एक ऐसी Aap Biti जब रिक्शा चालक ने लेखक के पैर छू लिए। उसकी आंखें नम हो आईं। हृदय से दुआ देते वह कुछ कह रहा था जिसे अनमना-सा करता लेखक ‘‘ठीक है, ठीक है, अपना ध्यान रखना भाई।’’ कहता अस्पताल से बाहर खुली दवा की दुकान की ओर बढ़ गया, जहां से वह शेष बचे पचास रुपये से अपनी धर्मपत्नी की दवा खरीद सकता था।
किरदारों को समझना, परखना तो लेखक का काम है
साइकिल का पिछला टायर पंचर हो चुका था। वह अब क्या करे? इतनी देर रात गये पंचर बनाने वाले की दुकान का खुला होना नामुमकिन था। वह वापस पुस्तक मेले के उस स्टाल में जा पहुंचा, जहां से कुछ देर पहले वह अपनी बिकी हुई किताबों का हिस्सा स्टाल मालिक से प्राप्त कर साइकिल स्टैंड पर आया था। स्टाल का व अपना कमीशन काट कर कुल जमा एक सौ साठ रुपये, उसकी खाली जेब में पहुंचाए थे।
स्टाल बंद होने जा रहा था। मालिक ने बिना किसी हुज्जत के साइकिल स्टाल में पीछे बने तम्बू में रखने के लिए नौकर से कह दिया। उसे साइकिल में चेन व ताला लगाते देख नौकर अपनी खींसें निपोरते उसे अजूबे की तरह देखते मुस्करा रहा था, जैसे कह रहा हो, कैसी विडम्बना है इन साहित्यकारों के साथ। इन बेचारों की लिखीं किताबें उसका सेठ बेचकर अपनी तोंद बढ़ाए जा रहा है और कार में चलता है, दूसरी ओर ये सरस्वती पुत्रा रायल्टी के चन्द पैसों से अपना घर-बार और पुरानी साइकिल चलाते हैं। नौकर की मनःस्थिति भांपते उसे पलभर भी नहीं लगा।
स्वयं से खिसियाया सा वह पुस्तक मेले से बाहर मुख्य सड़क पर अपना थैला कन्धे पर लटकाए आ गया। लोग अपने-अपने निजी साधनों से अपने-अपने घरों को लौट रहे थे। रिक्शे वाले जो उसकी ओर देख ही नहीं रहे थे, उसके पूछने पर बेरुखी से बोले, ‘‘रिक्शा खाली नहीं है’’ जैसे वे उसे जानते हों। ‘टुटल्ली-सी साइकिल पर झोला लटकाए घूमने वाला ये फक्कड़ लेखक भला रिक्शे की सवारी करेगा, अरे रिक्शे की सवारी करने वाले दूसरे किस्म के लोग होते हैं, उस जैसे नहीं जो किराया पूछने और तय करने में वक्त बरबाद करते हैं।
उसने रिक्शे वालों की समवेत इच्छा जान हिम्मतकर कहा भी, ‘भाई! जो किराया बने, ले लेना।’ पर वहां खड़े तीनों-चारों रिक्शे वालों ने उसे तवज्जो नहीं दी और मेला मैदान से आ रही किसी अच्छी सवारी की ओर ध्यान लगा लिया। मन मारकर उसने घर पैदल जाने की ठान ली जो मेला मैदान से पांच किलोमीटर दूरी पर था। उसने रिस्ट वाच पर दृष्टि दौड़ाई, रात के ग्यारह बजने को थे। पैदल चलने पर पूरे बारह बजेंगे उसे घर पहुंचते। पैदल चलना उसके लिए कोई बड़ी बात नहीं थी।
अक्सर वह पैदल ही तो चलता रहता था, परन्तु इस समय रात में दिनभर का हारा-थका शरीर आराम से घर पहुंचना चाहता था जिसके लिए वह पन्द्रह रुपये तक रिक्शे वाले को देने को तैयार था। चलो जो होता है, अच्छा ही होता है, नाहक पन्द्रह रुपयों का खून होता, इतने में तो एक किलो आटा खरीदा जा सकता है, इस आकाश छूती महंगाई में। ऐसा ही कुछ सोचते वह पैदल ही चल दिया अपने घर की ओर।
मुख्य सड़क होने के कारण कारों की कतार उसके समानान्तर चल रही थी। सहरागंज मॉल के पास वाहनों की संख्या कुछ अधिक हो गयी थी। फुटपाथ के पास उड़ रही धूल व गाड़ियों से निकल रहे धुएं से खुद को बचाने के लिए उसने गले में सदैव शंकर जी के सांप की तरह लिपटी स्वाफी से अपना नाक-मुंह ढांप लिया।
