बुन्देली पनिहारी
पनियाँ भरन जात कुअला पै, बुंदेली पनिहारी ।
चाल नियारी वलै और फिर, गैल चलै अनियारी ।।
नूपुर की धुनि बसी करन में, वशीकरन सौ डारें।
घट अरु घूँघट कौ संघटु, पनघट कौ रूप निखारें ।।
चढ्यो कूप पै रूप जगत के नैंना हरष उठे हैं।
और दूसरी ओर जगत के नैंना तरस उठे हैं ।।
फाँसी डारी जोरा में जोरे में गगरा फाँसो ।
हँस हँस पानी खिचवावै देखौ जीवंत तमासौ । ।
कंकण करत किलोल लपक लजुरी सौं खेंचत पानी।
करया घरया जावै मानों कसरत करत सयानी ।।
टोरें लाज अनंग, अंग अंगन से उठें हिलोरें ।
ऐसी घनीं हिलोरें जे ज्ञानिन कौ ज्ञान बिलोरें ।।
पानी खेंच धर्यो गगरा नें तब गर फाँसी छूटी।
धरि के खेप अनूठी ले लजुरी चली ग्रामवधूटी ।।
भय रूप को पानी तापर धर्यो कूप को पानी ।
कोमलता के ऊपर जा कठोरता की मनमानी ।।
चली भरी गगरी सी सिर सों रिसत जात है पानी ।
घट की घटा बरस रइ भींजत जात-रूप की रानी ।।
धरत जात है चरन आचरन हरत जात दुनियाँ को ।
विधि ने रूप भली विधि बिन टाँके को टॉकों बाँकौ ।।
जगत- कुएं का चबूतरा, संसार
लजुरी- रस्सी
जोरा-रस्सी पानी खींचने वाली
घट – घडा, शरीर
जोरे में – घाघरे में
विधि- ब्रह्मा, तरीका
जातरूप- सोना (सभंग यमक)
रचनाकार – पद्मश्री अवध किशोर जड़िया का जीवन परिचय