर लिया, क्योंकि त्रिलोकवर्म्मन के राज-काल में यह चंदेलों के ही पास था।

त्रिलोकवर्म्म का राज्य
Kingdom of Trilokavarma
परमर्दिदेव के मरने पर उसका पुत्र त्रिलोकवर्म्म राजा हुआ। इसके नाम का एक शिलालेख वि० सं० 1267 का अजयगढ़ में मिला है और दो ताम्रपत्र ( छतरपुर के पूर्व 12  मील, गूढ़ा ग्राम में ) संवत्‌ 1261 के मिले हैं। इस समय त्रिलोकवर्म्म चंदेल और  मुसत्लमानों के बीच युद्ध हुआ था। वि० सं० १२७० में दिल्ली के बादशाह शमसुद्दीन अल्तमस ने बुंदेलखंड पर चढ़ाई की थी।

इस समय मुसलमानों का सेनापति लसीरुद्दीन तायसो था। मुसलमानों ने खज़ाना लूटने के लिये कालिंजर पर चढ़ाई की थी । यहाँ से ये लगभग सवा करोड़ मुद्राएँ लूटकर ले गए। इस युद्ध में चंदेलों को बड़ी हानि पहुँची पर पीछे से त्रिलोकवर्म्म ने इसकी पूर्ति कर ली। कालिंजर के पूवे 40 मील पर ककरेड़ी नाम का ग्राम है।

यहाँ वि० सं० 1232 , 1252 और 1246 के शिलालेख मिले हैं। यहाँ के राजा ने प्रथम दोनों शिलालेखों में तो कलचुरियों का आधिपत्य माना है, पर संवत्‌ 1296के शिलालेख मे इसने चंदेलों का प्रभुत्व स्वीकार किया है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि त्रलोक्यवर्म्म ने कलचुरि वंश के अंतिम राजा विजयसिह को परास्त कर नर्मदा नदी का उत्तरीय भाग अपने राज्य में मिला लिया हो ।

वीरबर्म्म देव का राज्य
Kingdom of Veerabarma Deva
त्रलोक्यवर्म्म के पुत्र का नाम वीरबर्म्म देव  (पहला) था। यही अपने पिता के पश्चात्‌ गद्दी पर बैठा। इससे और नलपुरा के राजा गोविंद, मधुबनी के राजा गोपाल तथा गोपगिरि (ग्वालियर) के  राजा हरिदेव से युद्ध हुआ था। इस युद्ध में सेना पति मलपुरा-निवासी कश्यपगोत्री बल्लभद्र तिवारी थे। वीरवर्म्म देव की राजमहिषि को कल्यानीदेवी कहते थे। यह नलपुरा के राजा गोविंददेव की कन्या थी। इसके मंत्री का नाम गणपत था |

भोजवर्म्म देव का राज्य
Kingdom of Bhojavarma Deva
वीरवर्म्मदेव के पश्चात्‌ उसका पुत्र भोजवर्म्मदेव राजा हुआ । इसके समय के शिलालेख भी अजयगढ़ मे मिले है। ये शिलालेख नाना नामक मंत्री के लिखवाए हुए है। यह जाति का कायस्थ था। शिलालेखों से ऐसा भी जान पड़ता है कि इसके पूर्वज परमाल के समय से चंदेलों के मंत्री रहे  थे। शिलालेख मे नाना की बड़ी प्रशंशा लिखी है। इसका गोत्र कश्यप था । नाना मंत्री से भोजवर्म्मदेव का बहुत सहायता मिलती थी । इसके कारण ही भोजवर्म्मदेव वैरियों के दाँत खट्टे कर सका, और कालिंजर चंदेलों के हाथ मे रह सका।

वीरवर्मा ( वीरनृप ) का राज्य
Kingdom of Veeravarma (Veer Nrup)
भोजवर्म्मदेव के पश्चात्‌ वीरवर्मा ( वीरनृप ) राजा हुआ । उसके पश्चात्‌ शशांक भूप गद्दी पर बैठा। इनके नाम शिलालेखों  मे आए हैं। फिर भिलावादेव का नाम अजयगढ़ के  समीप के एक लेख मे मिला है। भिलावादेव के पश्चात्‌ परमार्दिदेव ( द्वितीय ) का नाम संवत्‌ 1466 के लेख मे मिला है। परमर्दिदेव ( द्वितीय ) के लगभग एक सो वर्ष बाद कीरतसिंह का राज्य- काल  आरंभ हुआ।

कीरतसिंह के समय तक चंदेल राज्य कालिंजर के आस-पास ही रह गया था। जेनरल ए० कनिधम मे अपनी आर्कियोलोजिक सरवे आफ इंडिया नाम की पुस्तक मे तथा जरनल ए० सो० बंगाल भाग १ पृष्ठ ४२ सन्‌ 1881 में लिखा है कि चंदेलवंश का अंतिम राजा कीर्तिसिंह था। यह शेरशाह की साथ लड़ा था और उसके एक सैनिक के हाथ से मारा गया था । दुर्गावती इसी की कन्या है जो  गढमंडल के राजा दलपतिशाह को ब्याही गई थी।

सरस्वती जून सन्‌ 1910 तथा ओड़छा/ओरछा  स्टेट गजेटियर में लिखा है कि जिस समय शेरशाह ने कालिंजर पर चढ़ाई की थी उस समय यहाँ पर बुंदेलों का राज्य था और भारतीचंद ओड़छे/ओरछा  के राजा ने इसका सामना करने के लिये अपने भाई मधुकरशाह को भेजा था, पर कुछ लाभ न हुआ | किला मुसलमानों के हाथ चला  ही गया ।

रानी दुर्गावती भी इसी राजा कीर्ति सिंह की लड़की बतलाई जाती है। परंतु अबुलफजल ने अपने अकबरनामे में लिखा है कि रानी दुर्गावती राठ के चंदेल  राजा शालवाहन की कन्या थी ( राठ आजकल हमीरपुर जिले में है) । जे० ए० सो० बं० के भाग 40  पृष्ठ 233  में चंदबरदाई के रायसे के आधार पर लिखा है कि राजा कीर्तिसिंह ने गढ़मंडल के गोंड़ राजा का मनियागढ़ के जंगल में शिकार के समय पीछा किया था।

पीछे से इन दोनो में युद्ध छिड़ गया। राजा कीर्तिसिंह हार गया और  कैद हो गया। इन सब लेखों से ऐसा प्रतीत होता है कि दुर्गावती के विषय में अबुलफजल ने जो कुछ लिखा है वह सत्य है, क्योंकि ये दोनों समकालीन हैं और चंदबरदाई लगभग तीन सौ वर्ष पूर्व हुआ है । चंदेलों के अध:पतन के पहलें से ही दक्षिण में गौंड़ लोगों का पूर्व में बधेलों का और बुंदेलखंड में बुंदेलों का राज्य बढ़ने लगा था।

संदर्भ-आधार
बुन्देलखण्ड का संक्षिप्त इतिहास – गोरेलाल तिवारी

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