Bundeli Bhasha Sahitya Aur Sanskriti आज भी अपनी प्राचीनता को सँजोये हुए है । बुंदेलखंड की अनोखी ‘बुन्देली भाषा‘ का बुन्देली संस्कृति और साहित्य की प्रसिद्धि के कारण प्राचीन काल से ही गौरवशाली इतिहास रहा है। बुंदेली भाषाई और साहित्य के दृष्टिकोण से प्राचीन एवं अति समृद्ध भाषा है। 10वीं-11वीं सदी से प्रचलित बुन्देली भाषा चंदेल साम्राज्य से लेकर बुंदेला राज तक फलती-फूलती रही है।
जगनिक, तुलसीदास, केशवदास, ईसुरी, अवधेश, डॉ० रामनारायण शर्मा, डॉ० बहादुर सिंह परमार, डॉ० शरद सिंह और सतेंद सिंघ किसान इत्यादि उल्लेखनीय बुन्देली साहित्यकार हैं। वाल्मीकि रामायण में इस बुंदेलखंड प्रदेश के व्यापार, रहन-सहन, खान- पान, शिल्प कलाओं आदि का वर्णन मिलता है।
बुंदेलखंड महुआ, मेवा, बेर, मिठाई के लिए प्रसिद्ध है। बुन्देलखंड में सुबह के भोजन को ‘कलेऊ’, दोपहर के भोजन को ‘दुपाई’ और रात के भोजन को ‘बियारी’ कहा जाता है। बुंदेली वेशभूषा एवं परिधान साधारण हैं। डॉ० श्रीवास्तव जी ने लिखा है कि यहाँ का पहनावा साधारण है। बड़े- बूढ़े आदि बाहों वाली बंडी-फतुही पहनते हैं, कंधे पर पिछोरा, सिर पर अंगौछा।
राज दरबार में जाने की पोशाक-अंगरखा मिर्जई, पांव में सराई और सर पर पगड़ी धारण करने का रिवाज था। सामान्य जन कंधे पर गमछा (तौलिया) डालते हैं। स्त्रियों द्वारा सामान्यत: धोती (साड़ी), पोलका का ही प्रयोग किया जाता है। अब साया (पेटिकोट) और चोली (अंगिया) का भी प्रचलन है। विशेष अवसरों पर स्त्रियाँ लहंगा, चुनरिया, घाघरा और पिछौरा धारण करती हैं। बुन्देलखंड में प्रायः स्त्रियाँ सोने एवं चांदी के आभूषण धारण करती हैं। अतः बुन्देली भाषा, साहित्य और संस्कृति विश्व में अपनी अनोखी पहचान रखते हैं।
बीज शब्द
बुन्देली भाषा, बुन्देली संस्कृति, बुन्देली साहित्य, रहन-सहन, खान-पान, वेशभूषा, परिधान, बुन्देलखण्ड।
मुख्य प्रतिपाद्य / प्रस्तावना
बुन्देलखण्ड भारतवर्ष का हृदय स्थल है। बुन्देलखण्ड की मुख्य भाषा बुन्देली है, जो अपने आस-पास के अन्य राज्यों की भाषाओं से प्रभावित होकर बुन्देलखण्ड के चारों ओर ऐसे मिश्रित रूप भी तैयार करती है, जिनमें बुन्देली और अन्य प्रदेशीय संस्कृतियों का स्पष्ट प्रभाव दिखता है। लगभग चौदहवीं सदी ई० में इस भू-भाग का नाम ‘बुन्देलखंड’ पड़ा।
बुन्देली भाषा अखंड बुंदेलखंड में बोली जाने वाली भाषा है। इसे ‘बुंदेलखंडी’ नाम से भी जाना जाता है। बुन्देली भाषा की आदि जननी संस्कृत है परंतु इसकी उत्पत्ति और विकास अपभ्रंश भाषा से हुआ है। बुन्देली भाषा के प्रयोग और इसके साहित्य के साक्ष्य प्राचीन काल से ही मिलते हैं। 11वीं-12वीं शताब्दी में चंदेल साम्राज्य के अन्तर्गत बुंदेली विकसित होती रही है। बुन्देलखण्ड के इतिहास में यह स्पष्ट है कि यहाँ पर स्वतन्त्रता के निमित्त लगातार संघर्ष होते रहे हैं। वीरों की यह भूमि अपने स्वाभिमान और समृद्धि के लिए प्रसिद्ध है।
