Homeभारतीय संस्कृतिSanskriti Ki Prakriti संस्कृति की प्रकृति

Sanskriti Ki Prakriti संस्कृति की प्रकृति

संस्कृति एक समाज से दूसरे समाज तथा एक देश से दूसरे देश में बदलती रहती है। इसका विकास एक सामाजिक अथवा राष्ट्रीय संदर्भ में होने वाली ऐतिहासिक एवं ज्ञान संबन्धी प्रक्रिया व प्रगति पर आधारित होती है। किसी भी देश के लोग अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक परंपराओं द्वारा ही पहचाने जाते हैं और यही पहचान Sanskriti Ki Prakriti होती है ।

Nature of Culture
स्थानीय संस्कृति की अपनी विशेषताएं होती हैं। विजातीय संस्कृति के आगमन पर स्थानीय संस्कृति की उसके विरुद्ध तीव्र प्रतिक्रिया होती है, किन्तु वह शीघ्र ही अपने को संयुक्त में लेकर शान्त हो जाती है। फिर जो कुछ उसने प्राप्त किया है उसे अपनी प्रकृति के अनुरूप ढाल नई संकेन्द्रित इकाई में अपनी विशेषताओं को समावेश  कर सुरक्षित बनाती है।

संस्कृति को दो भिन्न-भिन्न अर्थों में प्रयुक्त किए जाने के आधार पर इसके दो उपविभाग कहे जा सकते हैं, भौतिक और अभौतिक। मानव के जिन क्रिया कलापों में बाहय उपयोग या भौतिक प्रगति की प्रधानता है, उसे भौतिक संस्कृति कहा जा सकता है। कृषि, पशुपालन, यन्त्र निर्माण, विभिन्न वस्तुओं का उत्पादन आदि भौतिक संस्कृति है। अभौतिक संस्कृति का संबन्ध विचारों, भावनाओं, आदर्शों और विश्वासों से है अर्थात मानव की मानसिक उन्नति के व्यापक अर्थ में इसका प्रयोग किया गया है। इसमें धर्म, नीति, विधि-विधान, विद्याएं, कला-कौशल, साहित्य, मानव के समस्त सद्गुण और शिष्टाचार निहित हैं।

संस्कृति कैसे सीखें How to learn Culture

संस्कृति की प्रकृति को समझने में सहायक विशेषताएं
1 – संस्कृति सीखी जाती है
सीखे हुए व्यवहार प्रतिमानों के संपूर्ण योग को संस्कृति कहते हैं। मनुष्य जिस संस्कृति में जन्म लेता है, उससे वह सीखता है। मानव की भाषा व प्रतीकों के माध्यम सेविचारों के आदान-प्रदान की शक्ति इस बात की द्योतक है कि वह दूसरों से संस्कृति के तत्वों को सीख सकता है। जन्म के समय बच्चों में संस्कृति संगत व्यवहार करने का कोई भी तरीका नहीं होता है, इन्हें वह बड़े होने के साथ-साथ सीखने की जटिल प्रक्रिया के माध्यम से प्राप्त करता है।

संस्कृति वह है जिसको समाज में आने के बाद व्यक्ति परिवार, धर्म , जाति, बंधुत्व आदि समूहों द्वारा सीखता है। पशुओं द्वारा सीखे हुए व्यवहार और मानव के संस्कृति पर आधारित व्यवहारों में जो अन्तर है, उसे समझे बिना संस्कृति की वास्तविक प्रकृति को नहीं समझा जा सकता। पशुओं द्वारा सीखे हुए व्यवहार वैयक्तिक होते हैं, इसलिए उसे संस्कृति नहीं कहा जा सकता। इसके विपरीत मानव की सांस्कृतिक व्यवस्था के व्यवहार, तरीके या आदतें सामूहिक आदतें होती हैं, जिन्हें हम रीति-रिवाज, रूढ़ि या प्रथा कहते हैं।

2 – संस्कृति में संचारित या हस्तांतरित होने का गुण होते हैं
मानव अपनी भाषा और प्रतीकों के माध्यम से संस्कृति में सम्मिलित विशेषताओं व ज्ञान को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तांतरित करता है। साथ ही अपनी पिछली पीढ़ियों की कृतियों के आधार पर वर्तमान जीवन पद्धति भी प्रारंभ करता है और प्रत्येक पीढ़ी को फिर आरंभ से सब कुछ सीखना या आविष्कार नहीं करना पड़ता, बल्कि वह प्राप्त अनुभवों और ज्ञान के आधार पर पहले से बेहतर तकनीक का विकास कर सकती है।

