बुंदेलखण्ड के काव्य ग्रंथ और Bundelkhand Ka Niguniya Lok Kavya के रचयिता कवियों पर निरगुनिया दर्शन और चिन्तन का प्रभाव 15 वीं शती के पूर्वार्द्ध से ही शुरू हो गया था। विष्णुदास, नारायणदास, साधन, चतुर्भुजदास निगम और मेघनाथ की कृतियाँ साक्षी हैं कि योग और हठयोग का चिन्तन लोकप्रिय हो गया था।
जायसी को छोड़कर शेष कवि बुंदेलखण्ड के ही थे, जिससे इस जनपद में निरगुनिया लोकभक्ति के प्रसार का पता चलता है। निरगुनिया लोकभक्ति मे काया को गढ़ के बाजार के रूपक में परिगणित किया गया है। बाजार में साहूकार और चोर दोनों रहते हैं, जो काया के लाल, जवाहर जैसे रत्नों का सौदा करते हैं। काया में ही काजी मुल्ला और पण्डित, दोनों भक्ति करते हैं। काया में ही ईश्वर (धनी) विराजते हैं, जिन्हें हम देख नहीं पाते।
काया गढ़ भरो बजार, सौदा कर लेव रे।टेक।।
जा काया में हाट लगाकें बैठो साहूकार
जा काया में चोर फिरत हैं लुच्चा ढीट गँवार।टेक।।
जा काया में लाल जवाहर रतन की खान अपार
जा काया में हीरा मोती परखें परखनहार।टेक।।
जा काया में काजी मुल्ला देबै बाँग पुकार।
जा काया में बेद पाठकर पंडित करत बिचार।टेक।।
जा काया में धनी बिराजे तिनका ओट पहार
कहै कबीर सुनो भई साधो जेई में गुरू हमार।।टेक।।
उक्त पद में साहूकार, चोर, रत्न की खान, रत्नों का जौहरी, काजी, पण्डित, धनी और गुरू सभी प्रतीक हैं, जो काया को महत्वपूर्ण सिद्ध करते हैं। लेकिन यह काया क्षणभंगुर है, इसलिए उसे यत्नपूर्वक रखना जरूरी है। काया की उपमा पुरानी चादर से दी गयी है, जो पापों के दागों से मैली हो गयी है। पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं-
भई खराब अब गयी सबरी लोभ मोह में सानी।
येसी ओड़त उम्र गमा दई भली बुरी ना जानी।।
संका मान जान जिय अपने जे हैं चीज बिरानी।
कहे कबीर जतन से राखो फिर कें हाँथ न आनी।।
असल में, सारी गड़बड़ी चंचल मन से होती है। उसे वश में करना कठिन है। एक भजन में कहा गया है कि मन घोड़ा हो, तो उसे चाबुक मार कर और हाथी हो, तो अंकुश लगाकर नियंत्रित किया जाय। सोना हो, तो सुनार बुलाकर सुरत-निरत की फूँक से पानी की तरह पिघला लिया जाय और लोहा हो, तो लुहार बुलाकर भट्टी में रखकर हथोड़े की चोटों से लम्बा तार खिंचवा लूँ।
ज्ञानी मिले, तो ज्ञान बताकर सत के मार्ग पर ले चलें। आशय यह है कि सतगुरू ही अपने ज्ञान से मन को सत् तक पहुँचा सकता है। बाधा है माया, जो ऋषियों-मुनियों और ब्रह्मा-विष्णु तक को नहीं छोड़ती। फिर साधारण आदमी की क्या हस्ती। लोककवि ने माया को बिल्ली मानकर भजन लिखा है जो यहाँ प्रस्तुत है.. ।
बाबा भागो बिलैया झपटी।टेक।
चंदा पै झपटी सूरज पै झपटी, तारन पै घात लगायें दारी नकटी।टेक।।
गंगा पै झपटी जमना पै झपटी, सरजू की घात लगायें दारी नकटी।टेक।।
