Principles of Buddhism
महात्मा बुद्ध ने बौद्ध धर्म के रूप में विश्व को एक ऐसी आचार संहिता दी है। जिसमें समस्त जीवों के कल्याण की भावना निहित है। महात्मा बुद्ध बड़े व्यावहारिक सुधारक थे। उनके उपदेशों का अंतिम उद्देश्य ’बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय’ था। बौद्ध धर्म में मानवता की पराकाष्ठा निहित है। महात्मा बुद्ध ने अपने जीवन का प्रथम उपदेश सारनाथ में दिया था और उसी में Baudh Dharm Ke Siddant और शिक्षाओं का सार निहित था।
संयुक्त निकाय के धर्मचक्रप्रवर्तन सूत्र के उल्लेखानुसार, बुद्ध के प्रथम उपदेश निम्न थे – परिव्राजक को काया – क्लेश और काम सुख से बचना चाहिए। उसे ’मज्झिम पतिपदा’ (मध्यम मार्ग) का अनुसरण करना चाहिए तथा ’सत्यचतुष्टय’ का पालन करना चाहिए।
बौद्ध धर्म के मूलभूत सिद्धांत चार आर्य सत्य (सत्यचतुष्टय)
Fundamentals of Buddhism The Four AryaTruths
बौद्ध धर्म के मूलभूत सिद्धांतों की आधारशिला चार आर्य सत्य है। बौद्ध धर्म की विविध शिक्षाओं और सिद्धांतों की जड़ों में चार आर्य सत्यों का सार निहित है। किसी न किसी रूप में चार आर्य सत्य बौद्ध धर्म में समाहित रहते है। ये चार आर्य सत्य है –
1 – दुख:
महात्मा बुद्ध के अनुसार संपूर्ण जीवन में जन्म से लेकर मृत्यु तक दुःख ही दुःख है। महात्मा बुद्ध ने कहा है कि, जन्म-मरण, प्रिय-वियोग, किसी प्रिय एवं इच्छित वस्तु का न मिलना आदि सभी दुःख है।
2 – दुःख समुदाय (दुःख का कारण)
महात्मा बुद्ध ने समस्त दुःखों की जड़ ’तृष्णा’ को बताया है। महात्मा बुद्ध ने सांसारिक मोह – माया और व्यक्ति की अनंत इच्छाओं से उत्पन्न ’तृष्णा’ को दुःखों का मूल कारण माना है। ’तृष्णा’ के जाल में फंसा मनुष्य कभी भी दुःख से मुक्ति नहीं पा सकता।
3 – दुःख निरोध
दुःख निरोध से आशय तृष्णाओं से मुक्ति या छुटकारा पाना है। महात्मा बुद्ध ने तृष्णाओं के नाश को ’दुःख निरोध’ कहा है।
4 – दुःख निरोधगामिनी प्रतिपदा
दुःख निरोधगामिनी प्रतिपदा से आशय ऐसे मार्ग से है, जिसके पालन करने से समस्त दुःखों से मुक्ति या छुटकारा मिल जाता है। दुःख निरोधगामिनी प्रतिपदा अर्थात् दुःख निरोध या दुःखों से मुक्ति के लिए महात्मा बुद्ध ने ’आष्टांगिक मार्ग’ के पालन की सलाह दी है। महात्मा बुद्ध के कहने का आशय यह है कि, यदि दुःखों से मुक्ति या छुटकारा चाहिए तो ’आष्टांगिक मार्ग’ सुचिता युक्त मार्ग पर चलो।
आष्टांगिक मार्ग
महात्मा बुद्ध ने ज्ञान और मुक्ति के मार्ग में आने वाली बाधाओं के मूल में समस्त प्रकार के दुःखों को माना है। इसीलिए महात्मा बुद्ध ने दुःखों के निवारण हेतु ’आष्टांगिक मार्ग’ का सृजन किया। वस्तुतः दुःखों से मुक्ति और निर्वाण प्राप्ति हेतु महात्मा बुद्ध द्वारा सुझाया गया रास्ता, आष्टांगिक मार्ग है। आष्टांगिक मार्ग के आठ अंग है –