इस प्रकार आप समझ सकते हैं कि संस्कृति अपने विकास, विस्तार तथा निरंतरता के लिए किसी एक व्यक्ति या समूह पर निर्भर नहीं रहती, क्योंकि यह अनेक व्यक्तियों की अन्तःक्रिया तथा एकाधिक पीढ़ियों की उपलब्धियों का फल होती है। कोई भी संस्कृति जड़ नहीं होती। वह परिवर्तनशील और गतिशील होती है।

3 – प्रत्येक समाज की अपनी एक अलग संस्कृति होती है
प्रत्येक समाज की भौगोलिक तथा सामाजिक परिस्थितियां अलग-अलग होने के कारण उसकी अपनी एक विशिष्ट संस्कृति होती है।सामाजिक आवश्यकताएं भी प्रत्येक समाज मेंभिन्न-भिन्न होती हैं, जिससे संस्कृति का स्वरूप भी प्रत्येक समाज में अलग होता है। इन सांस्कृतिक भिन्नताओं के कारण एक समाज के सदस्यों के व्यवहारों की विशेषताएं दूसरे समाज के सदस्यों के व्यवहारों से पृथक होती हैं।

संस्कृति में परिवर्तन भी तभी होता है, जब उस समाज के विशिष्ट व्यवहारों में परिवर्तन होता है। फिर भी संस्कृति के कुछ तत्व सभी समाजों में एक से या सामान्य होते हैं, विभिन्न समाजों की संस्कृतियों में भिन्नताएं और समानताएं दोनो ही होती हैं।

4 – संस्कृति में सामाजिक गुण निहित होता है
संस्कृति समाज के समस्त या अधिकतर सदस्यों का सीखा हुआ व्यवहार प्रतिमान होती है, इसलिए वह एक समाज की संपूर्ण सामाजिक जीवन विधि का प्रतिनिधित्व करती है। इस कारण इसमें व्यक्तिगत व्यवहारों पर सामाजिक दबाव डालने की शक्ति भी होती है। इसी सामाजिक दबाव के कारण सदस्यों की व्यवहार विधि में अधिक अंतर या भिन्नता उत्पन्न नहीं हो पाती।

इसके फलस्वरूप समाज के व्यवहार प्रतिमानों में एकरूपता होती है और संस्कृति के स्वरूप में भी एक प्रकार की स्थिरता बनी रहती है। इस स्थिरता का तात्पर्य यह नहीं है कि संस्कृति में परिवर्तन नहीं होता,बल्कि यह है कि संस्कृति एक अव्यवस्थित अवधारणा नहीं है। संस्कृति का मूल आधार जैविक न होकर सामाजिक है, क्योंकि शारीरिक लक्षण हमें आनुवांशिक धरोहर के रूप में प्राप्त होते हैं, पर हमारी आदतें, काम करने के तरीके सभी हम अपने समाज से सीखते हैं।

5 –  समाज के लिए संस्कृति आदर्श होती है
समाज /जनमानस की आदतों को , जिनसे संस्कृति का निर्माण होता है, व्यवहार के आदर्श नियम या प्रतिमान माना जाता है। विशेषकर जब अपनी संस्कृति की तुलना दूसरी संस्कृति से करने की आवश्यकता होती है, तो अपनी संस्कृति को आदर्श रूप में प्रस्तुत करने का मनोभाव उस समाज के अधितर लोगों में पाया जाता है।

 व्यवहार प्रतिमान सारे समूह का व्यवहार होने के कारण आदर्श व्यवहार माने जाते हैं। सैद्धान्तिक रूप से समूह के सदस्यों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे अपनी संस्कृति के मानकों का पालन करेंगे। इसीलिए इन आदर्श सांस्कृतिक प्रतिमानों से संबन्धित सामूहिक अभिव्यक्तियों के बारे में व्यक्ति बहुत कुछ सचेत रहता है।

6 – संस्कृति मानव आवश्यकताओं की पूर्ति करती है
संस्कृति मानव की प्राणिशास्त्रीय तथा सामाजिक दोनों  ही प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति के साधन जुटाती है। संस्कृति के अन्तर्गत अनेक भाग और उपविभाग होते हैं, जो संपूर्ण सामाजिक व्यवस्था में संगठित होते हैं, यद्यपि इनमें से प्रत्येक भाग का एक विशिष्ट स्वरूप होता है। इनमें से प्रत्येक का संपूर्ण जीवन विधि में या सामाजिक जीवन में कोई न कोई कार्य होता है।

इन समस्त भागों और उपविभागों में जो पारस्परिक संबन्ध तथा प्रभाव होता है।  उनके संपूर्ण योग से ही संस्कृति के ढांचे का निर्माण होता है और प्रत्येक भाग की संपूर्ण सांस्कृतिक व्यवस्था में जो योगदान होता है। जिस प्रकार शरीर के प्रत्येक अंग का संपूर्ण शरीर को जीवित रखने में महत्वपूर्ण योगदान होता है, उसी प्रकार प्रत्येक प्रथा या प्रत्येक संस्था का संपूर्ण सांस्कृतिक व्यवस्था की जीवन विधि को कायम रखने में महत्वपूर्ण योगदान होता है।

