Homeबुन्देलखण्ड के त्यौहारHoli ke Vaigyanik Aadhar होली के वैज्ञानिक आधार

Holi ke Vaigyanik Aadhar होली के वैज्ञानिक आधार

हमारे सभी पर्व, उत्सव,त्योहार वैज्ञानिक आधार पर शत-प्रतिशत खरे हैं। Holi ke Vaigyanik Aadhar पर अँधविश्वास व पाखण्ड की धूल चढ़ गयी है उसे हटाने के काम यदि हम सभी मिलकर करें तो उत्सवों का असली आनंद ले सकते हैं…। बुंदेलखंड की होली में कुछ परंपरागत तरीके से वैज्ञानिक आधारों को जोड़ा गया है जो समाज के लिए बेहद उपयोगी है।

होली के पौराणिक और वैज्ञानिक आधार

वैदिक भूमि भारत मे होली का पर्व हिन्दुओँ का वैदिक कालीन पर्व है। यह पर्व कब शुरू हुआ ? इसका उल्लेख या आधार कहीं नहीं मिलता है। परन्तु वेदों एवं पुराणों में भी इस पर्व के प्रचलित होने के उल्लेख मिलते हैं। प्राचीन काल में होली की अग्नि में हवन के समय वेद मंत्रों के उच्चारण का वर्णन आता है।

ॐ रक्षोहणं वलगहनं वैष्णवीमिद् महन्तं वलागमुत्किरामि यम्मेनिष्टयो पममात्यो निचखानेदं महन्तं वलगमुत्किरामि यम्मे समानो यम समानो निचखानेदं महन्तं वलगमुत्किरामि यस्मे सबंधुर्यम संबधुर्निचखानेद महन्तं वलगमुत्किरामि यम्मे सजातो यम सजातो निचखानोम्कृत्याङ्किरामि।

होली का त्योहार वैज्ञानिक आधार
Holi festival scientific basis

प्राचीन काल से भारत ऋषि मुनियों का देश है। यह ऋषि-मुनि यानी ही उस समय के वैज्ञानिक हैं जिनका सार चिंतन-दर्शन विज्ञान की कसौटी पर शत प्रतिशत खरा-परखा, प्रकृति के साथ होली के पौराणिक और वैज्ञानिक आधार सामंजस्य स्थापित करता रहा है।

विश्व में भारत ही एक मात्र देश है जिसके सारे पर्व,त्यौहार, पूजा- पाठ, चिंतन- दर्शन सब विज्ञान की कसौटी पर परखे गये हैं। हमारे ऋषि-मुनियों ने विज्ञान को धर्म  से जोड कर इस तरह से निर्माण किया है ताकि समाज धर्म के साथ जुड कर वैज्ञानिक नियमों का भी पालन करे।

भारत देश में मनाया जाने वाला होली त्योहार भी विज्ञान के  आधार पर धर्म से जुडा है। होली की  प्रत्येक क्रिया प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मानव समाज के स्वास्थ्य और शक्ति को प्रभावित करती है। केवल एक रात में ही संपन्न होने वाला होलिका दहन, जाड़े और गर्मी की ऋतु संधि में फूट पड़ने वाली चेचक, मलेरिया, खसरा तथा अन्य संक्रामक रोगों और कीटाणुओं के विरुद्ध सामूहिक अभियान है।

जगह-जगह पर आग जला कर  आवश्यकता से अधिक गर्मी का वातावरण बना दिया जाता है जिससे  समस्त वायुमंडल को उष्ण बनाकर सर्दी में सूर्य की समुचित उष्णता के अभाव से उत्पन्न रोग कीटाणुओं को नष्ट कर देती है।

होली के अवसर पर होने वाले हल्ला-गुल्ला, नाचना-गाना, खेल-कूद, , तरह-तरह के स्वाँग, हँसी-मजाक आदि भी वैज्ञानिक दृष्टि से बहुत लाभदायक हैं। शास्त्रानुसार… बसंत ऋतु आलस्य कारक होता है। बसंत ऋतु में नींद भी बहुत आती है इस लिये यह खेल-तमाशे इसी आलस्य को भगाने में काफी सक्षम होते हैं।

होली रंगों का त्यौहार है। रंगों का हमारे शारीर और स्वास्थ्य पर अद्भुत प्रभाव पड़ता है। पलाश अर्थात ढाक के फूल यानी टेसुओं का आयुर्वेद में बहुत ही महत्व पूर्ण स्थान है। इन्हीं टेसू के फूलों का रंग मूलत: होली में प्रयोग किया जाता है। टेसू के फूलों से रँगा कपड़ा शरीर पर डालने से हमारे रोम कूपों द्वारा स्नायु मंडल पर प्रभाव पड़ता है और यह संक्रामक बीमारियों से शरीर को बचाता है।