1 – सम्यक दृष्टि
सम्यक दृष्टि से तात्पर्य है, सही और वास्तविकता का ज्ञान होना। न्यायशील, तर्कयुक्त, जांच – परख कर किये गये कार्योे को ’सम्यक दृष्टि’ कहा जा सकता है। बौद्ध धर्म ग्रंथों में सम्यक दृष्टि से तात्पर्य ऐसे तर्कयुक्त विवेक से है, जो चार आर्य सत्यों की सही परख कर सके।
2 – सम्यक् संकल्प:
सम्यक् संकल्प से तात्पर्य है, सार्थक दृढ़ निश्चय से है। जोकि, ऐसी समस्त वस्तुओं का त्याग कर सके जो मुक्ति और निर्वाण की प्राप्ति में बाधक हो। बौद्ध धर्म ग्रंथों में सांसारिक मोह – माया का त्याग, द्वेष, हिंसा के त्याग का संकल्प करना सम्यक् संकल्प है।
3 – सम्यक् वाक्:
सम्यक् वाक् से तात्पर्य, सही, उचित, सार्थक वाणी (बोलने) से है। महात्मा बुद्ध का उपदेश है कि, ऐसी वाणी बोलना चाहिए, जो सत्य हो, विनम्र हो, और दयालुतापूर्ण हो। वही, सम्यक् वाक् हैं। सम्यक् वाक् का प्रधान विषय ’धर्म – वार्ता’ होता है।
4 – सम्यक् कर्मान्त:
सम्यक् कर्मान्त से तात्पर्य, सही, उचित और सार्थक सत्कर्मों से हैं। बौद्ध धर्म ग्रंथों में अहिंसा तथा इंद्रिय संयम को सम्यक् कर्मान्त माना गया हैं।
5 – सम्यक आजीव:
सम्यक आजीव से तात्पर्य, सही, उचित और सार्थक कार्यों, व्यवसाय, उद्योग का जीवन यापन के लिए चुनाव करना। कुल मिलाकर जीवन यापन हेतु किसी प्रकार का अनुचित कार्य नहीं करना जिसे धर्म और समाज मान्यता प्रदान नहीं करता हो। सम्यक आजीव व्यक्ति को जीवकोपार्जना हेतु पवित्र और उचित रास्ते को चुनने का मार्ग है।
6 – सम्यक् व्यायाम:
सम्यक व्यायाम से तात्पर्य ऐसे प्रयत्न से है, जो पूर्णतः शुद्ध और ज्ञान युक्त हो।
7 – सम्यक् स्मृति:
सम्यक् स्मृति से तात्पर्य है, मन, वचन तथा कर्म की प्रत्येक क्रिया के प्रति सचेत रहना।
8 – सम्यक् समाधि:
सम्यक् समाधि से तात्पर्य है, मन की एकाग्रता से हैं। चित्त (मन) की एकाग्रता के बिना सम्यक् समाधि संभव नहीं है। यह वह मार्ग था, जिसने ज्ञान चक्षु खोले, बुद्धि दी तथा जो मानसिक शान्ति, उच्चतर ज्ञान, पूर्ण मानसिक उन्नति और निर्वाण की ओर ले जाता था।
मध्यमा प्रतिपदा’ सिद्धांत का सृजन
मध्यमा प्रतिपदा दो शब्दों मध्यमा और प्रतिपदा से मिलकर बना है। मध्यमा से तात्पर्य मध्यम या बीच का तथा प्रतिपदा का अर्थ रास्ते या मार्ग से है। अर्थात् मध्यमा प्रतिपदा से तात्पर्य बीच के रास्ते या मध्यम मार्ग से है। महात्मा बुद्ध ने मध्यमा प्रतिपदा सिद्धांत का प्रतिपादन अपने गहन अनुभवों एवं चिंतन से किया था।