7 – संस्कृति में अनुकूलन करने का गुण होता है 
संस्कृति का भौगोलिक पर्यावरण से अनुकूलन विशेष रूप से उल्लेखनीय और महत्वपूर्ण है। जिस प्रकायर वनों में रहने वाला समुदाय अपनी सांस्कृतिक व्यवस्था का अनुकूलन वन की परिस्थितियों से करता है, परंतु भौगोलिक पर्यावरण संस्कृति को नहीं बल्कि सांस्कृतिक विकास की कृछ सीमाओं को निश्चित करता है, जिससे आगे एक निश्चित सांस्कृतिक स्तर के लोग नहीं जा सकते।

ज्यों-ज्यों मानव की संस्कृति का विकास होता है, उसी के साथ भौगोलिक पर्यावरण का प्रभाव कम होता जाता है। संपूर्ण सांस्कृृतिक व्यवस्था के विभिन्न अंगों या इकाइयों में विभिन्न समय में परिवर्तन होता रहता है और इन परिवर्तनों के कारण यह आवश्यक हो जाता है कि दूसरे अंग या इकाइयां भी अपना अनुकूलन परिवर्तित भागों या इकाइयों के अनुरूप करते रहें ।

चूंकि अपनी विविध आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए मनुष्य संस्कृति या इसकी विभिन्न इकाइयों को काम में लाता है, इसलिए मनुष्य को भी इन निरंतर परिवर्तनशील इकाइयों के साथ अपना अनुकूलन करना पड़ता है।

8 – संस्कृति में संतुलन तथा संगठन होता है
संस्कृति के अन्तर्गत अनेक खण्ड या इकाइयां होती हैं, परंतु ये सब आकस्मिक और अव्यवस्थित नहीं होतीं। संस्कृति के इन खण्डों या इकाइयों में एक पारस्परिक संबन्ध तथा अन्तःनिर्भरता होती है, जिसके कारण ये बिल्कुल पृथक होकर कार्य नहीं करतीं। प्रायः वे दूसरी इकाइयों के साथ मिलकर कार्य करती हैं। इस सबके परिणामस्वरूप संस्कृति के संपूर्ण ढांचे में सन्तुलन और संगठन बना रहता है।

विभिन्न इकाइयों के एक दूसरे से सम्बन्धित तथा एक दूसरे पर आधारित होने के कारण संस्कृति के एक भाग में कोई परिवर्तन होने पर उसका कुछ न कुछ प्रभाव दूसरे भागों पर भी अवश्य पड़ता है। संस्कृति की यह विशेषता सादे, छोटे तथा पृथक समाजों में स्पष्ट रूप में देखने को मिलती है, क्योंकि ऐसे समाजों में तनाव उत्पन्न करने वाली शक्तियां कम होती हैं और संस्कृति के विभिन्न पक्षों तथा तत्वों में अधिक शीघ्रता से परिवर्तन भी नहीं होते।

9 – सांस्कृतिक विशेषताएं
संस्कृति में कुछ लक्षण ऐसे होते हैं जो एक विशेष वर्ग पर ही लागू होते हैं। उदाहरणार्थ भारतीय समाज में स्त्रियों के लिए तय साड़ी आदि कुछ परिधान, पुरुष धारण नहीं कर सकते । इसी प्रकार अन्य उदाहरण भी दिए जा सकते हैं। समाज की संरचना संस्कृति में ऐसी होती है कि जिस समूह की जो सांस्कृतिक विशेषताएं होती हैं, उसको वही जनमानस अपनाता है।

10 – संस्कृति पराजैविक और परावैयक्तिक होती है
संस्कृति की प्रकृति पराजैविक होती है। कोई भी व्यक्ति संस्कृति के सभी तत्वों को नहीं अपना सकता, उनका पालन नहीं कर सकता। समूह के अलग- अलग व्यक्तियों की मृत्यु के बाद भी संस्कृति की निरन्तरता बनी रहती है। व्यक्ति के जीवन काल से संस्कृति का जीवन कहीं अधिक लम्बा होता है। संस्कृति में कई नए तत्व आते रहते हैं।

संस्कृति का अर्थ क्या है ? 

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Bundeli Jhalak: The Cultural Archive of Bundelkhand. Bundeli Jhalak Tries to Preserve and Promote the Folk Art and Culture of Bundelkhand and to reach out to all the masses so that the basic, Cultural and Aesthetic values and concepts related to Art and Culture can be kept alive in the public mind.
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