Chol Sanskriti Me Dharmik Dasha चोल कालीन संस्कृति मे धार्मिक दशा

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Chol Sanskriti Me Dharmik Dasha
Chol kalin Sanskriti Me Dharmik Dasha चोलकालीन संस्कृति मे धार्मिक दशा

चोल राजाओं के समय में तमिल प्रदेश में Chol Sanskriti Me Dharmik Dasha के अंतर्गत शैव तथा वैष्णव धर्मों का बोलबाला रहा। शैव नायनारों तथा वैष्णव आचार्यों ने इन धर्मों के प्रचार-प्रसार के लिए व्यापक आंदोलन चलाया। इन में भी शैव धर्म अधिक लोकप्रिय था। शिव की उपासना के लिए भक्तिगीत लिखे गये थे। चोलवंश के अधिकांश शासक उत्साही शैव थे जिन्होंने भगवान शिव के अनेक मंदिरों का निर्माण करावाया था।

प्रसिद्ध चोल सम्राट ने ‘शिवपादशेखर’ नाम से शिव का प्रसिद्ध मंदिर बनवाया। उत्तराधिकारी राजेन्द्र चोल के समय निर्माण कार्य पूरा हुआ। शासक कुलोत्तुंग प्रथम शिव अनन्य उपासक था। कुलोत्तुंग द्वितीय के बारे में कहा जाता है कि शिव के प्रति अतिशय भक्ति के कारण उसने चिदम्बरम् मंदिर में रखी गयी गोविन्दराज विष्णु की मूर्ति उखाड़कर समुद्र में फिंकवा दिया था।

चोल शासकों के उत्साह को देखकर उनके राज्य की प्रजा ने भी शैव धर्म को ग्रहण किया। चोल शासकों ने शैव संतों को ही अपना राजगुरू मनोनित किया था। इस प्रकार इस धर्म ने व्यापक जनाधार प्राप्त कर लिया। राजराज प्रथम के समय में ईशानशिव राजगुरू नियुक्त किये गये थे। प्रशासन पर इनका व्यापक प्रभाव था।

शैव धर्म के साथ चोलकालीन समाज में वैष्णव धर्म का प्रचार हुआ। इस समय वैष्णव आलवरों का स्थान आचार्यों ने ग्रहण कर लिया। आचार्य तमिल तथा संस्कृत दोनों ही भाषाओं के विद्वान थे उन्होंने दोनों ही भाषाओं में वैष्णव सिद्धान्तों का प्रचार किया। आचार्य परम्परा में सबसे पहला नाम नाथमुनि का लिया जाता है। उन्होंने अलवरों के भक्तिगीतों को व्यवस्थित किया। न्यायतत्व की रचना का श्रेय उन्हें दिया जाता है। प्रेममार्ग के दार्शनिक औचित्य का प्रतिपादन किया। आचार्य परम्परा में रामानुज का नाम सर्वाधिक उल्लेखनीय है। उनका समय 1016-1137 ई. माना गया है।

कांची के पास श्रीपेरूम्बुन्दर में जन्मे इस आचार्य को तिरूकोट्टियूर में महात्मा नाम्बि में इन्हें ‘ऊँ नमो नारायण’ नामक अष्टाक्षर मंत्र दिया। उन्होंने ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखा जिसे ‘श्रीभाष्य’ कहा जाता है। शंकर के अद्वैतवाद का खण्डन करते हुए रामानुज ने प्रतिपादित किया कि ब्रह्म अद्वैत होते हुए भी चित् (जीव) तथा अचित् (प्रकृति) शक्ति द्वारा विशिष्ट होता है। मोक्ष के लिए ज्ञान के स्थान पर भक्ति को तथा प्रपत्ति को आवश्यक बताया जिससे प्रसन्न होकर ईश्वर मोक्ष प्रदान करता है। वह सगुण ईश्वर में विश्वास करते थे।

यद्यपि चोल काल में शैव व वैष्णव धर्मों का ही व्यापक प्रचार था तथापि इस काल को धार्मिक असहिष्णुता का काल नहीं कह सकते। चोल शासक धर्म सहिष्णु थे उनके राज्य में बौद्ध एवं जैन भी निवास करते थे। कुलोत्तुंग प्रथम ने नेगपत्तम् के विहार को दान दिया था। जैन मंदिरों की भूमिकर माफ किये गये। बाद में आस्तिक धर्मों के प्रचलन के कारण वैदिक यज्ञों, कर्मकाण्डों का स्थान मूर्तिपूजा ने ले लिया।

मंदिरों में मूर्तियां स्थापित की गयी जहां भक्तगण देवी-देवताओं की उपासना किया करते थे। तीर्थ यात्रा पर जाते, दान देते आदि। पौराणिक धर्मों के साथ इस समय तांत्रिक, शक्ति इस प्रकार चोल राजाओं की व्यक्तिगत रूचि तथा संतों व आचार्यों के परिणामस्वरूप चोलकाल में शैव व वैष्णव धर्मों का पुनरूत्थान हुआ तथा नास्तिक संप्रदायों का प्रभाव समाप्त हो गया। यह काल धार्मिक सहिष्णुता काल रहा।

शुंग कालीन संस्कृति