मध्यमा प्रतिपदा महात्मा बुद्ध के जीवन में हुई वास्तविक घटनाओं से प्राप्त ज्ञान का निचोड़ है। महात्मा बुद्ध ने अपने जीवन में राजसी वैभव, भोग – विलास आदि का अनुभव किया था। इससे उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ कि, अत्यन्त भोग – विलास से मुक्ति और निर्वाण की प्राप्ति संभव नहीं है। साथ ही, महात्मा बुद्ध ने अपने जीवन में स्वयं के शरीर को अत्यधिक शारीरिक कष्ट में झोंक दिया था और कठोर तपस्या की थी।
कठोर तपस्या के पश्चात उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ कि, अत्यधिक शारीरिक कष्ट और कठोर तप-जप से भी मुक्ति और निर्वाण की प्राप्ति संभव नहीं है। अतः महात्मा बुद्ध ने ’मध्यमा प्रतिपदा’ सिद्धांत का सृजन करके साधकों के लिए इनके बीच के रास्ते की खोज की। महात्मा बुद्ध ने अपने अनुयायियों से कहा कि, मुक्ति और निर्वाण के लिए शरीर को अत्यधिक कष्ट देने या अत्यन्त भोग – विलास की आवश्यकता नहीं है। बल्कि, मुक्ति और निर्वाण के लिए व्यक्ति को इसके बीच के मार्ग का चयन करना चाहिए। वस्तुतः दुःख निरोध हेतु प्रतिपादित आष्टांगिक मार्ग ही, मध्यमा प्रतिपदा (मध्यम मार्ग) हैं।
प्रतीत्य समुत्पाद:
बौद्ध धर्म के प्रतीत्य समुत्पाद सिद्धांत के मूल में कारणवाद या कार्य – कारण की धारणा निहित है। प्रतीत्य समुत्पाद दो शब्दों प्रतीत्य और समुत्पाद से मिलकर बना है। प्रतीत्य का अर्थ है, इसके होने से तथा समुत्पाद का अर्थ है, ऐसा होता है। तात्पर्य यह है कि, प्रत्येक बात या घटना के पीछे कोई न कोई कारण अवश्य होता है, बिना कारण कुछ नहीं होता।
वस्तुतः यह प्रत्येक वस्तु की उत्पत्ति और अनुत्पत्ति का दर्शन हैं। डॉव्म् डीव्म् एनव्म् झा एवं श्रीमाली का मत है कि, ‘‘यह नियम शाश्वत् है तथा इसके आधार पर बुद्ध ने तृष्णा को दुःख का कारण बतलाया। बौद्ध धर्म में प्रतीत्य समुत्पाद का सिद्धांत वैज्ञानिक चिंतन और तर्कवाद का उत्तम उदाहरण है। प्रतीत्य समुत्पाद सिद्धांत के मूल में बौद्ध धर्मावलंबियों के लिए संदेश हैं कि, किसी वस्तु या बात को तब तक स्वीकार्य मक करो, जब तक कि, इसके मंतव्य को न समझ लो।
निश्चित रूप से प्रतीत्य समुत्पाद का सिद्धांत बौद्ध दार्शनिकों के गहन अनुभवों एवं चिंतन का प्रतिफल है। कतिपय विद्वानों की धारणा है कि, प्रतीत्य समुत्पाद का सिद्धांत सांख्य दर्शन, वृहदारण्यक उपनिषद आदि पूर्ववर्ती दार्शनिक चिंतन से अवश्य प्रभावित हैं।
दस शील एवं आचरण:
बौद्ध दार्शनिकों ने ज्ञान और मुक्ति के मार्ग को प्राप्त करने के लिए दस शील एवं शुद्ध, विकार मुक्त आचरण के पालन करने की सलाह दी है। बौद्ध धर्मावलंबियों के लिए मुक्ति के प्रयास की सर्वप्रथम आवश्यकता शील है –