शोध पत्र / शोध प्रविधि
बुन्देली भाषा और साहित्य
बुन्देली भाषा का विकास अपभ्रंश से हुआ है और ये बुन्देलखंड की भाषा है। एक मत के अनुसार – बुन्देलाओं की भाषा को ‘बुन्देली’ माना जाता है। बुन्देलखण्ड अपनी ऐतिहासिक-साहित्यिक परम्पराओं के लिए दीर्घकाल से प्रसिद्ध रहा है।
‘बुन्देला’ शब्द की व्युत्पत्ति के संबंध में विभिन्न मत प्रचलित है। प्रथम मत के अनुसार – ‘बघेलखंड’ के सादृश्य पर ‘विंध्येलखंड’ नाम पड़ा जो कि कालांतर में ‘बुन्देलखण्ड’ बन गया। ‘विंध्य’ शब्द का अपभ्रष्ट रूप ही ‘बुन्देला’ है।
द्वितीय मत के अनुसार – विन्ध्यवासिनी देवी से संबंधित प्रचलित जनश्रुति के अनुसार, बुंदेलखंड के आदि पुरुष हेमकरण ने अपने राज्य के विस्तार के लिए देवी को रक्त की बूंदें अर्पित कीं। बूंद अर्पण करने के कारण हेमकरण और उसके वंशज ‘बुंदेला’ कहलाए।
बुन्देली विद्वानों की रचनाओं में बुन्देली लोकोक्तियों का भी पर्याप्त प्रयोग मिलता है जैसे –
बिना तत्व ज्ञान प्राणी भ्रमथ अनन्य भने ,
धोबी कैसे कुत्ता जैसे घर के न घाट के।
बुंदेली जनजीवन का वास्तविक परिचय वहां की संस्कृति और साहित्य से मिलता है। संस्कृति से संबंधित विभिन्न उपकरणों में दर्शन, धर्म, नीति, साहित्य, वेशभूषा, संस्कार, रूढ़ियाँ और जन विश्वास सम्मिलित होते हैं। बुंदेलखंड के सामाजिक जीवन में शिव, कृष्ण, राम, शक्ति आदि की विशिष्ट मान्यता रही है। इनके अतिरिक्त आल्हा, हरदौल, दूल्हा देव आदि महान चरित्र भी देवों के रूप में पूजे जाते हैं।
बुंदेलखंड में बुंदेली भाषा को लगभग 400 वर्षों तक लगातार राजभाषा बने रहने का सौभाग्य प्राप्त रहा, ऐसा तत्कालीन राजाओं द्वारा किए पत्र-व्यवहार, ताम्रपत्र और सनदों से स्पष्ट होता है। डॉ कृष्ण लाल हंस ने बुंदेली के विकास को तीन रूपों में प्रस्तुत किया है – काव्य भाषा के रूप में, राजभाषा के रूप में और लोक भाषा के रूप में।
बुंदेलखंड की लोक संस्कृति के अध्येता डॉ० नर्मदा प्रसाद गुप्त भी सांस्कृतिक भाषाई एवं एवं भौगोलिक दृष्टि से सीमाएं मानते हैं। उत्तर प्रदेश शासन द्वारा बुंदेलखंड विकास निधि के प्रयोजन से 7 जिले – झाँसी, ललितपुर, जालौन, हमीरपुर, महोबा, बांदा तथा चित्रकूट इसमें सम्मिलित किए गए हैं। मध्य प्रदेश शासन ने बुंदेलखंड विकास प्राधिकरण के लिए पन्ना, छतरपुर ,टीकमगढ़ ,दतिया, सागर तथा दमोह को ‘बुंदेलखंड’ माना है।
बुंदेली का सर्वाधिक विकास लोकभाषा के रूप में हुआ है मानव जीवन से संबंधित कोई ऐसा विषय नहीं जिससे संबंधित गीत बुंदेलखंड में प्रचलित न हो लोक गाथा में प्राय: वीर श्रृंगार और शांत रस प्रधान होता है। बुंदेली का विकास लोकोक्तियों, पहेलियों और मुहावरों के माध्यम से हुआ है जैसे –
लोकोक्ति
नीम न मीठी होए खाओ गुड़ घी से।
