चामुण्डा पीठ दतिया शहर में स्थित एक तीर्थ स्थल रहा है। पीठ के तंत्राचार्य डा. विभूतिनाथ ख्याति प्राप्त तपस्वी एवं साधू हैं। रविवार के दिन वे शहर भ्रमण पर निकले। रवि उपमन्यु जो एक Dhongi Pandit जैसी हरकतों से बाज नहीं आते, कंधे से कंधा मिलाये तंत्राचार्य जी के साथ चल रहे थे।
संसार में सभी लोग ऐसे झूठे,कपटी, ढोंगी से दूर रहें।
तंत्राचार्य जैसे ही पहलवानों का मोहल्ला पटठापुरा में प्रवेश करते हैं अपने शिष्य गणेशदत्त के निवास की ओर देखते हैं और रवि उपमन्यु से कहते हैं कि जाओ मेरे आज्ञाकारी शिष्य गणेश दत्त से कहो, गुरूजी तुम्हें बुला रहे है। रवि उपमन्यु गणेशदत्त से चिड़ता था वह चाहता था कि कब मौका मिले और गुरुजी से इसका सम्बन्ध विच्छेद करा दिया जाय फिर गुरुजी का लाडला मैं ही रहूँगा, दूसरा नहीं।
रवि उपमन्यु गुरुजी के शिष्य गणेशदत्त के निवास पर जाने को प्रस्थान करता है लेकिन द्वार को बंद देखकर साँकल खटखटाए विना लौट आया और कहा गुरुजी शिष्य के भाव आसमान छू रहे हैं वह कह रहा था अभी समय नहीं है फिर मिलूगा। गुरुजी ने रवि उपमन्यु के कथन को सुन बहुत गुस्सा आया और कहा ठीक है अब मैं उसके निवास पर कभी नहीं आऊंगा।
रवि उपमन्यु ने कहा – गुरुजी ! यह तो गणेशदत्त द्वारा आपका अपमान हुआ है । कोई ऐसा कार्य करियेगा जिससे उसको भी सबक मिलना चाहिए। गुरुजी ने कहा क्या करूँ तुम्ही बताओ? रवि उपमन्यु ने कहा शहर में विशाल भण्डारे का आयोजन किया जाय और उसमें सारे शहर के भक्तों को बुलाया जाय । बगैर बुलाए उसके आने पर उसे अपमानित कर भगा दिया जाए।
गुरुजी ने कहा जैसा तुम चाहो । गुरुजी की आज्ञा पाकर सारे शहर के भवतों को निमंत्रण भण्डारे का दिया गया परन्तु गणेशदत्त के घर निमंत्रण नहीं पहुंचा। शहर के सभी भक्तगण जानते है कि गुरुजी का परम शिष्य गणेशदत्त भण्डारे में नहीं दिख रहा है। चार पांच भक्त इकठे इकठठे हुये और गणेशदत्त के घर पहुचे उससे कहा चलो भण्डारे में नहीं चलना है ? गणेशदत्त सिर नीचा किये बोला जाने मुझसे क्या पाप हो गया गुरुजी ने इतना चाहते हुए भी उन्होंने निमत्रण क्यों नहीं दिया भक्तगण बोले कोई बात नहीं गुरू का घर ही तो एक ऐसा घर है जहाँ बगैर बुलाए भी जाया जा सकता है।
भक्तगणों के साथ गणेशदत्त धीमे धीमे पग रखता भण्डारे में प्रवेश करता है और भण्डारे में हो रही पंगत के सबसे अंतिम छोर पर भोजन के लिए अन्य भक्तो की भांति जा बैठा परन्तु रवि उपमन्यु जो सभी भक्तों को प्रसाद परोस रहा था उसने गणेशदत्त को पत्तल नहीं परसी। उसके पास पूड़ी, सब्जी बगैरह परसने को लोग आए तो गणेशदत्त ने अपनी चरण पादुका में सब्जी और पूड़ी रखवा ली अन्त में भोजन प्रारम्भ होने के पूर्व तंत्राचार्य डा. विभूतिनाथ जी से कहा गया कि आप भण्डारे का निरीक्षण कर भोजन करने की आज्ञा दें।
तंत्राचार्य जी ने ओर से छोर तक भोजन परोसने की व्यवस्था का निरीक्षण किया ओर छोर पर बैठे उन्होंने अपने परम शिष्य गणेशदत्त को देखा कि वह अपनी चरण पादुका में भोजन रखे हैं। तत्राचार्य जी ने पूछा बेटे गणेशदत्त हमने तुम्हें रबि उपमन्यु के हाथों बुलवाया था तुमने मिलने से क्यों मना किया जबकि मैं तुम्हारे द्वार पर प्रथम बार ही आया था और तुमने भोजन को पत्तल में न रख चरण पादुका में रखे हो, ऐसा क्यों?
गणेशदत्त ने गुरुजी के चरण छुए और कहाकि रवि उपमन्यु मेरे निवास पर आया ही नहीं, उसने आपसे गलत कह दिया कि मैंने आपको मिलने से मना कर दिया। इसके बाद मुझ भण्डारे में नहीं बुलाया गया फिर भी आपके चरणों का प्रसाद ग्रहण करने भण्डारे में बगैर बुलाए चला आया, पंगत में मुझे पत्तल नहीं परोसो गई तो मैंने प्रसाद को अपनी चरण पादुका धोकर उसी में रख लिया। फिर भी मुझसे कोई पाप हो गया हो तो मुझे क्षमा करें।
गुरूजी अपने परम शिष्य गणेशदत्त के स्पष्ट बयानों को सुनकर रो पड़े और बोले बेटे गणेश दत्त ! मुझसे भूल हुई जो मेरे द्वारा तुम्हारे स्वाभिमान को धक्का लगा । मुझे भ्रमित कर दिया गया था। गुरूजी ने बहुत गुस्से में रवि उपमन्यु को बुलाया और उसे भण्डारे से बाहर निकाल दिया और भक्त जनों से कहा कि यह रवि उपमन्यु नहीं, ढोंगी पंडित है जिसने झूठ बोल कर गुरू शिष्य की निकटता में दूरियाँ लाने की चालाकी की, संसार में सभी लोग ऐसे ढोंगी से दूर रहें
लेखक-डॉ.राज गोस्वामी