Kisi Shahar Ki Koi Rat किसी शहर की कोई रात

Photo of author

By admin

‘ट्रिन-ट्रिन-ट्रिन…ट्रिन…ट्रिन…’Kisi Shahar Ki Koi Rat और रात के सन्नाटे को चीरती टेलीफोन की घंटी भयावह लग रही थी। इतनी रात गये किसका फोन होगा।’ कुसुम का हृदय धक से रह गया, ‘पापा हृदय रोगी हैं…कहीं हे भगवान!’ बेटे का हाथ अपनी छाती से हौले से हटाया। मच्छरदानी से पहले पैर बाहर निकाले। ड्रेसिंग टेबिल के पास स्टूल पर रखा टेलीफोन अभी भी घनघना रहा था। मयंक भी घर पर नहीं थे। वह अपने टुअर से परसों वापस आने वाले थे। कुसुम ने धड़कते हृदय से फोन का क्रेडिल उठाकर अपने कान

पर लगाया। दूसरी ओर से आवाज आई, ‘‘आप रुचिका अपार्टमेंट फ्लैट नम्बर आठ सौ दो से बोल रही हैं?’’

‘‘जी हां।’’ कान के रास्ते कुसुम के हृदय पर हथौड़े पड़ने लगे, दूसरी ओर से कोई बोले जा रहा था, ‘‘आपके हसबैंड की रोड एक्सीडेंट में मृत्यु हो गई है, लाश थाना कर्नेलगंज में रखी है।’’ आगे के शब्द कुसुम को सुनाई दिए या नहीं, वह बेसुध होकर वहीं गिर पड़ी। मूर्च्छा के उत्तरार्द्ध में कुसुम को फोन का आना स्वप्न-सा ‘ऐसी हृदय विदारक सूचना। काश! यह स्वप्न ही हो…’ सोचते-सहमते कुसुम ने अपनी आंख खोलीं, उसने स्वयं को फर्श पर दीवार से टिकी अधलेटी अवस्था में पाया। फोन का क्रेडिल अब भी स्टूल से नीचे झूल रहा था।

यानी स्वप्न नहीं, फोन हकीकत में आया था। कुसुम की स्थिति किंकर्तव्यविमूढ़ सी हो गयी। सबसे पहले उसने बेटी आस्था को सोते से जगाया। आस्था के जगते कुसुम बेटी से लिपटकर पहली बार दहाड़ मारकर रो पड़ी। आस्था असमंजस में अपनी आंखें मलती मां को देखने लगी, तभी उसका चार वर्षीय अनुज राहुल जागते ही मां को रोता देख बिना कारण जाने रुदन करने लगा। पापा की दुःखद मौत का संज्ञान पाते ही किशोरी आस्था स्तब्ध रह गयी, मां से लिपटी वह फूट-फूटकर रोने लगी।

कुछ पल पहले शांत फ्लैट में कोहराम मच गया। महानगर के सम्भ्रात इलाके में स्थित रुचिका अपार्टमेंट के आठवें माले में कुसुम अपने परिवार के साथ रहती थी। पति मयंक प्राइवेट कम्पनी में एक्जीक्यूटिव था। उसे कम्पनी के कार्य से बाहर जाना पड़ता था। इसी बात को लेकर पति-पत्नी में अनबन रहती थी और पिछले टुअर से आने के बाद दोनों में बोल-चाल बंद थी।

बेटी आस्था सकारात्मक सोच रखती थी। वह अपने मम्मी-पापा को परस्पर झगड़ा करते देख हँसती और दोनों को समझाती, फिर उनका मेल करा देती। पति तो पति होता है, उसके बिना कितनी बड़ी रिक्तता हो जाती है जीवन में, सब कुछ सूना-सूना हो जाता है। निःसार…काश फोन की सूचना झूठी हो।

रोते बच्चों को आंचल में समेटे कुसुम विलाप करने लगी, दुःख का पहाड़ टूट पड़ा था उस पर। बेटी आस्था का रो-रोकर बुरा हाल था। बेटा राहुल हिचकियां लेते रो रहा था। कुसुम ने उसे धीरज रखते पानी पिलाना चाहा, तभी फोन की घंटी पुनः बजी। आस्था फोन के पास जाने के लिए बढ़ी। कुसुम ने राहुल को दो घूंट पानी पिलाया। राहुल की हिचकियां रुक गयीं।

कुसुम ने उसे अपनी गोद में बैठाकर छाती से लगा लिया। ‘‘पापा!’’ आश्चर्य में आस्था की हर्ष-मिश्रित आंखें फैलती गयीं, वह चहकती हुई बोली, ‘‘पापा…फ्लैट के बाहर हैं आप…मम्मी! पापा गेट पर खड़े हैं, दरवाजा खोलिए, मैं आ रही हूं पापा।’’ अपनी जगह से उछलती-कूदती सी आस्था पलभर में फ्लैट के मुख्य दरवाजे पर आ गयी। राहुल को गोद में लिए कुसुम भी बेटी के पीछे-पीछे बदहवास-सी चली आई।

आस्था द्वारा दरवाजा खोलते ही सामने मयंक को सूटकेस पकड़े साक्षात् खड़ा देख कुसुम को सहज अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ। वह आश्चर्य से पति की ओर देखती रह गयी। ‘‘अरे भई अन्दर नहीं आने दोगी क्या? दरवाजे से हटो भी।’’ मयंक कुसुम को लगभग ठेलते हुए फ्लैट में प्रविष्ट हुआ। आस्था की रुलाई पापा को देख पुनः फूट पड़ी। वह अपने पापा से लिपटते-उलाहने देती, उनके सीने पर हौले-हौले मुक्के मारने लगी।

राहुल अपनी मां की गोद से नीचे उतर अपने पापा की टांगों से लिपट गया। मयंक की कुछ समझ में नहीं आ रहा था। असमंजस की स्थिति में उसने बेटे को गोद में लेकर पत्नी की ओर प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा, कुसुम गुस्से से उसकी ओर देखती, अंदर बेडरूम की ओर चली गयी। फ्लैट का दरवाजा अंदर से बंदकर मयंक दोनों बच्चों के साथ बेडरूम में आ गया। कुसुम बड़े होते बच्चों का लिहाज छोड़ पति से लिपट गयी और फूट-फूटकर रोने लगी।

मयंक कुछ समझ नहीं पा रहा था कि आखिर इन सबको हुआ क्या है? उसका टुअर से जल्दी आना…फ्लैट की बेल बजाना, बेल का न बजना, फिर फोन मिलाना, बेटी के द्वारा दरवाजा खोलते ही सभी का अस्वाभाविक बर्ताव उसे घोर असमंजस में डाल रहा था। कुसुम से सारी बातें जानने के बाद पहले तो मयंक हँस दिया, फिर धीरे से गम्भीर हो पत्नी व बच्चों को अपनी बांहों के दायरे में समेट चूमने लगा। हर्षातिरेक में पत्नी व बच्चे रोए जा रहे थे। बड़ी मुश्किल से मयंक ने सभी को मनाया, साथ में लाई मिठाई खिलाकर पानी पिलाया, धीरे-धीरे वे सब संयत हुए।

किसी की शरारत या गलत फोन डायल कर देने से कुछ देर के लिए ही सही, कुसुम के चारों ओर दुख और विषाद की जो चादर-सी खिंच आई थी, वह पति मयंक के आ जाने से तिराहित हो चुकी थी, ठीक वैसे ही जैसे सूरज के आ जाने से कोहरे का अस्तित्व समाप्त हो जाता है।

बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)

कथाकार -महेंद्र भीष्म

Leave a Comment

error: Content is protected !!