जी को जौंन सुभाव जाए न जी से।।
पहेली
ऊंट मलंग को मका जाए हाकान हारो वालों को।
बीनन हारी बीन कपास एक ही मोरी एक ही सास।
कहावत
दूर जमाई फूल बिरोबर, गांव जमाई आदौ।
घर जमाई कुवर की नाई, मन आए सो लादौ।।
संस्कृति और विचारों के आदान-प्रदान से व्यक्ति समाज और क्षेत्र की पहचान होती है। देश, प्रदेश, शहर, गांव, मोहल्ले आदिकाल से ही विकसित होते आए हैं। आज भौतिकवादी युग में भी नए प्रतिमानों के साथ विकसित सभी भाषाएं अपनी हैं। पुरानी कहावत है कि
कोस कोस पे पानी बदले, चार कोस पे बानी।।
बुन्देली भाषा में साहित्य सृजन प्रचुर मात्रा में हुआ है। 10वीं-11वीं सदी से प्रचलित बुन्देली भाषा चंदेल साम्राज्य से लेकर बुंदेला राज तक फलती-फूलती रही है। बुन्देली में साहित्य और लोक साहित्य सृजन की समृद्ध परंपरा रही है।
12वीं शताब्दी में जनकवि जगनिक द्वारा रचित ‘आल्हा खण्ड’ (परमाल रासो) बुन्देली का आदिकाव्य है। आज भी अखण्ड बुन्देलखण्ड में ‘आल्हा गायन’ का प्रचलन है। जगनिक पहले बुन्देली साहित्यकार हैं। ‘जगनिक’ के बाद ‘तुलसीदास’ ने रामचरित मानस, कवितावली, ‘केशवदास’ ने रामचंद्रिका, कविप्रिया, रसिकप्रिया, ‘ईसुरी’ ने ईसुरी की फागें, ‘अवधेश’ ने बुन्देल भारती, ‘डॉ रामनारायण शर्मा’ ने बुन्देली भाषा साहित्य का इतिहास, पेज तीन, ‘डॉ बहादुर सिंह परमार’ ने बुन्देलखंड की साहित्यिक धरोहर, बुन्देली बसंत, ‘डॉ शरद सिंह’ ने बतकाव बिन्ना की और ‘सतेंद सिंघ किसान’ (मूलनाम – किसान गिरजाशंकर कुशवाहा ‘कुशराज झाँसी’) ने बुंदेलखंडी युबा की डायरी का सृजन कर बुन्देली साहित्य की श्रीवृद्धि की है।
बुन्देली संस्कृति
खान-पान
बुन्देली संस्कृति की अनोखी भोजन व्यवस्था ‘पंगत’ है। बुंदेलखंड की पंगत के कारण भी हम बुन्देली संस्कृति पर गर्व करते हैं। पंगत यहॉं के खान-पान की अनोखी पहचान बनाती है। बुंदेलखंड में पंगत की प्रथा अनादिकाल से आज तक जारी है। पंगत की प्रथा बुंदेलखंडी समाज की देवीय भोजन व्यवस्था भी है। हमारे पूर्वजों द्वारा बनाई हुई व्यवस्था को परंपरागत स्वरूप देते हुए सबसे पहले जिस चूल्हे पर पंगत का भोजन तैयार होता है। उसकी पूजा-अर्चना होती है और जो भी पहले भोजन बनता है उसे अग्नि को समर्पित किया जाता है।
बुंदेलखंड और बुंदेली संस्कृति दुनिया में अपनी अनोखी पहचान और अस्तित्व बनाए हुए हैं बुंदेली संस्कृति भारतीय संस्कृति की विशिष्ट शाखा के रूप में पल्लवित पुष्पित हुई है बुंदेली संस्कृति अपने अनोखे खान-पान, रहन-सहन, बोल-चाल, लेखन-पाठन, खेती-बाड़ी और पर्व- त्यौहार आदि के कारण विशेष स्थान बनाए हुए अनवरत चली आ रही है।
बुंदेलखंड का ग्रामीण क्षेत्र अविकसित होने के कारण निर्धन रहा है। महुआ तथा बेर यहां की गरीब बहुसंख्यक जनता का प्रिय भोजन है। कहावत है – महुआ भलो राम को प्यारो। गेहूं पिसी दगा सब दे गए महुअन देस हमारो।।