ब्रह्मा पै झपटी बिस्नू पै झपटी, नारद मुनी खों लगाय गई पटकी।टेक।।
इंदर खों झपटी फनीन्दर खों झपटी, स्रंगी रिसि के सीस पै मटकी।टेक।।
गोरख खों झपटी व्यास खों झपटी, बिस्वामित्र के गरे में अटकी।टेक।।
रामा पै झपटी किस्ना पै झपटी, संकर जू के गरे सें लटकी।टेक।।
कहै कबीर सुनो भई साधो, संत समाज देखकें सटकी।टेक।।
माया से बिलग होने में ही वैराग्य की भूमिका है। सतगुरू के ज्ञान से ही ईश्वर रूपी सैयाँ से मिलन संभव है। बिना आत्मज्ञान के सैयाँ की पहचान नहीं होती। मिलन की दशा और उसके यत्न में कई उदाहरण हैं, पर चुनी हुई पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं.. ।
बता देव साँची गुइयाँ मोये कब मिलहैं मोरे सैयाँ।
पिय अपने खों चीनत नइयाँ कौना की पकरों बैयाँ।।
पानी में मीन प्यासी, मोये सुन सुन आबै हाँसी।
आतम ग्याँन बिना नर भटके कोउ मथुरा कोउ कासी।
जैसें मृगा नाभि कस्तूरी बन बन फिरे उदासी।
कर लेव जतन सखि साईं मिलन की।
ऊँचो महल अजब रंग बँगला, साईं की सेज जहाँ फूलन की।
तन मन धन सब करकें निछावर, सुरति सँभार पर पइयाँ सजन की।
कहें कबीर निरभय हो हंसा कुची बता दई तालो खोलन की।।
मोरे पूरन जनम के भाग री, मोय पिया मिले फागुन में।
जो तुम पाग रंगों पिया रंग में, हमहूँ चीर रंगे तुमरे रंग में,
हम तुम हो जायें एकई रंग में,
धब्बा रहे न दाग री, मैं हो जाओं निरदागन में।मोरे।।
पहले उदाहरण में भक्त को ईश्वर की पहचान नहीं है। लोकभक्ति में भक्त नारी रूप में है और ईश्वर पुरूष रूप में, इसीलिए ईश्वर को सैयाँ (पति) कहा गया है। दूसरे उदाहरण में पानी के बीच रहकर मछली के प्यासे रहने को हास्य का कारण माना गया है, क्योंकि बिन आत्मज्ञान (अपने को न जानने से) के लोग तीर्थों में ईश्वर को खोजते हैं।
जिस प्रकार मृग के नाभि में कस्तूरी है, पर वह उसकी खोज में बनों में फिरता है और न मिलने पर निराश होता है, और न मिलने पर निराश होता है, उसी प्रकार ईश्वर व्यक्ति की देह में ही रहता है और व्यक्ति उसे नहीं जानता।
तीसरे में हंस रूपी जीव को रहस्य का भेद बताकर लोककवि कहता है कि ब्रह्म ऊँचे महल में फूलों की सेज पर विश्राम करता है। भक्त का तन-मन-धन, सब समर्पित कर साजन के चरणों को स्पर्श करना जरूरी है। पूर्ण समर्पण ही मिलन का पहला सोपान है।
चैथे में लोककवि मिलन की दशा का वर्णन करता है। पूर्व जन्म के भाग्य से ही प्रियतम का मिलन हुआ है। भक्त और ईश्वर का एक रंग में हो जाना पूर्ण तादात्म्य की स्थिति है। ऐसे मिलन में कोई धब्बा या दाग नहीं रहता। इस रूप में मिलन की दशा का वर्णन लोकसहज बन पड़ा है। इस प्रकार निरगुनिया लोकभक्ति का एक संश्लिष्ट चित्र उभरकर छा गया है और यह लोकचित्र लोकभजनों के माध्यम से ही लिखा गया है।
संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल