Homeबुन्देलखण्ड की लोक संस्कृतिBundelkhand Ka Vivah Parak Lok Kavya बुन्देलखण्ड का विवाह परक लोक काव्य

Bundelkhand Ka Vivah Parak Lok Kavya बुन्देलखण्ड का विवाह परक लोक काव्य

बुन्देलखण्ड में विवाह पूर्व एवं विवाह के समय Bundelkhand Ka Vivah Parak Lok Kavya गीतों में सगाई या पक्यात, लगुन, अरगो, हल्दी-तेल, देवतन कों न्योतो, मँड़वा-मायनो, चीकट या भात, बनरा-बनरी, टोना, दूल्हा-निकासी और बरात के गीत गाये जाते हैं। एक गीत-प्रकार का नाम बींदरिया है। बींदरिया बिंधना (बींधना) क्रिया का देशज रूप है, जिसका अर्थ है फँसना। जब विवाह पक्का हो जाता है, तो वर या कन्या विंध जाते हैं। झाँसी-तरफ इन गीतों का किसी जमाने में  प्रचलन था, पर अब वे दुर्लभ हो गये हैं।

बीदरियाँ सइयाँ हमें न सुहाबैं, जिनके बीरन बसे परदेस में।
सो कोऊ बुलाओ पाती लिखाओ, सो पठान नौनी धन के मायके।
सो पाती सें सइयाँ बीरन न आबैं, संदेसन भौजाई न आबैं,
सो पिया कै तो तुमहिं सिधारो, कै पुन पठाओ जेठे पूत कों।…..

इसी गीत में तेल, मँड़वा, भाँवरे आदि की तिथियाँ भी वर्णित हैं और भौजी तथा भतीजी साथ में आ जाती हैं-
सो पलकियन सी मचकत आबैं उनकी भौजाई,
सुहागिल आइयो सो नीले घुड़ला हींसत आबैं,
उनके भइया भतीजे आइयो।
सो रुनझुनियाँ सी बाजत आबैं,
उनकी भतीजी सुहागिल आइयो।

ये गीत लगुन और अरगे में गाये जाते थे, पर अब उनके गायन का पता नहीं चलता। हल्दी-तेल का प्रचलन भी खत्म-सा है, लेकिन गीत गाँवों में मिल जाते हैं। हल्दी के एक गीत में भौजी के प्रति अच्छा चुटीला विनोद है-

हरदी सी पीरी ततैया मोरी भौजी।
उड़ उड़ ततैया उनके नैनन में बैठी,
सो नैनन को सब रस लै गयी री भौजी।हरदी।
उड़ उड़ ततैया उनके गलुवन पै बैठी,
सो गलुवन को सब रस लै गयी री भौजी। हरदी।

विवाहपरक गीतों में परिवार और संबंधियों पर विनोद के छींटे आनन्द की वर्षा करते हैं, जिससे परिवार का सांस्कृतिक प्रदूषण का कचरा बह जाता है। फिर देवताओं को न्योता देकर पवित्र भावों को संचरित किया जाता है। वातावरण की पवित्रता में देवत्व विराजता है-
सरग नसैनी पाट की भइया जी चढ़ नेवतो देंउ।
तुम मोरे नेवते गनेस देव तुम मोरें आइयो।

फिर हरदौल को न्योता देने स्त्रियाँ उनके चबूतरे पर जाती हैं। उनके गायन में दो-तीन पुराने गीत रहते थे, जिन्हें अन्य गीतों की बनक पर गाया जाता था। उनके अंश देखें-
हरदौल लाला मोरी जा पत राखो।
दीवान लाला मोरी जा पत राखो।।……
हरदौल लाला मोरी कही मान लियो हो, हरदौल लाला..।
कहूँ भूला परै कहूँ चूक परै तो संभाल लियो हो, हरदौल लाला..।
माथे पै सैरो हरदौल जू के सोहै, कलियन की लटकन संभार लियो हो।हर.।।
कानन में कुण्डल हरदौल जू के सोहैं, झुमकन की लटकन संभार लियो हो।हर.।।

बुंदेला के साके हो लाला तोरो भलो है लछारो नाँव।
गाँउन गाँउन चैंतरा, उर देसन देसन नाँव। बुंदेला।।
काहे के बने चैंतरा, काहे ढारे बान।
सोने के बने चैंतरा, रूपे दारे बान।बुंदेला।।

चीकट या भात गीत में रूप में भी हरदौल के गीत गाये जाते हैं। साथ ही भात माँगने में अन्य गीतों का भी प्रयोग होता था। एक गीत में पहली पंक्ति है-
’भात जो माँगन चली हैं फलानी बैना, अपने भइया के अँगना।
भतैया भारी भीर भई।।‘