होली पर्व और उसका महत्व
Holi festival and its importance
होली का शुभारम्भ माघ की शुक्ल पंचमी को ही हो जाता है जिसे हम बसंत पंचमी कहते हैं। किन्तु त्यौहार के रूप में यह फाल्गुन महीने के अंतिम दिन पूर्णमासी के दिन होलिका दहन के रूप में मनाया जाता है और चैत्र कृष्णपक्ष की प्रतिपदा तिथि तक चलता है। कहीं-कहीं पर लोग  होलिका दहन के दिन ही एक-दूसरे पर रंग डाल कर खुशियां मनाते हैं तो कहीं लोग चैत्र महिने के प्रथम दिन रंग और अबीर एक दूसरे पर लगा कर आनन्दोत्सव मनाते हैं।

होली पर्व को भारतीय पंचांग के अनुसार वर्ष का अन्तिम त्यौहार कहा जाता है। यह पर्व फाल्गुन मास की पूर्णिमा को संपन्न होने वाला सबसे बड़ा त्यौहार है। इस अवसर की खास बात यह  है कि बड़े-बूढ़े, युवा-बच्चे, स्त्री-पुरुष सबके अन्दर जो उल्लास व उत्साह होता है, वह वर्ष भर में होने वाले किसी भी त्योहार में दिखाई नहीं देता।

ऐसा माना  जाता है कि प्राचीन काल में इसी फाल्गुन पूर्णिमा को “वैश्वदेव” नामक यज्ञ का आरम्भ होता था, जिसमें लोग अपने खेतों में तैयार हुई नई फसल के अन्न- गेहूँ, चना,जौ आदि की यज्ञ के रूप में आहुति देते थे।और उसी को प्रसाद के रूप में ग्रहण करते थे। अनेक जगहों पर नई फसल को डंडों पर बाँधकर होलिका दाह के समय भूनकर प्रसाद के रूप में खाने की परम्परा है। यह परम्परा  “वैश्वदेव यज्ञ” की स्मृति को जीवित रखने का ही प्रयास है।

संस्कृत में भुने हुए अन्न को होलका कहा जाता है। जिसे गांव मे होला या होरा कहा जाता है। संभवतः इसी के नाम पर होलिकोत्सव का प्रारंभ वैदिक काल के पूर्व से ही किया जाता रहा है। यज्ञ के अंत में यज्ञ भष्म को मस्तक और शरीर पर लगाने की परम्परा है, शायद उसका ही परिष्कृत रूप है कि लोग होली की राख को लोगों के उपर उड़ाने की परम्परा चली आ रही है जो  होली के पौराणिक और वैज्ञानिक आधार को साबित करता है । समय के साथ साथ जो परिवर्तन हुये उनके अनुसार अनेक ऐतिहासिक स्मृतियाँ भी इस पर्व के साथ जुड़ती गईं हैं।

नारद पुराण के अनुसार
Narad Puran ke Anusar
भक्त प्रहलाद की विजय और हिरण्यकश्यप की बहन “होलिका” के विनाश का स्मृति दिवस है। ऐसा कहा जाता है कि होलिका को अग्नि में नहीं जलने का आशीर्वाद प्राप्त था। हिरण्यकश्यप व होलिका राक्षक कुल के अत्याचारी थे। हिरण्यकश्यप के अत्याचार से तंग आकर भक्त प्रह्लाद भगवान विष्णु की आराधना में तल्लीन हो गया। उसके पिता ने उसे खत्म करने के अनेक उपाय किये किन्तु वह ईश्वर की कृपा से बचता गया।

अन्त में हिरण्यकश्यप ने अपनी बहन होलिका को बुलाया। होलिका को देवताओं से वरदान स्वरूप एक चादर मिला था जिसे ओढ़ लेने से आग का कोई प्रभाव ही नहीं पड़ता था। वह चादर ओढ़कर प्रह्लाद को अपनीगोद में ले अग्निकुंज में प्रवेश कर जाती है। किन्तु ईश्वर की कृपा होलिका उसी आग में जल गई। इसी अलौकिक घटना के आनन्द में होलिका दहन के पश्चात् होली मनाने की प्रक्रिया चल पड़ी।

विष्णु पुराण के अनुसार
Vishnu Puran ke Anusar
इस त्योहार से जुड़ी एक और कथा जुडी है…. एक “लुढला” या “ढुन्दा” नाम की राक्षसी थी। वह बालकों को पकड़ कर खा जाया करती थी। लोग उससे बहुत आतंकित रहने लगे थे। राक्षसी के उपद्रवों से निपटने के लिए एक ऋषि ने उससे छुटकारा पाने के लिए बताया कि बालकों चेहरे को रंगों से विकृत बना कर लकड़ी की तलवार-ढाल लेकर जगह-जगह अग्नि प्रज्वलित करके जोर-जोर से शोर मचाने से उस राक्षसी से मुक्ति मिल सकती है।शायद इसी कारण तरह-तरह  के रंगों से अपने चेहरे को विकृत और भयंकर बना लेने की प्रथा चल पड़ी है और होली पर्व का शुरू हो गया।