(1) अहिंसा
(2) सत्य
(3) अस्तेय (चोरी न करना)
(4) अपरिग्रह (संम्पत्ति का त्याग)
(5) ब्रह्मचर्य
(6) दुराचरण का त्याग
(7) नृत्य, गान व मादक वस्तुओं का त्याग
(8) विलासिता का त्याग
(9) असमय भोजन का त्याग
(10) कामिनी कंचन का त्याग।
उपर्युक्त प्रथम पाँच गृहस्थों के लिए एवं सभी दस शील भिक्षुओं के लिए थे, जिनके पालन से शुद्ध आचरण सम्भव हो सकता है।
क्षणिकवाद:
क्षणिकवाद बौद्ध धर्म के मूलभूत सिद्धांतों में से एक है। महात्मा बुद्ध ने संसार को क्षण – भंगुर माना है। महात्मा बुद्ध का कथन है कि, संसार की प्रत्येक वस्तु क्षणिक तथा सदैव परिवर्तनशील हैं। क्षणिकवाद सिद्धांत महात्मा बुद्ध के संसार के बारे में दार्शनिक चिंतन है। क्षणिकवाद सिद्धांत के द्वारा महात्मा बुद्ध बताना चाहते है कि, यह संसार और इसकी प्रत्येक रचना का विनाश निश्चित है। अतः मोह – माया को त्याग दो।
अनीश्वरवाद:
बौद्ध धर्म ईश्वर के अस्तित्व को नहीं मानता और नहीं सृष्टि की उत्पत्ति ईश्वर से मानता है। बौद्ध धर्म कहता है कि, सृष्टि की उत्पत्ति के लिए ईश्वर की आवश्यकता नहीं है। बौद्ध धर्म का मानना है कि, इस संसार का निर्माण ईश्वर ने किया है। संसार एवं उसकी प्रत्येक वस्तु एवं जीवन की उत्पत्ति प्राकृतिक करणों से हुई है। बौद्ध धर्म का मानना है कि, सृष्टि का उत्थान और पतन प्राकृतिक नियमों के अनुसार होता है।
अनात्मावाद:
बौद्ध धर्म आत्मा के अस्तित्व को नहीं मानता है। महात्मा बुद्ध की धारणा है कि, शरीर का निर्माण पृथक – पृथक प्रकार के विविध तत्वों से हुआ है और शरीर के ये तत्व मृत होने पर प्रकृति में विलीन हो जाते है। अतः शरीर के निर्माण और संचालन में आत्मा की कोई भूमिका नहीं है। महात्मा बुद्ध ने आत्मा के विषय पर चर्चा को निरर्थक माना।
महात्मा बुद्ध ने हमेंशा आत्मा के विषय एवं अस्तित्व के बारे में पूछे गये प्रश्नों के उत्तरों को टालना ही उचित समझा। बौद्ध धर्म ग्रंथ मज्झिम निकाय के सब्बासव सुत्तन्त में उल्लेखित है कि, बुद्ध ने आत्मा के विषय पर विचार करना मना किया था, उन्होंने इसे ‘‘अमनसिकरणीय’ धर्म बताया हैं।
कर्म एवं पुनर्जन्म:
महात्मा बुद्ध ने बौद्ध धर्म को कर्म प्रधान बनाने के लिए कर्म एवं पुनर्जन्म के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया था। महात्मा बुद्ध का उपदेश है कि, कर्म प्रतिफल का कारक है। मनुष्य जैसा कर्म करेगा उसे वैसा ही फल मिलेगा। मनुष्य के कर्मानुसार ही उसे सुख – दुःख मिलता हैं।