कुछ अन्य पंक्तियाँ देखें-
भात जो माँगन चली हैं लड़लड़ी बैना,
अपने भइया के अँगना। भतैया भारी भीर भई।
सारोटें डारो, आसन सोउ डारो,
पलकन बैठो लली। भतैया भारी भीर भई।

बनरा-बनरी गीतों में उनके सजने से लेकर निकासी तक के कई रूप-मुद्राएँ मिलतीं हैं, जिन सबका वर्णन कठिन है। यहाँ दो-तीन गीतों में कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत की जा रहीं हैं। सजनई का वर्णन देखें-
इन गलियन होकें ल्याइयो री, उन बारे बना खों।
माथे पै मौर बाँधो राजा बनरे, कलगिन लाल जड़इयो री, उन.।
चंदन खौरे काढ़ो राजा बनरे, टिपकिन लाल लगइयो री, उन.।
नैनन सुरमा आँजो राजा बनरे, सींकन लाल लगइयो री, उन.।

इस सजनई में बनरा या बनरी की नख-शिख सजावट रहती है। काजल की जगह सुरमा ने ले ली है। किसी गीत में मौर की जगह सैरा (सेहरा) पैठ गया है। ये सब मध्ययुगीन परिवर्तन है। अधिक सुन्दरता से नजर लग जाती है, उसे नजरानौ बनरा (नजर लगी है जिस बनरा को) कहते हैं। उसकी नजर उतारी जाती है। एक-दो उदाहरण देखें-
मोरो बारो बना नजरानौ री, मोरो बारो बना।
राई नौंन औ सूत डबुलिया, आजी नजर उतारै री, मोरो.।
परदा भीतर कर लेव री, लग जैहै नजरिया।
जे बनरा बाबुल जू प्यारे,
माई के नैनन के तारे री, लग जैहै नजरिया।।

बरात गीतो में एक ऐसा गीत भी मिला है, जिसमें दूल्हा के आजुल, बाबुल, काकुल, फूफुल, जीजुल आदि रूठ जाते हैं और बरात जाने से मना करते हैं। ऐसी परिस्थिति में दूल्हा सबके पैर छूकर और मना-मनाकर हाथी, तामझाम, घोड़ा, ऊँट आदि पर सवार कराता है। कुछ पंक्तियाँ देखें-
आजुल बना के सोई मन रूसे, हम ना बरातै जैहैं मोरे लाल।
वर पर पैयाँ मना रये बारे बनरा, आजुल बरातै चलियो मोरे लाल।
अपने आजुल खों हथियाँ सजा दउँ, जी चढ़ बरातै चलियो मोरे लाल।।

विवाह के  गीतों में टीका, चढ़ाव, ज्यौंनार, सजन गीत, गारियाँ, कंकन, विदा, आदि में सबसे अधिक ज्यौंनार के बीच सजन गीत एवं गारियाँ। टीका गीत में जनक, दशरथ, रामादि के बहाने उत्तरमध्ययुग की साज-सज्जा एवं राजसी ऐश्वर्य का चित्रण हुआ है। गीत की कुछ पंक्तियाँ साक्षी हैं-

राजा जनक के द्वारे ऊबी सोभा ना बरनी जाय मोरे लाल।
हाथी घोड़ा ऊँट सजे हैं, सोभा ना बरनी जाय मोरे लाल।।
पीनस पलकी औ रथ बग्घी, तोपें दई हैं जताय मोरे लाल।
पैदल पलटन और रिसाले, संगै दये जुड़ाय मोरे लाल।
दगी सलामी है तोपन की, हवा सरग मँडराय मोरे लाल।
विस्वामित्र मिले दसरथ सें, सो सुख कहो न जाय मोरे लाल।
ग्      ग्      ग्      ग्      ग्
राजा जनक नें कइयक बरन के, टीका दये कराय मोरे लाल।
हाथी घोड़ा ऊँट दये हैं, मुहरन दये सजाय मोरे लाल।।

उक्त गीत में पीनस, बग्घी, तोपें, तोपों की सलामी, अतिशबाजी और मोहरें इसी कालखण्ड के शब्द हैं। चढ़ाव में सीसफूल से लेकर दस आँगरौ तक और वस्त्रों में घाँघरा, पिछौना, रैनी फरिया और डड़िया आदि वर्णित हुए हैं। ज्यौंनार के गीतों में विविध पक्वानों का वर्णन है, जबकि ज्यौंनार के समय सजनगीतों एवं गारियों में विनोद और व्यंग्य के ऐसे छींटे मिलते हैं, जो श्रोताओं को भीतर तक गुदगुदा देते हैं। दोनों के उदाहरण देखें-

