बुन्देलखण्ड के साहित्यकार Rajeev Namdev ‘Rana Lidhauri’ Ki Rachanayen बुन्देली संस्कृति की अद्भुत रचनाएं हैं जिन्हे जनमानस का असीम प्रेम मिला। राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’ की रचनाएं जन मानस के बहुत करीब हैं ।
बुंदेली दोहे-राना के ‘अलंकारमय दोहे’
दिखी दलइया द्वार पे, दादी देत असीस।
दूल्हा दम सादे खड़ौ,सास दांत रइ पीस।।
दिव्य दृष्टि से देखिए, दिखे दिव्य दरवार।
दवा,दुआ औ दान से, देव करे उद्धार।।
छिद्दू पैरे छींट की बुस्सट छपकादार।
जींस छेद है छूँछना, छैला छेड़े यार।।
संभु शिखर शिवरात्रि में, लेकर शंख त्रिशूल।
शंकर संग बरात में भांग सोम रस मूल।।
मुखिया मुँह मोड़ नईं, ममता एक समान।
मसकउ मसकउ मसकारी करवें मांगीलाल।।
भीरी भीर भटकत फिरे, भैराने से भोज।
भजन कर रय भोज खौ,भजनलाल उठ भौर।।
पर्यावरण
ऐसे ही सुधरा रहे, पर्यावरण जनाब।
प्रदूषण को बढ़ा सभी, करो न इसे खराब।।
महानगर बनने लगे, अब तो सारे गाँव।
ढूँढ़े से मिलती नहीं, वृक्षों की अब छाँव।।
जन्म दिवस पर रोपना,पौधरोपण काज।
हरियाली छाती रहे, खुश हो सकल समाज।।
बृक्षारोपण की प्रथा, होती है हर वार।
कागज पर ही लग गए, पौधे कई हजार।।
वृक्षारोपण जो करे वह करता उपकार।
बदले में फल-फूल का, मिलता है उपहार।।
वाणी ऐसी बोलिये, सम्मोहित हो जाय।
अमराई के पेड़ पे, कोयल गीत सुनाय।।
बगिया तो महके सदा, ये फूलों का काम।
मधुप प्रेम करता उसे, होता क्यों बदनाम।।
महक सदा ही बाँटता, ज्यो बगिया में फूल।
काम सदा ऐसे करो, कभी न होवे भूल।।
फूल और काँटे सदा, रहे पेड़ के पास।
फूल-फल सबने चुने, काँटे रहे उदास।।
पानी सबको ही मिले, यह जीवन आधार।
इसके बिना न जी सके, येजीवन संसार।।
माटी का यह तन बना, माटी में मिल जाय।
जीवन का यह खेल है, मेटन नहीं उपाय।।
बोले माटी के दिये, मेरा इतना काम।
जलकर दिया रहूँ करूँ, इतना ही पैगाम।।
बुंदली ग़ज़ल-‘तुमाई का कानै’
कर दऔ बंटाधार, तुमाई का कानै।
बढ़ गऔं अत्याचार, तुमाई का कानै।।
खूब करौ बैपार, तुमाई का कानै।
बन गई है सरकार, तुमाई का कानै।।
दंद-भंद करकैं तौ, अपनी सीट बचाने।
तुम भौतई मक्कार, तुमाई का कानै।।
रोज नई-नई घात, बनाकें मींठी बातें।
करत पीठ पै बार, तुमाई का कानै।।
परी है मेंगाई की मार, तुम रऔ चिमाने।
मच रई हा-हाकार,तुमाई का कानै।।
जा अकल तुमाई सोऊ, ठिकानै आजै।
जब हो जै बहिष्कार, तुमाई का कानै।।
भटक रय ‘राना’ रोजी-रोटी के लानै।
हो गय है बेकार, तुमाई का कानै।।
बुन्देली कविता- मंच कौ कवि…
जीखौं बोलवे और लिखबें कौ अटकर तक नइँया।
बेई अब अपने चमचे और चेला बना रय।
बन्न-बन्न के कुर्ता पैरकैं, मुछें मुढ़ा रय।।
बेई अब तो मंचन पै कब्जा जमा रय।
कछु जने तो बिनई पी.एच.डी. करे डॉक्टर कहा रय।।
तो कछु जने बिहार से ‘डॉक्टरी’ ला रय।
असली डॉक्टर तो अब घरे दिखा रय।।
नकली जितै देखो तिली से उतरा रय।
असली इने देख कै अब तो शरमा रय।।
हमई ने इनै कवि बनाओ, हमई खों जे सिखा रय।
भाषा और बोली का कने, सबरी लुटिया डुबा रय।।
कालेज के प्रोफेसरो को,पकर-पकर कैं जबरन कवि बना रय।
व्टास्ऐप पें गु्रप बना के,ठलुअन कौ एनई उल्लू बना रय।।
चुटकुलें सुना-सुनाकै पैइसा तान ला रय।
कुएँ के जे मेंढ़क है बस इतई टर्रा रय।।
नेतन की चमचगिरी करके एनई गर्रा रय।
भाटगिरी करके खूबई गुलछर्रे उड़ा रय।।
पगड़ी बांद-बांद कंे,उने टोपी पैना रय।
हमने कई तो गुर्रा रय, हमने कई तो गुर्रा रय।।
हाइकु कविता-2
दिल के रिश्ते,
गलत फहमी से।
टूट ही जाते।।।
दिल के रिश्ते,
टकराते अहम।
बिखर जाते।।
दिल के रिश्ते,,
दौलत की ख़ातिर,
बिगड़ जाते।।
दिल के रिश्ते,
ग्रहलक्ष्मी के आते।
महक जाते।।
दिल के रिश्ते,
प्यार के बंधन से।
जुड़ ही जातेे।।
दिल के रिश्ते,,
बेटे,सास,बहू में।
रोज़ लड़ातेे।।
हिन्दी सहेली,
अंग्रेजी अलबेली।
उर्दू पहेली।।
भाषा सुहानी,
भारत की है शान।
हिन्दी है रानी।।
ज्ञान बढ़ाएँ,
वे होती लाजबाब।
पढ़ें किताब।।
ज्ञान सरिता,
जो सबको दिशा दे।
वही कविता।।
करो गंभीर,
चिंतन औ मनन।
फिर सृजन।।