बौद्ध धर्म ग्रंथ मज्झिम निकाय में उल्लेखित है कि, अपने कर्मों के आधार पर मनुष्य अच्छा – बुरा जन्म पाता हैं। आत्मा के अस्तित्व के अभाव में कर्मानुसार जन्म किसका होता है ? कौन फल भोगता हैं ? बौद्ध धर्म में इसका प्रतिवाद द्वीप शिक्षा से दिया गया है, जो अन्य दीप की शिखा को प्रज्जवलित करके स्वयं बुझ जाती है। दोनों में कार्य – करण का संबंध है।
मिलिन्दपन्हों में नागसेन इस प्रश्न का उत्तर देता है – ‘एक जन्म की अंतिम चेतना के विलय होते ही, दूसरे जन्म की प्रथम चेतना का उदय होता है, बिना किसी व्यवधान के।’ किन्तु यहाँ यह ध्यान देने योग्य बात यह है कि, पुनर्जन्म का यहां पर यह अर्थ यह नहीं समझना चाहिए कि, आत्मा का एक शरीर से दूसरे शरीर मे प्रवेश हो सकता है।
वेद, कर्मकांड एवं जाति में अविश्वास:
महात्मा बुद्ध ने ब्राह्मण धर्म की मूलभूत स्थापनाओं वेद, वैदिक कर्मकांडों एवं जाति व्यवस्था पर करार प्रहार किया। महात्मा बुद्ध ने वेदों की प्रामाणिकता को अस्वीकारते हुए इन्हें ईश्वर कृत नहीं माना। वस्तुतः वेद एवं वैदिक मंत्र महात्मा बुद्ध की दृष्टि में केवल जलविहीन मरूस्थल तथा पंथहीन जंगल के समान थे।
महात्मा बुद्ध ने ब्राह्मण धर्म के कर्मकांडों, यज्ञ पशुबलि तथा जात – पांत के भेद को अस्वीकारते हुए समानता पर बल दिया। महात्मा बुद्ध ने बौद्ध धर्म के द्वार सभी जातियों एवं सभी प्रकार के व्यक्तियों के लिए खोल दिए थे। महात्मा बुद्ध ने समतामूलक समाज की परिकल्पना की थी।
अहिंसा:
अहिंसा बौद्ध धर्म के मूलभूत सिद्धांतों में से एक है। वस्तुतः अहिंसा का सिद्धांत बौद्ध धर्म के आधार स्तम्भ के समान है। महात्मा बुद्ध प्राणी के लिए दया, करूणा और प्रेम के सागर के समान थे। वे प्राणी के प्रति किसी भी प्रकार के कष्ट या जीव हत्या के मौलिक रूप से विरोधी थे। वस्तुतः महात्मा बुद्ध अहिंसा के पुजारी थे। उन्होंने अपने संपूर्ण जीवन में ’अहिंसा परमोधर्म’ के सिद्धान्त का उन्होंने प्रचार – प्रसार किया।
निर्वाण:
निर्वाण का सिद्धांत बौद्ध धर्म का आधारभूत सिद्धांत है। बौद्ध धर्म के समस्त धार्मिक सिद्धांतों एवं क्रियाकलापों का अंतिम परम् लक्ष्य निर्वाण है। निर्वाण का शाब्दिक अर्थ ‘बुझ जाना’ या जीवन की समस्त कामनाओं – लालसाओं से मुक्ति, दुःख का अंत, पुनर्जन्म से मुक्ति है। निर्वाण की स्थिति पूर्णतया शान्त, स्थिर, आसक्ति एवं तृष्णाविहीन होती है। वस्तुतः निर्वाण का अर्थ अज्ञान रूपी अंधकार का दूर होना है तथा ज्ञान युक्त परमसुख की स्थिति में पहुंचना हैं। निर्वाण प्राप्त व्यक्ति को ‘अर्हत्’ कहा जाता है। बौद्ध धर्म में निर्वाण व्यक्ति के जीवनकाल में ही प्राप्त होता है, मरने के बाद नहीं। महात्मा बुद्ध ने निर्वाण का अर्थ, ’परम् ज्ञान’ बताया है। महात्मा बुद्ध ने अपने जीवनकाल में ही निर्वाण प्राप्त किया था।