Bundelkhand Ki Savni बुन्देलखण्ड की सावनी और इतिहास

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By admin

बुन्देलखण्ड की लोक परंपरा सावनी एक ऐसी परंपरा है जहां स्नेह – प्रेम रिश्ते और रिश्तेदारों का अगाथ संबंध Bundelkhand Ki Savni का एक परिचय है । बुंदेलखंड में कन्या पक्ष हमेशा वर पक्ष को कुछ ना कुछ भेंट देता है लेकिन सावनी के अवसर पर वर पक्ष कन्या पक्ष को भेंट लेकर जाता है ताकि है हमारे संबंध मधुर बने रहे और प्रगाढ़ होते रहे। 

नोनो -मीठो हो बतकारो कबहुं ना हो तकरार।
हंसी-खुशी के सुखद मिलन को है साउन त्योहार ।।

सावन माह के नाम से ही सावनी का अभिप्राय स्पष्ट हो जाता है। रिमझिम बारिश, चारों ओर हरियाली की मनोहर छटा, राखी का त्योहार सावन के झूले, झूला गीत, मल्हार, राछरे गायन, कोयल की कूक आदि के मधुर और कर्णप्रिय स्वर आनंदित कर देने वाले होते हैं। हर्ष, उल्लास, रिश्तों के तानों बानों से बुना अनोखे संसार का अद्भभुत नज़ारा देखते ही बनता है। वर पक्ष का वधूपक्ष के यहां सज संवर के राखी मिष्ठान, फल, खेल-खिलौना, वस्त्र, यथाशक्ति जेवर लेकर जाने आने के योजना सिलसिले बार, घर-घर में बनने लगती है।

बुन्देलखण्ड में किसी नव वधू के विवाह का पहला सावन उत्सव के रूप में उसके पीहर / मायके में ही मनाने की प्रथा जग जाहिर है। नववधू अपने मायके एक सप्ताह या पन्द्रह दिन पूर्व ही अपने मायके पहुंच जाती है, रक्षाबंधन के एक- दो दिन पहले उसकी ससुराल से आये वर पक्ष के मेहमान वधूपक्ष के यहां पहले सावन में रक्षाबंधन की सावनी लेकर पहुंचते हैं।

ससुराल से आई राखी ही नव विवाहिता अपने भाई,कुटुम्ब,परिवार व माता पिता को बांधती है। सावनी में राखी डोरा, फल, खेल खिलौना लड्डू ,खरपुरीयन से भरी मटकिया जिसमें नक्काशी व चित्रकला के बेल, बूटों में चटक रंगों की चमक देखते बनती है। रंग-बिरंगी पुतरा- पुतरियां, रंग-बिरंगी चपेटा, गाड़ियां गुल्ला, चकरी- भोंरा अलगोजा/बांसुरी, छड़ी/डण्डा, खास तौर पर समधिन के लिए चिक बब्बा आकर्षक व हास्य विनोद का पर्याय होता ही है ।

उक्त वर पक्ष सेआई सावनी की सामग्री जिसे वधू पक्ष की ओर से तख्त या चबूतरा / चारपाई पर चादर बिछाकर सजाकर मुहल्ले गांव वालों व रिश्तेदारों को दिखाया जाता है। कि वर पक्ष सावनी में क्या क्या लायें है, वर पक्ष की यथाशक्ति आवभगत खान-पान व आई हुई सामग्री का मूल्यांकन कर उनकी विदाई वधू पक्ष व अन्य शुभचिंतकों द्वारा ससम्मान की जाती है।

आज से लगभग 850 वर्ष पूर्व सबसे पहले यह सावनी लेकर जाने की शुरुआत महोबा के राजा परमाल ने अपने पुत्र ब्रह्मदेव की ससुराल यानी अपनी पुत्रवधू बेला के यहां भेजकर की थी जबकि विवाह में ब्रह्मदेव का गौना नहीं हुआ था। फिर भी उनकी ये सकारात्मक सोच क़ाबिल-ए-तारीफ थी।

बाद में मालवा के मल्हारराव होल्कर ने, अपने पुत्र खणडेराव होल्कर की ससुराल में सावनी भेजी इस आशय के साथ कि वधु पक्ष अपने को छोटा और हीन न समझे। उनका मानना था कि जिन्होंने अपनी कन्या पालपोस कर हमारे घराने में लक्ष्मी के रूप में हमें सौंप दी है, तो वो हमसे छोटे कैसे हो सकते हैं। भेदभाव से परे उनकी उत्तम सोच शनै-शनै मान्यता के रूप में प्रचलित हो गई। 

सावनी में ले जाने वाली सामग्री के नाम – निशानियां नाम के अनुरूप ही उनका गुणचरित्र का दर्शन कराती हैं।

कलशा / माटी की मटकी
लड्डू खरपुरीयन (बड़े बतासों) से भरा कलशा व मटकी का आशय इस नीयत को दर्शाता है कि माटी की सौंधी सुगंध मिष्ठान की मिठास हमारी बोली, भाषा में मधु घोलें तथा रिश्तों की मिठास और सम्बन्ध प्रागड्य हों।” गागर में सागर” वाली कहावत का अनुसरण करते रहें।