बसंत सखा “कामदेव” की पूजा
Basant sakha Kamdev ki Pooja
होली के इस पर्व को बसंत सखा “कामदेव” की पूजा के दिन के रूप में भी वर्णित Described किया गया है। प्राचीन काल मे होली के दिन कामदेव की पूजा समय सम्पूर्ण भारत में की जाती थी। लेकिन आज दक्षिण में होली का उत्सव, “मदन महोत्सव” के नाम से ही जाना जाता है।

ब्रह्मपुराण के अनुसार
Bramha Puran ke Anusar
नरो दोलागतं दृष्टा गोविंदं पुरुषोत्तमं। फाल्गुन्यां संयतो भूत्वा गोविन्दस्य पुरं ब्रजेत।
      कुछ लोगो मानना है कि होली दिन झूले में झुलते हुए गोविन्द भगवान के दर्शन से मनुष्य बैकुंठ को प्राप्त होता है। वैष्णव मंदिरों में भगवान् श्रीमद नारायण का आलौकिक शृंगार करते हैं और नाचते गाते उनकी पालकी निकाली जाती है। कुछ पंचांगों के अनुसार संवतसर का आरम्भ कृष्ण-पक्ष के आरम्भ से और कुछ के अनुसार शुक्ल प्रतिपदा से माना जाता है।

पूर्वी उत्तर प्रदेश में पूर्णिमा पर मासांत माना जाता है जिसके कारण फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा को वर्ष का अंत हो जाता है और अगले दिन चैत्र कृष्ण प्रतिपदा से नव वर्ष आरम्भ हो जाता है। इस लिये आज के दिन सब लोग हँस-गाकर एक दूसरे को रंग-अबीर लगाकर नए वर्ष का स्वागत करते हैं।

इतिहास में होली का वर्णन
Itihas me Holi ka varnan
     प्राचीन भारत  की संस्कृति मे  होली की परम्परा का अनेकउल्लेख मिलते हैं। विन्ध्य प्रदेश के रामगढ़ नामक स्थान से ३०० ईसा पूर्व का एक शिलालेख प्राप्त हुआ है जिसमें पूर्णिमा को मनाये जाने वाले इस उत्सव का विशेष उल्लेख है। महर्षि वात्सायन ने अपने कामसूत्र में “होलाक” नाम से इस उत्सव का भी उल्लेख किया है। इसके अनुसार बैदिक काल मे किंशुक यानी ढाक के पुष्पों के रंग से तथा चन्दन-केसर आदि से होली खेलने की परम्परा थी।

सातवीं सदी मे “रत्नावली” नाटिका में होली

     सातवीं सदी में लिखा और खेला गया “रत्नावली” नाटिका में महाराजा हर्ष ने होली का वर्णन किया है। ग्यारहवीं शताब्दी में मुस्लिम पर्यटक “अलबरूनी” ने भारत में होली के उत्सव का वर्णन किया है। तत्कालीन मुस्लिम इतिहासकारों के वर्णन से पता चलता है कि उस समय हिन्दू और मुसलमान मिलकर होली मनाया करते थे। सम्राट अकबर और जहाँगीर के समय में शाही परिवार में भी इसे बड़े समारोह के रूप में मनाये जाने के उल्लेख हैं। यज्ञ मधुसुदन में कहा गया है
एतत्पुष्प कफं पितं कुष्ठं दाहं तृषामपि।
वातं स्वेदं रक्तदोषं मूत्रकृच्छं च नाशयेत।।

     ढाक के फूल वायु रोग, कुष्ठ तथा मूत्र कृच्छादी Urinary worm रोगों की महा औषधि हैं। दोपहर तक होली खेलने के बाद नहा दो  कर नए वस्त्र धारण कर होली मिलन का भी विशेष महत्त्व है। इस अवसर पर सभी छोटे-बड़े, अमीर-गरीब का कोई भेद नहीं माना जाता है।

यानी सामजिक समरसता का प्रतीक बन जाता है यह होली का त्यौहार। शरद और ग्रीष्म ऋतू के संधिकाल पर आयोजित होली पर्व का आध्यात्मिक व वैज्ञानिक आधार है। जैसा कि कहा गया है कि हमारे सभी पर्व-त्यौहार विज्ञान की कसौटी पर खरे-परखे हैं। बस ज़रुरत है उसकी मूल भावना को समझने की।

बुन्देली झलक ( बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य )

admin
adminhttps://bundeliijhalak.com
Bundeli Jhalak: The Cultural Archive of Bundelkhand. Bundeli Jhalak Tries to Preserve and Promote the Folk Art and Culture of Bundelkhand and to reach out to all the masses so that the basic, Cultural and Aesthetic values and concepts related to Art and Culture can be kept alive in the public mind.
RELATED ARTICLES

2 COMMENTS

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Most Popular

error: Content is protected !!