बुन्देलखण्ड के ग्रामीण लोग सत्तू प्रेम से खाते हैं, उसमें महंगे मसाले बांछित नहीं होते हैं नमक या गुण डाला और मजा आ गया। ‘बजीर’ नामक लोक कवि ने लिखा है – सतुआ लगे लुचाई सो प्यारो कलाकंद को कलाकंद को सारो।।
संपन्न घरों में बासी ‘लूचई’ तथा ‘अमिया को अथानों’ (पूडी/आम का अचार) प्रिय नाश्ता (कलेऊ) है। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त के चिरगांव निवास स्थान पर सभी आगंतुकों को यही नाश्ता सुलभ रहता था। प्रिय जनों तथा मेहमानों के लिए ताती जलेबी, लडूआ उत्कृष्ट नाश्ता माना जाता है।
त्योहारों पर अरहर की दाल बनाने का निषेध है,उसे हेय दृष्टि से देखा जाता है। पूनैं-अमावस पर धुली दालें तथा सिंबईयां बनाने की परंपरा है। अन्य बुंदेली व्यंजनों में माडे, फरा, लपसी, थोपा, पछियावर (गोरस), आवरिया, हिंगोरा, डुमरी लटा, मुरका, तेलु, मुसेला, गकरिया और भाजी का भुर्रा ऐसे नाम है, जो अन्यत्र दुर्लभ हैं। सामान्य अतिथियों के भोजन में सिंवईयां की खीर (चिरौंजी किसमिस गरी पड़ी हुई) बनाई जाती है।
बुन्देलखण्ड के ग्रामीण अंचलों में पिकनिक मनाने की परंपरा है किंतु उनका यह अंग्रेजी नाम प्रचलित नहीं है। जब महिलाएं ‘पिकनिक’ मनाने जाती है तो उसे ‘गकरिया खाने जाना’ कहते हैं। जब पुरुष पिकनिक पर जाते हैं तो उसे ‘गक्कड़ भोज’ अथवा ‘टिक्कड़ भोज’ कहते हैं। व्यंजन लगभग वही होते हैं। इसके साथ टमाटर, धनिया मिर्च की कुचली हुई मोटी-मोटी चटनी भी बनाते हैं।
वेश-भूषा
किसी भी अंचल की लोक – संस्कृति को समझने के लिए वहां के नर-नारियों की वेशभूषा तथा आभूषणों की जानकारी बहुत जरूरी है। बुन्देली वेशभूषा में महिलाओं में ‘बाढ़’ पहनने का प्रचलन रहा है। यह विशेष प्रकार का ‘घाघरा’ होता है। समृद्ध परिवारों में इस पर चांदी या सोने की जरी की कढ़ाई मिलती है।
कुर्मी बहुल क्षेत्र में अभी भी बढ़-चोली, चुनरिया फैंट हुई लंबी आस्तीन वाले ब्लाउज पहनने की परंपरा है। यह नक्काशीदार भी होते हैं। श्रमिक महिलाएं / किसानिन और मजदूरिनें कांचवाली धोती पहनती है।
पुरुष सफा, पगड़ी, अंगोछा, बंडी, मिर्जई, फतुई, कमीज, कुर्ता या धोती पहनते हैं। महिलाओं के लोक परिधान प्रायः इस ढंग से पहने जाते हैं कि उनके अधिकांश आभूषण दिखाई देते रहें। कुंवारी लड़कियां ‘कंडेला’ डालती हैं और विवाहित स्त्रियाँ ‘आंचल’ डालती हैं।
इस अंचल में आभूषण के प्रति प्रेम महिलाओं में अधिक है। वजनी आभूषण पहनने का रिवाज है। पैरों में ‘पैजना’ दो-तीन किलो वजन तक के होते हैं। गले की ‘सुतिया’ डेढ़-दो किलो तक वजन की होती है। समृद्ध परिवारों को छोड़कर जिनमे स्वर्ण – आभूषणों का प्रचलन है। चांदी (विशेषकर रूप) के आभूषण अभी भी प्रचलित है। इन आभूषणों की संख्या सैकडों में है। कहीं-कहीं प्रचलन कुछ काम होता जा रहा है।
निष्कर्ष