छड़ी/ डंडा
इसका तात्पर्य है कि वर पक्ष वधुपक्ष के आगे अपने अहंकार को त्याग कर रसूखदार व बहुत बड़ा मनवाने की नीयत नहीं रखता वरन अपने अहम और वहम को दरकिनार कर ‘वधू पक्ष’ के आगे सहज भाव व नेक नीयत से अभिमान त्याग कर स्वाभिमान वाली छड़ी वधू पक्ष के समक्ष ससम्मान समर्पण के भाव से सावनी में शामिल करता है। कि समय आने पर हम अपने दोनों परिवारों को दुष्ट प्रवर्ती के समूह से अपनी इस छड़ी / डण्डा से मिलकर रक्षा भी कर सकें।

पुतरा-पुतरिया/ चकरी-भोंरा
नव युगल का दाम्पत्य जीवन हंसी-खुशी से बीते तथा अनुशासन और स्नेह ऐसा हो कि गृहस्थ जीवन में सुख -दुख मिलकर बांटे तथा परिश्रम, ईमानदारी, मर्यादा, धैर्य, सबूरी के सहारे ईश्वर का भी स्मरण रहे और ईश कृपा बनी रहे । चकरी-भोंरा के समान दोनों कुलों के मिलन से मन सर्वदा मस्त मगन होकर चकरी-भोंरा की तरह नाचता हुआ प्रगति व गतिशील बने,दोनों कुलों का नाम भी रोशन होता रहें।

चपेटा
सावनी में चपेटाओं का आध्यात्मिक व वैज्ञानिक अर्थ जन जागरण की दृष्टि से बेहद खास माना जाता रहा है।चपेटा का खेल वधू पक्ष की विवाहिता व अविवाहित लड़कियां सावनी में आये चपेटों को बांट कर उनसे आपस में प्रतिस्पर्धा के रूप में खेलती हैं। बांय हाथ की हथेली को भवन रूप इमारत मानकर दाहिने हाथ से चपेटा संख्यानुसार अंगुली के सहारे उछाल कर हथेली भवन में एकत्रित करती हैं। जो जितनी जल्दी एकत्रित करती है वही विजयी होती है। चपेटा चोकोर आकार में मिट्टी, लकड़ी,लाख,पीतल की धातु से बने होते हैं जिन पर प्रायः चटक रंग लाल, हरा, पीला, नीला, सफेद रंग पता होता है। जो बहुत ही आकर्षित लगते हैं।

सावनी में चपेटाओं की महत्वपूर्ण भूमिका सांख्यिकी के सूत्र के रूप में भी सामने दिखाई देती है। समस्या का समाधान दोनों परिवारों को संगठित करने का कौशल, दुश्मन को पराजित करना, कुशल रणनीति की सोच, अपने और अपने परिवार की सुरक्षा, गुणात्मक हिसाब किताब रखने की कला का प्रतीक हैं, सावनी का चपेटा ।

अलगोजा/ बांसुरी
पुरातन कहावत है कि चैन की बंशी बजाओ!  बुन्देलखण्ड की सावनी में अलगोजा जो कि दो जुड़वां लघु बांसुरी के समरूप हैं। इस अलगोजा / बांसुरी भेजने का उद्देश्य है कि दोनों पक्षों के परिवारों के सम्बन्धों में अलगोजा की तरह घनिष्ठता, एकजुटता और बांसुरी के स्वरों सी मधुरता कायम रहे, साथ ही साथ रोग,शोक, निर्धनता के मनोभाव से परे रहकर शुभकामनाएं व आशीष का आदान-प्रदान होता रहे ।

लेखक धर्म का पालन करते हुए यह तथ्य भी ईमानदारी से सुधी पाठकों के समक्ष रखना अपना कर्तव्य समझता हूं कि आज के बदलते परिवेश में हर समाज में कुछ लोग लालची मनोदशा के शिकार भी हैं। कि जितनी मूल्य की सावनी ले जायें उससे दो गुना वधूपक्ष से विदाई में वापस प्राप्त हो जाये।

कुछ लड़की पक्ष वाले निर्धन होने के कारण बेबस होकर वर पक्ष की इस मंशा को पूर्ण करने में समर्थ नहीं हो पाते, फलस्वरूप वर पक्ष का अहम और लालच सम्बन्धों में दरार पैदा करता है, और रिश्तों में मन मुटाव होने लगता है। वर्तमान समय में जो कदाचित उचित नहीं है। “सावनी” दहेज प्रथा पर चोट तथा लोक रंजन का पावन पर्व है। त्यौहार, हर्ष उल्लास और रिश्तों को मधुर बनाने के लिए मनाये जाते हैं। हमारे रीति- रिवाज, परम्परा, धरोहर संस्कृति, प्रकृति और जनकल्याण हेतु सम्पर्क, प्रयास,समर्पण आज की आवश्यकता है।

खेल-खिलौना और मिठाई, खरपुरीयन के हार ।
अबकें साउन सजे “सावनी” भैईया की ससुरार ।।

उम्मीद है कि बुन्देलखण्ड की हमारी ये पारम्परिक धरोहरें, व सावनी के संस्कार, हमारी आने वाली पीढ़ी को हमारे पवित्र पर्वों पर रिश्तों में मधुरता, शिष्टाचार, मर्यादा और त्याग, धैर्य की शक्ति प्रदान करें।संस्कृति को स्वचछ व निर्मल भाव से सहजने में सहभागिता का हिस्सा बनने के अलावा अपने सच्चे भारतीय होने का दायित्वों का निर्वहन करने में सफल हो सकें। इसी विश्वास के साथ सावनी की राम राम …।

लोकभूषण पन्ना लाल ‘असर’

सावनी बुन्देली परंपरा 

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