कढ़ी पकौरी बूरो भसक, बाबा जू हमारे रामजू लला।
मूँछन पै चाँउरन की चिपकी ठसक, बाबा जू।
समधी को समधिन गई ती कसक, बाबा जू।….
चंचल चतुर सुगर नर भौंरा, पर घर गमन ना करियो बे।
हाँ हाँ बे….हूँ हूँ बे….। (टेक)
ग्      ग्      ग्      ग्
जगत में जो गुण औगुन करहौ, अगन खंभ में बँध हो बे।

पहले उदाहरण में ज्यौंनार में भी बुंदेलखण्डी ठसक का संकेत है। दूसरे में नीतिपरक उद्बोधन है। ’अग्नि-स्तम्भ‘ में बँधने की रूढ़ि अग्नि-परीक्षा की तरह काफी पुरानी है। बेटी के विदा के इस समय के तीन गीत हैं। एक में जनक दशरथ से विनती करते हैं कि भूल-चूक क्षमा करें। दूसरे में ’काहे कर दओ बिरानी मतारी मोरी‘ में बेटी की करुणा है। तीसरा गीत तो करुणा का सागर है, उसकी कुछ पंक्तियाँ देना उचित है। वह गारी बेटी की ओर से रुदन गीत है-

कच्ची ईंट बाबुल देरी न धरियो,
बिटिया न दइयो परदेस मोरे लाल।
देरी की इँटिया खिसक जैहै बाबुल,
बिटिया बिसूरै परदेस मोरे लाल।।
माई के रोये नदिया बहत है,
बाबुल के रोये बेेलाताल मोरे लाल।
बीरन के रोये छतिया फटत है,
भौजी के जियरा कठोर मोरे लाल।।
मोरीं पुतरियाँ माई गंगै बहा देव,
मैं तो चली परदेस मोरे लाल।

उक्त उदाहरणों में क्रमिक भाव-विस्तार मिलता है, जिससे वेदना धीरे-धीरे करुण बन गयी है। असल में, यह गीत बाल-विवाह का है। पहले उदाहरण में ’कच्ची ईंट‘ बालिका की कच्ची (अपरिपक्व) उम्र की द्योतक है। जिस प्रकार कच्ची ईंट की देहरी खिसक जाती है, उसी तरह बालिका बहू परदेश में हमेशा बिसूरती रहती है।

दूसरे उदाहरण में परिवार के प्रमुख जनों की वेदना की गहराई नाप ली गयी है। माता के रोने से नदी का बहना, पिता के रोने से तालाब भरना और भाई के रोने से छाती का फटना, तीनों में वेदना कर क्रमिक उतार है तथा भौजी की कठोरता बताकर पारिवारिक यथार्थ का संकेत भिजवाया है कि उसके खेलने की पुतरियाँ गंगा में बहा दें, जो वेदना की चरम परिणति व्यक्त करने में समर्थ है।

विवाहोपरान्त के दादरों का विषय श्रृंगार ही रहा है। विविध बिम्बों, प्रतीकों और दृष्टान्तों द्वारा
प्रेमानुभूति की अभिव्यक्ति दादरों का लक्ष्य रहा है, जिससे नवविवाहितों में प्रेभभाव उद्दीप्त हो सके। प्रेममय वातावरण की निर्मिति ही उनका उद्देश्य होता है। कुछ पंक्तियाँ विनोद और आनन्द की भी रहती हैं। उदाहरण देखें-
भौंरा भनर भनर होय मोरी गुइयाँ।
जब मोरे राजा पिया पिया गये हैं बगीचा, भौंरा.।
गजरा लहर लहर होय मोरी गुइयाँ।
ग्      ग्      ग्      ग्
जब मोरे राजा पिया आये अटरिया,
जियरा धुकर पुकर होय मोरी गुइयाँ।।
सरकत नइयाँ बटुआ गोरी बिना।
सुन्ने की थारी में भोजन परोसे,
जेंवत नइयाँ राजा गोरी बिना।
ग्      ग्      ग्
रंगामहल में चैपर डारी,
खेलत नइयाँ राजा गोरी बिना।।

पहले उदाहरण में नवविवाहिता के प्रियतम से मिलन के पूर्व की मिश्रित भावुकता है, जिसमें एक ओर मिलन का आनंद पूर्वराग की तरह मौजूद है और दूसरी ओर मिलन के पूर्व की घबराहट। दूसरे में एक दूसरे के बिना कोई कार्य संभव नहीं है।

बुन्देली लोक संस्कृति 

संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल

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Bundeli Jhalak: The Cultural Archive of Bundelkhand. Bundeli Jhalak Tries to Preserve and Promote the Folk Art and Culture of Bundelkhand and to reach out to all the masses so that the basic, Cultural and Aesthetic values and concepts related to Art and Culture can be kept alive in the public mind.
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