बीवी की दवा और बेटे की स्लेट वह नहीं ले पाया था। कल जरूर ले लेगा। इस संकल्प के साथ वह तेज कदमों से अपने रास्ते बढ़ा चला जा रहा था कि करीब एक फर्लांग आगे एक रिक्शे वाले को ठोकर मारती कार तेजी से उसके पास से गुजर गयी। कुछ लोग उस रिक्शे के पास पहुंचे, वह भी लगभग भागते हुए दुर्घटनास्थल तक पहुंचा। रिक्शे वाले को सड़क के पास बिल्डिंग के गार्ड ने उठाकर बैठा दिया था। रिक्शा चालक के सिर व पैर में चोट आई थी। दोनों जगहों से खून निकलकर फैल गया था।
कुछ ही पलों में तमाशा-सा देखने वाले चन्द लोग अपने-अपने रास्ते बढ़ गये। उसने अपनी स्वाफी से रिक्शा चालक के चोटिल सिर को लपेटकर बहता खून बंद किया। दाहिने पैर के पास कोई नुकीली चीज गड़ गयी थी जिससे खून निकल रहा था और उसे चलने में दिक्कत कर रहा था। शायद पैर में मोच भी आई थी या फिर फ्रैक्चर हुआ था।
रिक्शा चालक कराहते हुए बोला, ‘‘बाबूजी बच्चे घर में भूखे हैं, हे भगवान! क्या हो गया?’’ वह अपने घाव से ज्यादा अपने टूटे रिक्शे को देख दुःखी हो रहा था जिसका सीधा सम्बन्ध उसकी रोजी-रोटी से जुड़ा था। शारीरिक कष्ट-दर्द से अधिक उसे अपने बच्चों की चिन्ता थी। संवेदनशील लेखक को यकायक अपने बच्चों की याद आई, साथ में बीमार पत्नी की दवा और बेटे की स्लेट भी। टूटा रिक्शा बिल्डिंग के गार्ड के हवाले कर एक खाली रिक्शा वाले को रोक वह स्वयं उस घायल रिक्शा चालक को अपने साथ लेकर श्यामा प्रसाद मुखर्जी अस्पताल की इमरजेंसी में आ गया।
आनन-फानन में उस रिक्शा चालक की चिकित्सा शुरू हो गयी। उसे टिटनेस का इंजेक्शन लगाया गया। सिर व पैर में दवा लगाकर पट्टी की गयी। गनीमत कि उसके पैर में फ्रैक्चर नहीं हुआ था। मोच आई थी। कराहता रिक्शा चालक अपने भूखे बच्चों को यादकर बार-बार रुआंसा हो जा रहा था। लेखक का मन बराबर उस कार चालक के लिए लानत भेज रहा था जो उस बेचारे के रिक्शे को ठोकर मार भाग निकला था। कम से कम रिक्शा की मरम्मत व उस गरीब को इलाज के वास्ते कुछ पैसा तो दे दिया होता।
आधे घंटे बाद रिक्शा चालक को छुट्टी मिल गयी। रिक्शा चालक की आंखों में लेखक के प्रति कृतज्ञता झलक रही थी। लेखक को कुछ समय पूर्व के वे रिक्शे वाले याद आ गये जिन्होंने उसे अपने रिक्शे में नहीं बैठाया था। ‘‘बाबूजी! आप देवता हैं मुझे यहां ले आए…दो दिन से बुखार में रहने के बाद रिक्शा निकाला था। पहली सवारी मिली थी। वह भी बिना कुछ दिए भाग गई, बच्चे भूखे हैं।’’ लेखक ने उसके कथनों में सत्यता देखी। दूसरों को समझना, परखना तो लेखक का धन्धा है।
रिक्शा चालक का शरीर उसे गरम लग रहा था। ‘‘बुखार तो तुम्हें अब भी है शायद।’’ लेखक ने उसका बदन छूते कहा। ‘पैरासिटामाल दी है, टाइम से खाना, बुखार उतर जाएगा।’’ पास से गुजरते कम्पाउंडर ने रिक्शा चालक की कलाई एक पल के लिए पकड़ी और परे झटक दी।
लेखक ने अपने कुर्ते की जेब में हाथ डाला, एक सौ का नोट घायल रिक्शा चालक के हाथ पर रख दिया और दस रुपये उस रिक्शेवाले को दिए जो उन्हें लेकर आया था, ‘‘लो भैया बच्चों के लिए कुछ खरीद लेना और अस्पताल आकर अपना इलाज कराते रहना। यहां दवा और इलाज दोनों मुफ्त हैं।’’
रिक्शा चालक ने लेखक के पैर छू लिए। उसकी आंखें नम हो आईं। हृदय से दुआ देते वह कुछ कह रहा था जिसे अनमना-सा करता लेखक ‘‘ठीक है, ठीक है, अपना ध्यान रखना भाई।’’ कहता अस्पताल से बाहर खुली दवा की दुकान की ओर बढ़ गया, जहां से वह शेष बचे पचास रुपये से अपनी धर्मपत्नी की दवा खरीद सकता था।
बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)
कथाकार – महेंद्र भीषम