निष्कर्षत: हम यह कह सकते हैं कि बुंदेली भाषा, साहित्य और संस्कृति का अपना एक अलग ही महत्व है। बुन्देली भाषा में लिखा गया साहित्य आज भी अपना महत्त्वपूर्ण स्थान बनाए हुए है। बुंदेली भाषा प्राचीन काल से अब तक नए-नए कीर्तिमान स्थापित करती हुई आ रही है और आगे भी करती रहेगी। हमारे बुंदेलखंड के प्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरगोविंद कुशवाहा जी, डॉ० रवींद्र शुक्ला जी, डॉ० पवन तूफान जी, प्रोफेसर पुनीत बिसारिया जी, सांसद अनुराग शर्मा जी का बुंदेली भाषा, साहित्य और संस्कृति के प्रचार-प्रसार और सरंक्षण में विशेष योगदान रहा है।
Bundeli Bhasha Sahitya Aur Sanskriti
संदर्भ
(1) मिश्रा, डॉ० रंजना, सन 2016 ई०, बुन्देलखण्ड : सांस्कृतिक वैभव, दिल्ली, अनुज्ञा बुक्स, पृष्ठ-50.
(2) मिश्रा, डॉ० रंजना, सन 2016 ई०, बुन्देलखण्ड : सांस्कृतिक वैभव, दिल्ली, अनुज्ञा बुक्स, पृष्ठ-25.
(3) मिश्रा, डॉ० रंजना, सन 2016 ई०, बुन्देलखण्ड : सांस्कृतिक वैभव, दिल्ली, अनुज्ञा बुक्स, पृष्ठ-25.
(4) ‘कुमुद’, अयोध्या प्रसाद गुप्त, सन 2021ई०, बुंदेलखंड की लोक संस्कृति और साहित्य, नई दिल्ली, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत, पृष्ठ-5.
(5) मिश्रा, डॉ० रंजना, सन 2016 ई०, बुन्देलखण्ड : सांस्कृतिक वैभव, दिल्ली, अनुज्ञा बुक्स, पृष्ठ-31-32.
(6) ‘असर’, पन्ना लाल, सन 2015ई०, बुन्देली रसरंग, लखनऊ, भारत बुक सेंटर, पृष्ठ-xiv.
(7) शर्मा, डॉ० रामनारायण, सन 2001ई०, बुन्देली भाषा साहित्य का इतिहास, झाँसी, बुन्देली साहित्य समिति झाँसी
(8) झाँसी, कुशराज, 14 दिसंबर 2022, बुंदेलखंड की पंगत : अनोखी भोजन व्यवस्था, बुन्देली झलक, https://bundeliijhalak.com/bundelkhand-ki-pangat/
(9) ‘कुमुद’, अयोध्या प्रसाद गुप्त, सन 2021ई०, बुंदेलखंड की लोक संस्कृति और साहित्य, नई दिल्ली, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत, पृष्ठ-115.
(10) ‘कुमुद’, अयोध्या प्रसाद गुप्त, सन 2021ई०, बुंदेलखंड की लोक संस्कृति और साहित्य, नई दिल्ली, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत, पृष्ठ-120.
©️ प्रीतिका बुधौलिया
(परास्नातक छात्रा – हिन्दी विभाग, बुन्देलखण्ड महाविद्यालय झाँसी, बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय झाँसी / इतिहासकार, सीसीआरटी, संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार की योगदानकत्री)
मो० – 8576052744
ईमेल – pritika079@gmail.com
©️ कल्पना नरबरिया
(परास्नातक छात्रा – हिन्दी विभाग, बुन्देलखण्ड महाविद्यालय झाँसी, बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय झाँसी)
मो० – 9565173840
ईमेल – Kalpanasingh1983.gmail.in
बुंदेली झलक को बहुत बहुत धन्यवाद 👏👏
भौत-भौत बधाई! साथियों प्रीतिका बुधौलिया उर कल्पना नरबरिया 💐💐💐👌👌👌🙏🙏🙏